मेरा एक कवि मित्र है। फेसबुक पर उसकी लम्बी फैन फॉलोविंग लिस्ट भी है, किताबें भी छप रही हैं। उसने एक दिन बताया था- यार! जब दिल टूटा था तो खूब रोया आंसू पोंछ-पोंछ कर हाल-ए-दिल कागज़ पर उतारा तब पता नहीं था नाकाम मोहब्बत मुझे इतना काम का बना देगी। अब तो शुक्रगुज़ार हूँ उसका कि मुझे छोड़ गयी अब अपने ज़ख्मों को ही कुरेद-कुरेद कर शेर लिखता हूँ। ये दर्द ही अब मुझे मज़ा देता है यार!
आज कुछ ऐसा हुआ कि लगा अपनी ज़िन्दगी की डायरी का वो पन्ना आपके लिए खोल दूँ जिसमें मेरे भी असफल प्रेम से शुरू कर सफल जीवन के सफर का रहस्य छिपा है। कोई नहीं जानता पर मैं गवाह हूँ अगर प्रेम असफल न होता तो मैं कभी व्यवसाय में सफल न होता।
मैं…. मैं शेखर और मेरी बुलबुल.... हाँ ! उसका नाम बुलबुल ही था मेरी प्रेरणा-मेरा असफल प्रेम! कवि मित्र की तरह मेरे जीवन में भी ऐसा ही टर्निंग पॉइंट आएगा सपने में भी नहीं सोचा था। मैं तो लेखक, शायर, कवि कुछ भी नहीं एक मामूली सा मास कम्युनिकेशन में एम्.ए फिर भी सच्चा प्रेम, असफल जीवन को भी सफल बना गया।
दस साल पहले जब बुलबुल ने मेरा परित्याग किया और एक प्रवासी सॉफ्टवेयर इंजीनियर से शादी कर विदेश चली गयी तब मन के भीतर उमड़ती ज्वाला से पागलों की तरह दर-बदर भटकने लगा। नींद की गोलियां इकठ्ठा कीं, रेल पटरी पर कट जाने की सोचा और भी वो सब करने की व्यर्थ कोशिश की जो इस तरह के केस में पागल प्रेमी करते हैं! अंत में डॉक्टर और मनोचिकित्सक तक की शरण लेनी पड़ी लेकिन कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।
एक दिन मेरा दोस्त सुधाकर मुझे बोला, प्राणायाम करने से मन की सारी गांठ खुल जाती है। अगर तुम ठीक होना चाहते हो तो चलो मेरे साथ, मैं एक सिद्ध योग गुरु को पहचानता हूँ वो ज़रूर तुम्हारी मदद करेंगे। मरता क्या न करता चल पड़ा नए गुरु की खोज में।
गुरुजी व्यस्क पुरुष थे लम्बा कद, तना हुआ शरीर, चमकती त्वचा। उन्हें देखते ही लगा था यहां ज़रूर मेरे भविष्य को राह मिलेगी। ध्यान में बैठते ही चारों ओर बुलबुल ही बुलबुल दिखायी देने लगी मानो प्रोजेक्टर फिट कर दिया गया हो। ऑंखें बन्द करूँ तो बुलबुल, ऑंखें खुली रखूं तो भी बस वही नज़र आती। उस हालत में दीर्घस्वास और अंदर से घुमड़कर निकलता आंसुओं का ज्वार मेरे लिए स्वास नियंत्रण व्यायाम करना कठिन कर दे रहा था लेकिन गुरु जी ने कहा कि जैसे होता है वैसे ही करो!
इसी तरह शुरू हुआ मेरे जीवन का एक नया अध्याय।
व्यायाम ने कुछ ही दिनों में मुझे बुलबुल से थोड़ी दूरी बनाने में कामयाब कर दिया। योग, व्यायाम, प्राणायाम की जटिल दुनिया ने मुझे जैसे आत्मसात कर लिया था। साथ ही थोड़ा जिम का तड़का भी लग गया और यही सब करते-करते दिमाग भी खुलने लगा। मास कम्युनिकेशन की डिग्री ले कर अब इधर-उधर नौकरी की उम्मीद में भटकने से भी कुछ खास हासिल नहीं होने वाला था। सोचा, नौकरी के लिए कहीं भटकने क्यों जाऊँ? इसी लाइन में अगर कुछ किया जाये तो कैसा हो? हाँ, इसी तरह खुद से सवाल-जवाब करते-करते एक दिन मेरे अंदर कुछ कर गुज़रने की आग धधक उठी और मैंने निर्णय ले लिया।
ज़्यादा डिटेल्स में न जा कर शार्ट में ही बताता हूँ एक कमरे के साथ मैंने ध्यान,योग, व्यायाम, प्राणायाम का एक सेंटर खोल लिया। फिर धीरे-धीरे उसे बढ़ा कर जिम भी जोड़ लिया। क्रमवार इसमें ब्यूटी पार्लर और उससे जुड़ी अन्य सुविधाओं और सेवाओं का भी प्रसार किया। इन सबके पीछे कितना खून-पसीना, उत्तेजना, उत्कण्ठा और संघर्ष आदि रहा ये बताने की ज़रूरत नहीं; क्योंकि ये सब उतनी ही मात्रा में था जितना सभी के साथ रहता है।
मेरी इस सक्सेस स्टोरी के पीछे सबसे बड़ा हाथ किसी का है तो वो है मेरी बुलबुल का। उसके परित्याग और उससे पैदा हुआ मेरा पागलपन, विरह, दुःख, यादों की प्रताड़ना ये सब अगर न होता तो मेरे अंदर वो आग भी कभी नहीं धधकती जो आज मुझे इस मुकाम तक ले आयी। तभी तो हर रात सोने से पहले नियमित मैं बुलबुल का ध्यान कर के ही सोता हूँ।
इन दस सालों में हर उम्र की महिला मेरे संपर्क में आयी, पार्लर में कर्मचारी भी महिला हैं, लेकिन कभी किसी भी स्त्री से निकटता की कोई सम्भावना मैंने पनपने ही नहीं दी। दिनभर महिलाओं के साथ ही काम करना पड़े तो एक्स्ट्रा इम्युनिटी की ज़रूरत होती हैं इसलिए हर रात मैं तीन से पाँच मिनट रोज़ बुलबुल का ध्यान करता हूँ। गुरु जी ने भी कहा था बेटा, अपने ब्रह्मचर्य का ध्यान रखना इसलिए भी स्त्री का जीवन में प्रवेश निषेध था। लेकिन आज….
आज दस साल बाद वो मेरे सामने थी मेरे पार्लर के कस्टमर के रूप में। वो जिसे मैंने अपनी सफलता का मन्त्र बना लिया था बुलबुल!
दस सालों में पंद्रह के.जी ओवरवेट और डबल चिन हो गयी है मेरी अभ्यस्त और अनुभवी आँखों ने तुरन्त ताड़ लिया। लेकिन आँखें- वो तो वैसी ही है। मुझसे बात करते हुए भी वैसे ही चमक रही थी जैसे पहले चमका करती थी और मैं उसी चमक में अपना सितारा देखा करता था लेकिन आज बुलबुल की आँखों में मेरा वो सितारा नहीं दिख रहा था, लग रहा था वो सितारा टूट कर शायद मन्नत पूरी कर गया। अब सूनापन ही शेष है।
मानता हूँ प्रेम रूप निर्भर नहीं, प्रेम का गहरा अर्थ और अस्तित्व है लेकिन रूप भी तो इसकी एक आइडेंटिटी है। जैसे बुलबुल की आँखों का वो सितारा अब मेरे लिए नहीं चमकता तो क्या मेरा प्रेम उस चमकते तारे से था जो उसकी आँखों में चमकते थे? आज इतनी बेचैनी क्यों है? पता नही! पर आज रात से मैं क्या करूँगा पाँच मिनट का वो ‘मैडिटेशन फॉर सक्सेस’ क्या अधूरा रह जायेगा? बुलबुल की आँखों में अब वो मेरा वाला चमकता तारा नहीं जो मुझे इतने साल रोज़ दिखता रहा।
क्या मुझे नई प्रेरणा फिर से तलाश करनी होगी? क्या पुराना प्रेम बरसों बाद फिर से सामने आये तो भी पुराना वक़्त नहीं लौटता!
समय कितना निर्दयी है! सब जानते हैं लेकिन मानता कोई नहीं- यही सबसे दुखद विषय है।
बीते समय की बुलबुल पिंजरे से कब की आज़ाद हो चुकी!!