Saturday 17 December 2016

मिशन : जवाब



ईशानी माँ के आपत्ति जताने पर एकदम चुप सी हो गयी थी क्योंकि वो आधुनिक विचारधारा की  लड़की होने के बावजूद उच्चश्रृंखल कभी नहीं हो पायी थी लेकिन पिताजी ने उसका समर्थन किया था बोले,
ये नौकरी सिर्फ नौकरी नहीं इसमें जीवन के अनुभव भी होंगे, ईशा को ये नौकरी ज़रूर करनी चाहिए.

ईशा हमेशा से ही अपने सेफ जोन के बाहर निकल कर निर्णय लेती है. दरअसल माँ पापा दोनों के ही कामकाजी होने के कारण बहुत बार बहुत से निर्णय उसने खुद ही लिए हैं, कम से कम अपने निर्णय उसके अपने ही होते हैं.
ईशा टीवी, सोशल नेटवोर्क से ज़्यादा लोगों से मिलना, भीड़ भरी जगहों मे जाना अधिक पसंद करती है. उसकी तलाश ऐसे लोगों या ग्रुप ही होने लगी जो लोगों से आमने सामने बातें करना पसंद करता हो. इसी तलाश ने यूनिवर्सिटी पहुँचते ही कॉलेज यूनियन का सदस्य बना दिया. माँ ने यूनियन का सदस्य बनी जानकर पहले पहल ये ही सोचा की शायद गर्ल्स कॉलेज की एकरसता दूर करने के लिए लड़कों से दोस्ती की है लेकिन पिता ने बिलकुल सही पकड़ा, ईशा के सपने और आदर्श भी बड़े हो रहे हैं इतने दिनों के एकांकीपन को दूर करने के लिए ही वो इसके ज़रिये बहुत से लोगों से एक साथ जुड़ना चाह रही है. उसके अन्दर लोगों को जानने की उनके साथ उनकी समस्याओं में खड़े होने की ललक है. पापा जब ये सब माँ से कह रहे थे तब ईशा ने भी सुन लिया उसे गर्व हो रहा था उसके पिता कितनी अच्छी तरह अपनी बेटी को समझते हैं. एक बार पापा ने यूँ ही बाते करते हुए उससे कहा था, सिर्फ इन्सान पहचानने से नही होगा अपने देश को भी पहचानना पड़ेगा. तभी से इस बात को ईशा ने सीरियसली लिया था.

लेकिन कुछ ही दिनों में राजनीति से उसका का मन उबने लगा, लोगों के दोहरे चेहरे से रूबरू होते ही उसे अवसाद सा घेरने लगा, जिसकी वजह से वो राजनीति से जुडी उसी ने उसे स्वार्थीपन और दोहरा चरित्र दिखा दिया. केतकी यूनियन की सबसे एक्टिव मेम्बर थी. हर जुलुस या भाषण में सबसे आगे रहती. कार्यक्रम खत्म होने के बाद सबसे पहले वो अपने फोटो देखती और चुन-चुन  कर ही अच्छे फोटोस फेसबुक और दूसरी जगह छपने भेजती. ऐसा करने के पीछे कारण था की पता नही कब किसी एन आर आई की नजर उस पर पड़े और उसकी किस्मत चमक जाये. ईशा  को बहुत आश्चर्य हुआ, उसने कह भी दिया तुम यूनियन, जायज़ मांगों के लिए करती हो या इसे शादी के विज्ञापन का मंच समझ कर फिर ईशा को आश्चर्य भी थी जिसका खुलासा उसने केतकी से पूछ कर ही कर लिया, तरुण से तुम्हारा रिलेशनशिप....  ये बात तो पूरा कॉलेज जानता है! केतकी कुछ देर चुप रह कर जवाब में बोली, तरुण मेरा पार्टनर है हर पार्टनर लाइफ पार्टनर नही हो सकता.
फिर भी एक रिलेशन रहते रहते .... ईशा ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी.
जीवन में हर जगह ही पॉलिटिक्स है जहाँ खेल सको खेल लो. पॉवर हाथ में आने से ही मलतब है! पहले पंचायत चुनाव जितने के बाद पार्टी सोचती है ज़िला परिषद की जीत उसके बाद विधानसभा वहाँ जीत मिलते ही लोकसभा ...... जीवन में भी यही तो होता है पॉलिटिक्स से जीवन अलग है ही कहाँ!
 ईशा के लिये ये पह्ला और कड़वा सबक था.

बात उसके दिल को लग गयी थी उसने इस बात का ज़िक्र अपने कुछ ख़ास दोस्तों से भी किया था बात उड़ते उड़ते केतकी के कानों तक पहुँच ही गयी. उसके बाद से उसका का रवैया ईशा के प्रति एकदम बदल गया. अब उसका एक ही टारगेट रहता मौका मिलते ही ईशा को सबके सामने बेइज्जत करना.
ऐसे मुश्किल समय मे सिर्फ एक ही लड़का था जो ईशा के फेवर मे बोलता था. तुषार...

तुषार ब्रिलिएंट लड़का है लेकिन अपने हिप्पीनुमा कपड़ों और बाल की वजह से सभी को यही लगता कि वो अपने कैरिअर को सीरियसली नहीं लेता इसलिए कोई उसके समर्थन को भी ज्यादा तवज्जो नहीं देता था. लेकिन अपनी बातों, सिगरेट गांजा और गिटार के साथ बेसुरे गाने से पता नहीं कैसे उसने दोस्तों की अच्छी खासी भीड़ जमा ली थी.
इस बार भी छात्र यूनियन नेता के रूप में केतकी और ईशानी के बीच कैंडिडेट केतकी को ही चुना गया, ईशा को कोने में ले जा कर बताया गया की नेता निर्वाचन के समय ग्लैमर का भी ध्यान रखना पड़ता है जो की केतकी में है.
घर आ कर बहुत रोई थी, इसलिए नही की उसे कैंडिडेट नही चुना गया बल्कि इसलिए की क्रन्तिकारी बातों को सुन कर दोहराने के लिए भी एक ऑर्गेनाइजेशन लुक्स देखता है! उसे रोता देख पापा ने कहा था, ‘ इस चेहरे को देख कर लोग मेरी बेटी को पहचाने ये मैं नही चाहता, मैं चाहता हूँ तुम्हे तुम्हारे काम के लिए सब पहचाने. एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा मुझे पूरा विश्वास है.’
काम करना चाहना या सोचना और काम करने मैदान में उतरना दो एकदम अलग बातें है इतने दिनों में ईशा ये बात समझ गयी थी. काम करने पर कदम कदम पर बाधा और षड्यंत्र का सामना करना पड़ता है. इतनी नक्लियत भरी है यहाँ देश का भला कोई करे भी तो कैसे? यही सवाल ईशा ने अपने पिता से भी किया था.
देश तुम्हारे लिए क्या है? कौन है? क्या तुम्हारे यूनिवर्सिटी के कुछ प्रोफ़ेसर और छात्र? नहीं ईशा देखना हो तो मई के महीने में बाहर निकल कर रिक्शा पर बैठना उस रिक्शेवाले को पचास को नोट पकड़ाना, देखना वो काट कर बीस ही लेगा बाकि वापस कर देगा. वो भी तुम्हारा देश ही है. यही जवाब उस दिन पापा से मिला था.

पिताजी की कही वही बात दिमाग में घूम रही थी जब स्काइप पर दिए इंटरव्यू का जवाब आया. उन्होंने शर्त रखी थी कि पहले दो साल उसे कभी छतीसगढ़ तो कभी झारखंड या फिर उड़ीसा के रिमोट एरिया में भी रहना पड़ेगा. तनख्वाह उन्होंने अच्छी ऑफर की थी. परीक्षाएं खत्म हो गयी थी और उसे एमफिल या पीएचडी करते हुए यूनिवर्सिटी में रहने की अब कोई इच्छा नहीं थी. वो घर से दूर या शहर से दूर जा कर नये लोगों में अनजाने लोगों में अपनी पहचान खोजना चाहती थी. माँ पिताजी स्टेशन छोड़ने आये माँ के साथ साथ पिताजी को भी देखा, उनकी भी आँखें भर आयी थी ईशा का भी मन हो रहा था कि कस कर उन्हें पकड़ ले लेकिन निर्णय को अब अंजाम देने का समय आ चुका था कमजोर पड़ कर उन्हें चिंता में नहीं डाल सकती थी इसलिए चुपचाप अपनी आँखों में आते आंसू को थाम लिया. ईशा ट्रेन में बैठ कर इन बातों को सोच रही थी.

 अब ईशानी के पास पिछली यादों से ज्यादा आने वाले भविष्य के बारे में सोचने को बहुत कुछ था. मध्यभारत के एक अनजान से स्टेशन पर ट्रेन रुकी और तुली अपने बैग सूटकेस के साथ उतरी, कई लोगों को उसने देखा अपनी बकरी और सर पर लकड़ी का बोझा ले कर जा रहे हैं. लहरों की तरह बने छत पर
मायावी धुप शाम होने का आभास देती हुई जाने की तैयारी में है मन मोहने वाले दृश्य देखते हुए ईशा मन ही मन तुलना करने लगी, फेसबुक और ट्विटर की बनायीं आभासी दुनिया से जिते जागते लोगों की दुनिया कितनी अलग है यही तो उसकी दुनिया है जो उसे पैदा होते ही तोहफे में मिली है यही तो उसका भारत है जहाँ वो काम करना चाहती है.

देखते-देखते दो महीने गुज़र गए इस बीच ईशानी ने आस-पास के बीस गाँव घूम लिए और उनके नाम भी याद हो गये है. उसका एन.जी.ओ जिस जगह पर था वो इलाका थोड़ा सा विकसित था. आस-पास के गाँव से कुछ बड़ा या ज्यादा खरीदना हो या डॉक्टर दिखाना हो तो वहीँ आते थे. अभी भी इन इलाकों के लोग आदिवासी जड़ी-बूटी और टोने-टोटके पर ही निर्भर हैं लेकिन धीरे -धीरे लोगों की सोच बदल रही है लोग नई पद्धति को भी अपना रहे हैं. इस बदलाव के पीछे जितना व्यक्ति के खुद का हाथ है उतनी ही भूमिका राष्ट्र की भी है ईशा को ऐसा ही लगता था. यूनिवर्सिटी में रहते हुए उसके दिमाग में जाने कैसे ये बात बैठ गयी थी की राष्ट्र वो राक्षस है जो इन्सान का सर चबा कर खा जाता है. लेकिन अपने एन.जी.ओ के लिए काम करते हुए जब उसने आँखों के सामने लोगों को अस्पताल में चिकित्सा पाते, सरकार द्वारा मुहैया करायी गयी सुविधाओं को पाते हुए देखा तो उसकी ये धारणा बदलने लगी. हाँ कुछ गफलत है, चोरियां है डकैती भी है लेकिन भारत ने अपने नागरिक के लिए कुछ नहीं किया ये जो लोग कहते हैं सरासर झूठ बोलते हैं.


तब ये मान लो की मैं झूठ कह रहा हूँ हाथ में खैनी रगड़ते हुए तुषार ने कहा. कितने दिन हो गए अपने घर मोहल्ला यहाँ तक की अपने शहर का कोई नहीं दिखा, ऐसे में तुषार को देख कर ख़ुशी में आपा ही खो बैठी थी. उसका आतिथ्य कैसे करे, क्या करे ये सोच कर ही परेशान हो रही थी ईशा. तुषार ने उसे समझाया, चिंता मत करो मैं सिर्फ आज ही तुमसे नही मिला, अभी यहाँ बहुत दिन रहना है इसलिए मिलना होता ही रहेगा.

ये मिलना हर बार एक झगडे का रूप ले लेता था जब तुषार कहता तुम यहाँ आई हो पैसोवालों के लिए काम करने, वो तुम्हे पैसा देते है उनके काम के लिए और मैं यहाँ आया हूँ तुम्हारे देश के सबसे गरीब तबके को बचाने.

गरीबों को क्या हम नहीं बचा रहे. दिन रात इन्ही कारणों से हम यहाँ दूर दूर गाँवों में भटकते हैं भोर होने से पहले निकल कर देर रात वापस लौटती हूँ sanitization से ले कर आदिवासी बच्चो का टीकाकरण सब कुछ करने का प्रयास कर रहे. इनकी ज़रूरतों को समझ कर सरकारी महकमों में चिठी-पत्री लगातार करती रहती हूँ. क्या ये सब काम नही.

जोर से अट्टहास कर उठता तुषार कहता वैक्सीन! किस चीज़ का वैक्सीन. अपने सरकार को दो न ऐसा वैक्सीन. तुमलोग यहाँ आये हो ज़मीन से जुड़े इन साधारण लोगों का जीवन नष्ट करने.

- मेरा देश.... मेरा देश क्या तुम्हारा देश नहीं?
- नहीं ईशा मेरा कोई देश नहीं...जहाँ इंसान पर अत्यचार हो रहें हो ऐसे किसी भी देश का मैं प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता. मैं जानता हूँ तुम मन लगा के यहाँ काम करती हो. तुम्हारी तस्वीर अख़बार में भी छपी थी.
- मेरी तस्वीर? मैंने तो नहीं देखा!
- जानता हूँ , ये देखो कह कर तुषार ने एक पुराने अख़बार का टुकड़ा उसके सामने फैला दिया. उसमे ईशानी और उसके एन.जी.ओ के साथियों की तस्वीर थी नीचे प्रसंशात्मक कैप्शन.
- देख कर ईशा ने कहा मैं सचमुच नहीं जानती थी....
- उसकी बात काट कर तुषार बोला, लेकिन जानने के बाद पिघल मत जाना. याद रखना किसी व्यक्ति के लिए कुछ करना तभी सफल होता है जब उसे उसकी तरह ही रहने दिया जाये. बदल डालने की मुहीम न चलाया जाये. बदलने से वो फिर कभी अच्छा नहीं रह सकता.
- क्या तुम जानते हो, इस अंचल में बहुत से लोग बसंत आते ही आत्महत्या करते है, सिर्फ यहाँ ही नहीं झारखण्ड में भी यही देखा गया है. पहले मैं सोचती थी की ये लोग प्रेम प्यार के चक्कर में ऐसा करते होंगे लेकिन बाद में पता चला ,कारण कुछ और है. जाड़े में पेड़ के पत्ते झड़ जाते है और गर्मी से पहले पत्तों में प्राण नही आते. इन बीच के महीनों में जो लोग पत्ते चुन कर अपनी आजीविका चलाते हैं वो भोजन के अभाव में मारे जाते हैं. हमलोगों ने उन लोगों ले लिए भत्ते के लिए सरकार के पास आवेदन दिया है और रेगुलर इस बारे में काम करने के लिए हाजरी भी देते है, क्या ये गलत है? सौ बेड का एक अस्पताल खुलवाया है क्या ये गलत है? हाँ उन कामों को करने के लिए मुझे मुझे ऑफिस से एक तनख्वाह मिलती है लेकिन इससे काम तो.... कहते कहते ईशा की आवाज़ भर्रा गयी.
- मैं एक बार भी नही कह रहा कि जो तुम कर रही हो वो ख़राब है, तुम्हारी जैसी लड़की कभी कोई ख़राब काम कर ही नहीं सकती. लेकिन एक बार ये सोच कर देखो की जो तुम अच्छा सोच कर कर रही हो क्या वाकई उससे आगे अच्छा ही होगा?
- मतलब? ईशा आखों से आसूं पोंछ कर तुषार की ओर देख कर पूछी.
- ये जो चकाचक रास्ता तैयार हो रहा है. यहाँ क्या होगा? बड़े अमीर लोग आयेंगे फार्म हाउस बनायेंगे अपनी अय्याशी का सामान जुटाएंगे यही तो होगा न? इससे इन गांव वालों का क्या लाभ? जंगल को जंगल ही रहने दो. मुझे मेरा अतीत लौटा दो!
- लेकिन अतीत लौटाना यानि साँप के काटे आदमी को जलसमाधि देना और कोलेरा से गाँव के गाँव उजाड़ होने देना होगा.स्कूल कॉलेज कुछ नही होगा. पिछड़े हुए लोगों को और पिछड़ने देना होगा.
-एक गहरी सांस छोड़ते हुए तुषार ने कहा, तुम अपने सपनों को इन निरीह लोगों के जीवन में कॉपी पेस्ट करना चाह रही हो.पाँव में जूते मोज़े मुंह में सिगरेट और इंग्लिश स्लैंग ये मेरे तुम्हारे जैसे मध्यम-आय वर्ग के सपने हो सकते हैं उनके नहीं.क्योंकि यही लालच दिखा कर बार बार उन्हें ठगा गया है और यूरोपियन स्टाइल में उन्नयन करने के बहाने जंगल के किनारे हर कोने पर एक-एक झोपडी बना देंगे पुलिस पोस्ट के नाम पर जैसा की सारंडा में हुआ.
- तुम्हारा सर! ब्रिज बनाने के बहाने पूरे इलाके पर कब्ज़ा करने की चाल चली गयी है.
- लेकिन नदी का पानी तो भयंकर रूप लिया था पिछली बार कितने ही लोग मारे गये. मवेशी ख़त्म हो गये. स्थिति भयावह हो उठी थी.
- तो मरे.... इन्सान मरे! जानवर मरे! फसल बर्बाद हो. प्रकृति के हाथ नष्ट हो जाने दो फिर प्रकृति ही दुबारा गढ़ेगी सब कुछ. वनवासी वन में ही सुंदर लगते है.
- ब्रिलियंट तो सारे विदेशों में हैं! तुम अमेरिका क्यों नही गये? ईशा अचानक ही ये सवाल कर बैठी.
तुषार दो घडी चुप रहकर दोनों हाथों से अपन मुंह ढक कर रों पड़ा. उसके बाद स्तब्ध खड़ी ईशा के सामने अपना मोबाइल बढ़ा कर बोला देखो, कुछ समझ आ रहा है?
- ईशा मोबाइल हाथ में ले कर देखी. साफ़ कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. सिर्फ एक फटे कपडे का टुकड़ा एक बोतल और बिखरे हुए खून के अतिरिक्त. उसने मोबाइल वापस कर दिया लेकिन कुछ बोल नहीं सकी.
- तुम्हारे सी.आ.र.पी.ऍफ़ ने क्या किया है देखो. आमजनों को माओवादी से सुरक्षा देने आये है लेकिन खुद ही भक्षक बने बैठे है. यहाँ ये नाबालिग लड़कियों का बलात्कार करते है उन्हें मार डालते है. इसी तरह रोज़ कितनी ही लड़कियां इनकी शिकार होंगी अगर हम समय रहते इनका विरोध कर इन्हें यहाँ से भगा नहीं देते.
- वो लोग तो यहाँ ब्रिज तैयार करनेवालों को सिक्यूरिटी देने के लिए तैनात किये गये है. ऐसा ही सुना है.....
- और जो आदिवासी लड़की रेप के बाद मार दी गयी उसकी सिक्यूरिटी कौन लेगा? इस बारे में सवाल नही करोगी तुम? तनख्वाह पर काम करती हो इसलिए उनके सपोर्ट में बात करोगी!
- तुली का शरीर मानो जल उठा, उसने कहा , नही! चुप नही रहूंगी. बताओ मुझे क्या करना होगा?
- मुझे नेतृत्व देना होगा क्योंकि जब एक लड़की किसी लड़की के अधिकार के लिए आवाज़ उठाती है तो विरोध का स्तर ही अलग होता है. तुम आगे रहना हमलोग पीछे रहेंगे, फिर देखते हैं वो शैतान जीतते है या हम! लेकिन ये सब करने में तुम्हारी नौकरी अगर.....?
- लात मारती हूँ ऐसी नौकरी पर! ईशानी उत्तेजना में उठ खड़ी हुई.
- मैं क्या झांसी की रानी को देख रहा हूँ अपने सामने? कहते हुए तुषार उठ खड़ा हुआ.
तुषार ईशानी के बिलकुल करीब आ कर खड़ा हो गया और प्यार से उसके गाल पर हाथ रखा. ईशा खुद को संभाल नही पाई और उससे लिपट कर रो पड़ी.

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तुषार से लिपट कर अपने प्यार का इज़हार करने के ठीक एक साल एक दिन बाद ईशानी  यूनिवर्सिटी से एम्फिल की क्लास से निकलते हुए गेट के पास उसने तुषार को देखा. इतनी देर में पृथ्वी अपनी धुरी पर तीन सौ पैंसठ दिन पूरे कर के आ गयी. और इस समय चक्र में ईशानी  का जीवन कितनी बार चक्कर खा-खा कर घुमा है अब उसे याद भी नहीं. लेकिन चक्कर खाते हुए उसने इसे-उसे कितनों को ही देखा पर कभी तुषार उसे नजर नहीं आया.

- देखती कैसे?..... मैं तो तब अमेरिका लौट गया था लेकिन मैं वहाँ से भी नजर रखता था, इन्टरनेट पर तुम्हारे बारे में आलोचना, प्रतिक्रिया और टीवी पर भी तुम्हारे बाईट. विश्वास करो तुम्हे फोन करने की बहुत इच्छा होती थी लेकिन तुम नाराज़ हो सोच कर फोन करने की हिम्मत नही कर पाता था. उसके बाद तो तुमने मोबाइल नम्बर भी बदल लिया. ईशानी और तुषार रेस्टोरेंट में आमने-सामने बैठे थे.
- मैं तुम्हारी बातों का कोई सर-पैर नहीं समझ पा रही, हाँ उस दिन इस तरह तुम्हारे भाग जाने का कारण भी नही समझ पाई थी.
- भागा नहीं, काम हो गया था इसलिए चला गया था. सुनो ईशा, अब तुम्हे सब कुछ सच बताने का समय आ गया है. मैं एक बहुत बड़े मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता हूँ और उसी के सिलसिले में उस पिछड़े जगह मेरा कुछ दिनों का प्रवास था. वहाँ ज़मीन के नीचे सोना है विशाल भंडार, हमारी कंपनी के रिसर्च टीम ने ही उसे खोज निकाला है. अब अगर तुम्हारी सरकार और तुम्हारी दयालु एन.जी.ओ वहां जनकल्याण कार्यक्रम चालाये तो हम वो ज़मीन नीलामी में खरीदेंगे कैसे? भारत का सोना हमारे हाथ कैसे आएगा इसलिए वहाँ एक अशान्ति का माहौल तैयार करना बहुत ज़रूरी हो गया था.
- क्या बोल रहे हो तुषार! तुम्हे मुझे यूज़ किया? एक लड़की जो तुमसे प्यार करने लगी थी उसे तुमने....
- एक्साक्ट्ली! तुम्हारा मेरे लिए वो प्यार समझ पाया था तभी तो उसे इस्तेमाल कर पाया. इससे मेरी कंपनी का एक बड़ा खर्च बच गया.
- मतलब?
- एक लड़की जब प्रेम करने लगती है तो वो अकेली ही सौ के बराबर हो जाती है, ऐसा नही होता तो क्या तुम एक दूसरी लड़की के लिए सी आर पी ऍफ़ कैंप के सामने माइक ले कर चीखती? अनशन पर बैठती? तुम्हे ज़बरदस्ती उठाने आये पुलिस के गाल पर यूँ थप्पड़ मार सकती? मुझे किसी भी समय स्टेट्स वापस लौटना हो सकता था इसीलिए मैं जानबूझ कर किसी मामले में डायरेक्ट इन्वोल्व नहीं होता था. लेकिन तुम्हारे हर काम की खबर रखता था बस. तुम्हारी पहली तस्वीरें तो मैंने ही सोशल साइट्स पर वायरल की थी, एक फेक अकाउंट से.
- क्या बोल रहे हो?
- पूरी तरह से नकली नहीं थी. दारू पी कर लड़की के साथ हुए बवाल की तस्वीर में थोड़ा फोटोशॉप किया और मेरी बातों में फेर-बदल और पहुँच गया पुलिस के पास. इसका नेट रिजल्ट क्या आया जानती हो?
सरकार ने वहां से अपने सारे प्रोजेक्ट्स विथड्रा कर लिये और वहाँ पुलिस नही रखने पर लोकल चोर सारा बालू सीमेंट ले कर हवा..... बस अब कुछ ही दिनों में वो इलाका हमारा होगा. एक तीर से कितने शिकार कर लिए बोलो तो... बोल कर तुषार बेशर्मी से दांत निकाल दिया.
- हाँ एक शिकार मैं भी थी. मुझे सब कुछ छोड़ कर घर वापस लौटना पड़ा.किसी को कुछ भी न बता कर इस तरह आन्दोलन में उतर पड़ने के कारण मेरे एन.जी.ओ ने मुझे निकाल दिया और उस घटना की वजह से अभी नई नौकरी मिलना भी मुश्किल है. क्रांतिकारी को कौन नौकरी देगा?
- अरे! नौकरी मैं दूँगा. इस दुनियां में सच्चे क्रांतिकारियों के लिए कोई नौकरी है ही नही कारण वो सब नौकरी अब मेरे जैसे झूठे क्रांतिकारियों के कब्ज़े में है. बोल कर तुषार हंस पड़ा.
- लेकिन तुमने जो किया है उसके बाद....
- वो मेरा एक असाइनमेंट था, और इसीलिए आज मेरिलैंड में मेरा अपना एक बंगला है. मेरिलैंड कहाँ है जानती हो? वाशिंगटन के पास. मेरे पास दो गाड़ियां है मैं कितने डॉलर सैलरी पाता हूँ जानती हो?
- क्या करुँगी मैं जान कर?
- गृहस्थी तुम्हे ही संभालनी है तो तुम्हे ही जानना होगा अपने पति की इनकम.
- फिर से ब्लफ देना शुरू किये?
- नही नही ईशा, ब्लफ नही, सच कह रहा हूँ. तुम मुझे अपने माँ पापा के पास ले चलो मैं उनसे ही बात करूँगा इस बारे में. तुम्हे बहुत मिस करता हूँ, तुमने इतना विश्वास किया था मेरा और मैंने तुम्हे धोखा दिया. मैं अपनी बाकी ज़िन्दगी उसी तरह तुम पर विश्वास कर के बिताना चाहता हूँ जैसा तुम मुझ पर करती थी. मैं तुम्हारा साथ चाहता हूँ ईशा, तुम मेरे साथ मेरे देश चलो.
- तुम्हारा देश? अमेरिका?
- जो देश मेरी कीमत नहीं जानता, मेरे टैलेंट को नही पहचानता ऐसा देश मेरा कैसे होगा बोलो तो? हाँ, मैं जहाँ जन्मा हूँ वहां कभी-कभी घुमने फिरने आ ही सकता हूँ.
- इस बार भी कोई असाइनमेंट ले कर आये हो? बोल कर पहली बार वो हंसी.
- नहीं इस बार तुम्हे ले जाने आया हूँ. मुझे खाली हाथ मत लौटाना. आई लव यू ईशा!
- मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ तुम्हारे साथ मेरिलैंड जाना भी चाहती हूँ बट ....

- बट??
- मैं पहले ही तुमसे शादी कर के वहाँ नही जाऊँगी. तुम्हे पहचानने के लिए मुझे थोड़ा समय चाहिए. मुझे ऐसे ही ले जाना चाहो तो ले चलो लेकिन तुम्हे हस्बैंड मानने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा.
- पागल हो क्या तुम. लोग शादी को ही स्वीकृति देते हैं और तुम हो की लिव-इन रिलेशन में रहना चाहती हो?
- ऐसी एक पागल को अपनी ज़िन्दगी के साथ क्यों जोड़ना चाहते हो?
- क्योंकि इस पागल के बिना मेरी ज़िन्दगी ही अधूरी है.
तुषार ने अपने हाथ ईशा के गाल पर रखा, लेकिन इस बार उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई.

टीवी पर ईशानी को देख जैसे चौंकी थी उसकी माँ आज उसकी बातें सुन कर ठीक वैसे ही चौंक पड़ी उसके निर्णय को सुन कर. जो पिता उसके हर निर्णय में साथ देते थे आज वो भी इसके लिए राज़ी नहीं लेकिन ईशानी उस पर अटल रही.
इधर तुषार ईशा को साथ ले जाने के लिए हर संभव उपाय करना शुरू कर दिया था. ईशानी की सीवी कई यूनिवर्सिटी में अप्लाई किया तब जा कर एक यूनिवर्सिटी से कुछ स्कालरशिप के साथ एडमिशन की व्यवस्था हो पायी.
- इसके बाद तो मेरे लिए तुम्हारा बहुत रुपया खर्च होगा वहां, ईशा फोन पर बोली.
- रुपये नही डॉलर! लेकिन ये मत भूलो जो भी मिला है सब तुम्हारी वजह से. हाँ एक बात और इंडिया फिनडीया मेरे लिए मैटर नहीं करता बस तुम करती हो. इफ यू वांट देन ... शादी न होने तक तुम्हारे लिए हॉस्टल एकोमोडेशन भी देख लेता हूँ.
ईशा हंस कर बोली, इंडिया की लड़कियां अब काफी एडवांस हो गयी है मैं तुम्हारे साथ ही रहूंगी.
ईशानी की बात सुनकर पीछे खड़े उसके पिता हैरान हो गये और फोन के उस पार तुषार भी.

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 तुषार के हैरान होने के अभी कई मौके और आने वाले थे. अमेरिका की पुलिस जब उसे हथकड़ी पहना कर रास्ते से लेकर गाड़ी तक ले गयी. उस पल तक भी इस मायावी रहस्य से निकल नहीं पाया था. कम से कम दो साल के लिए जेल हो सकती है ये जानकर टूट गया था वो, तब उसने पूछा था आखिर मेरा अपराध क्या है?
- एक लड़की से बिना शादी किये उसे हायर एजुकेशन के सपने दिखा कर धोखे से इंडिया से अमेरिका ले आना और उसके बाद उससे मेड सर्वेंट के काम करवाना..... पुलिस ऑफिसर ने उसकी बात का जवाब दिया.
- क्या मतलब? तुषार के सर पर मानो आकाश ही टूट पड़ा.
  जवाब के बदले तुषार को कुछ फोटोग्राफ दिखाए गये. उनमे से किसी में ईशा तुषार के जूते पोलिश कर रही है तो किसी में उसके घर में खाना बना रही है तो किसी फोटो में बर्तन धो रही है वो भी डिश-वॉशर में न डाल कर अपने हाथों से और एक फोटो में तुषार ईशानी के हाथों से किताब छिन रहा था. बाकी तस्वीरें कब ली गयी उसे नहीं पता लेकिन किताब हाथ से लेने की घटना उसे याद थी. ईशा दिन रात यू.एस लॉ की किताबें पढ़ती थी तब एकाध दिन ऐसा भी हुआ की मैंने उसके हाथ से किताब छिन कर कहा था, अब सो जाओ और कितना पढ़ोगी आँखे ख़राब हो जाएगी लेकिन उस समय फोटो कैसे ली गयी ये समझ नहीं आ रहा? तुषार खुद से बुदबुदाते हुए कहा.
-ये तो नहीं बता सकता लेकिन ये जानता हूँ की उस लड़की ने फ़ेडरल लॉ बहुत अच्छे से पढ़ी है. आपका निकलना मुमकिन नहीं. बहुत ठंडी आवाज़ में पुलिस सार्जेंट ने जवाब दिया.
अमेरिका के अलग-अलग राज्य में अलग अलग नियम हैं मेरिलैंड में नियम थोड़ा ज्यादा ही सख्त है इसलिए तीन साल की सजा हो गयी उसे. तुषार सोच रहा था की उसे जेल भेज कर वो देश जा कर सबको मुंह कैसे दिखाएगी? जब जज ने उससे पूछा की वो अपना कोर्स पूरा करना चाहती है या नहीं तो उसने स्पष्ट जवाब दिया, उसे जितनी जल्दी हो सके अपने देश वापस जाना है.
इस पूरी घटना से वो इतना ही हतप्रभ हो गया था की कोर्ट रूम में वो कुछ भी नहीं बोल सका. सिर्फ एक बार ईशानी से पूछा था, तुमने ऐसा क्यों किया?
उस दिन ईशानी ने कोई जवाब नहीं दिया.
ईशानी के अपने देश लौट जाने के बाद जेल में कई हाथों से घूमते हुए एक छोटी सी पर्ची तुषार के हाथ आई थी.
उसमे एक ही लाइन हिंदी में लिखी थी.
‘मुझे गलत मत समझना प्लीज, ये मेरा एक असाइनमेंट था.’








Thursday 1 December 2016

तुम्हारा इंतज़ार है......

कहानी : तुम्हारा इंतज़ार है.....





अभी अभी गोविंदपुर स्टेशन पर उतरी. पहली बार इस स्टेशन पर उतरना हुआ. किसी काम से नहीं, आई हूँ एक वादा निभाने. किसी को पच्चीस साल पहले किया वादा. वो कहता था वादा रखना भी ईमानदारी है सिर्फ रूपये पैसों में ईमानदारी रखना ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य नहीं हो सकता. आज मैं उससे सीखी इसी इमानदारी का मान रखने आई हूँ. हमारे संक्षिप्त से सम्बंधकाल में ज्यादा वादों का आदान प्रदान नही हुआ, जो हुआ उसमे से ये भी एक था.

जब मेरी ट्रेन आ कर रुकी तो स्टेशन एकदम सुनसान सा था लगा जैसे मेरे अलावा यहाँ और कोई है ही नहीं. एक चायवाला तक नज़र नहीं आया. इंतजार करना हो तो चाय का साथ सबसे बढ़िया होता है लेकिन वो भी नहीं. ऐसा लगा कि ये स्टेशन भारत का हिस्सा ही नही, चायवाला न दिखे ऐसा तो किसी स्टेशन में नहीं होता. अचानक कुछ लोग दिखाई पड़े तेज़ी से चलते चले जा रहे है, जैसे कुछ छुट न जाये ऐसी तेज़ी. अब अस्त व्यस्त सा एक छोटा झुण्ड बन गया. लगा इस झुण्ड में अर्जुन दिखाई पड़ा. क्या ये भ्रम था? जब किसी के बारे में ही सोचते रहो उसका ही इंतजार हो तो शायद ऐसा ही होता होगा. कितने साल गुज़र गए अर्जुन को नहीं देखा, जाने कैसा दिखता होगा अब. उस भीड़भाड़ में एक बार झांक आई लेकिन वो नहीं दिखा. स्टेशन आज भी वैसा ही है जैसा 25 साल पहले था निर्जन लेकिन खुबसूरत. प्लाटफॉर्म से ही ऊँचे पहाड़ और उस पर हरे हरे पेड़ दिखाई देते है. पेड़ के पत्ते भी कितने रंग ले कर रहते है ऐसा लग रहा जैसे पहाड़ किसी किशोर लड़के की तरह हेयर कलर से अपने बालों में कई रंग सजाए हों स्टेशन में भी कुछ पेड़ है जो इस समय फूलों से लदे है. इस सौन्दर्य को उस समय भी ऐसे ही देख कर मुग्ध हो गयी थी और तय कर लिया था की एक दिन ज़रूर यहाँ आऊँगी.


इंतजार का वक्त भी न यादों की रेल चलाता है. बैठे बैठे एक बार फिर 25 साल पुराने उस गुज़रे समय से फिर गुज़रने लगी. हम दिल्ली जा रहे थे बीच में ही गोविंदपुर स्टेशन पड़ता है. थोड़ी देर के लिए ट्रेन रुकी, मैं बाहर झांक कर देखने लगी ‘देखो कितनी सुन्दर जगह है, ऐसा सौन्दर्य की मन कर रहा यही उतर जाऊं. देखो न..’

अर्जुन झांक कर देखा और बोला, ‘ वाह! वाकई बहुत सुन्दर है मेधा. गोविंदपुर स्टेशन’  बाहर लिखे बोर्ड को पढ़ते हुए अर्जुन बुदबुदाया.
‘मैं यहाँ फिर आना चाहूंगी.’
‘कब?’ अर्जुन पूछा.
‘हम्म! आज से ठीक 25 साल बाद. तुम और मैं, चाहे जैसे भी हालात हों कुछ भी हो हम यहाँ ज़रूर आयेंगे. समझ लेना उस दिन हमारा प्रेम दिवस होगा. हमारे प्यार की 25वीं सालगिरह. हो सकता है तुम तब भी राजनीति में सक्रीय रहो और इस विशाल जनमानस में बसने की कोशिश में फिर मेरे लिए समय न मिल पाए. जानते हो तुम्हारे लिए मुझे हमेशा डर ही लगा रहता है. तुम याद रखोगे न आज की तारीख और ये प्रतिज्ञा..’
‘मैं वादा करने पर निभाता ज़रूर हूँ. बेईमानी करने के लिए भी हिम्मत की ज़रूरत होती है लेकिन उससे भी ज्यादा हिम्मत चाहिए भावनातमक ईमानदारी को बचाए रखने के लिए. मैं उसी ईमानदारी में विश्वास करता हूँ.’
‘घर में क्या बोल कर आई?’ अर्जुन ने सवाल किया.
‘झूठ बोल कर.... मैंने कहा की एक प्रोजेक्ट है उसी के लिए दिल्ली जाना होगा. अरुणा और अनुभा को बोल आई हूँ घर में फोन मत करना. तुम्हारी तरह तो मेरा कोई पार्टी का काम नहीं हो सकता न. क्या करूँ?’ मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया.

अर्जुन मेरे से एक साल सीनियर था, कॉलेज में आते ही रैगिंग में फंसी. मैं एक बहुत छोटे से एक शहर की लड़की, बड़े शहर की लडकियों से अलग हाव-भाव और पहनावे की वजह से तुरंत पहचान भी ली जाती थी और मुझमें शहरी लड़कियों जैसी न हो पाने के कारण एक हीनताबोध भी था जो व्यक्तित्व पर नज़र भी आता था. सीनियर लड़के लड़कियों ने तरह-तरह के सवाल करने शुरू किये और मजाक बनाना भी. मैं लगभग रो ही पड़ी थी तभी अर्जुन आगे बढ़ आया और मुझे सबके बीच से बचा ले गया. कॉलेज में उसकी अच्छी चलती थी स्टूडेंट यूनियन का लीडर था. सभी उसकी बात मानते थे. यहीं उससे मेरा पहला परिचय हुआ. छोटे शहर की लड़की होने की वजह से जो जड़ता मुझमे थी उसका उसे भान था उसने धीरे धीरे मेरी हीनभावना को कब आत्मविश्वास में बदल दिया पता ही नहीं चला. शायद उसका साथ ही मेरा आत्मविश्वास था. कॉलेज फंक्शन में हिस्सा लेना, गाना आता था लेकिन इतने लोगों के सामने गाने का साहस अर्जुन ने ही दिलाया था.

अर्जुन स्टूडेंट यूनियन का नेता था , वाम नेता. मैं हमेशा सोचती की इतने बड़े कॉलेज में पढने वाले लड़के लड़कियां ज़्यादातर अमीर घर से थे वो लोग कैसे वाम नेता को वोट देते है, लेकिन ये भी सच था की हर बार जीत वाम की ही होती थी. राजनीति में मेरी दिलचस्पी सिर्फ अखबार पढने तक ही थी पर अर्जुन के साथ ने राजनीति में सक्रीय भी कर दिया. कभी रैली तो कभी धरना देने के कार्यक्रम में अर्जुन के साथ जाने लगी. उस समय मैं कुछ ऐसी हो गयी थी की उसके किसी बात को ‘ना’ कहने की शक्ति मुझमे नहीं थी. कई बार ऐसा भी हुआ की पुलिस लाठी चार्ज शुरू हो गया चारो ओर अफरा तफरी का माहौल, ऐसे में अर्जुन उतनी भीड़ के बीच से भी ठीक मुझे निकाल कर दौड़ लगाते हुए पहले सुरक्षित स्थान पर पहुंचा कर फिर उस जगह पहुँच जाता.
मैं अर्जुन के लिए अक्सर डरी रहती थी पता नही कब पुलिस की गोली या लाठी लगे और.... उसे कुछ हो गया तो....
देखते ही देखते मैं कॉलेज से यूनिवर्सिटी पहुँच गयी. इतनी सक्रियता के बावजूद मैं अपनी पढाई समय पर पूरी कर लेती थी, लेकिन अर्जुन पढाई पर ध्यान नही दे पाता था. उसके नोट्स मुझे ही दूसरों से कॉपी कर-कर के उसे देने होते थे. वो बहुत मेधावी था लेकिन राजनीति करने के लिए उसने कभी पढाई पर ध्यान नहीं दिया बस हायर सेकंड डिवीज़न जितना ही अपना परसेंटेज बनाये रखता था. वो चाहता तो बहुत अच्छे नंबर ला कर टॉप भी कर सकता था किसी अच्छी जगह नौकरी का सुअवसर भी कोई उससे छिन नही सकता था लेकिन उसने सब छोड़ कर राजनीति में ही अपना भविष्य देखा. ये राजनीति भी न नशा होती है, एक बार लग गयी तो फिर छुटती नहीं.

अर्जुन और मैं कभी अकेले में नही मिले थे, जब भी मिलना होता कॉलेज कैंटीन में बहुत सारे लड़के-लड़कियों के बीच राजनीति पर ही बात करते हुए. हमारी अपनी कोई अलग बात नही होती थी. हाँ सबके बीच कभी कभी कभी हौले से वो मेरी ऊँगली छू लेता. और मुस्कुरा कर मेरी आँखों में झांक लेता था, जाने क्या हो जाता मैं घबरा कर आँखे नीची कर लेती थी. लेकिन तब भीड़ में  सबके बीच होते हुए भी सबसे अलग होने का अनुभव बिना पंखों के ही उड़ने की इच्छा जगाने लगता..

कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच ही एक दुसरे के साथ थोड़ा सा बिताया गया समय हमारे लिए प्रेम भरे दिन थे. एक दिन भी अगर बिना बताये अर्जुन गायब रहे तो मेरे मन की भटकता ही रहता, कहीं से कोई खबर उसकी मिल जाये बस इसी तोड़ जोड़ में दिन गुज़र जाता. ऐसे ही एक दिन अर्जुन सारा दिन गायब रहा. कोई खबर नहीं कहाँ है. मैं बार बार कॉलेज कैंटीन की तरफ जाती की शायद् नजर आ जाये या किसी को उसके बारे में कुछ पता हो. लेकिन कुछ पता नही चला. शाम को भारी क़दमों से सोचते हुए चुपचाप बस स्टॉप की ओर चली जा रही थी की अचानक अर्जुन सामने खड़ा हो गया. हँसते हुए कहने लगा, ‘मेरे बारे में सोचते हुए चलोगी तो बस के अन्दर नहीं नीचे चली जाओगी. मैं भी मौत का सामान ही हूँ.मुझे हमेशा साथ ले कर चलने की चिंता मत करो.धमाका हो जायेगा.’ उस दिन उसकी बात पर और उसे देख कर मैं हंस नहीं पाई थी. एक अजनबी डर मन में घर बना लिया. आँखों में नाराज़गी और आंसू दोनों झाँकने लगे.अर्जुन उस दिन बस में न जा कर जबरदस्ती मुझे ऑटो में साथ ले गया. पूरे रास्ते मैंने उससे बात नहीं की. ऑटो रुका तो सामने पार्क था अर्जुन ने मुझे वहीँ उतरने को कहा. बिना कुछ कहे मैं चुपचाप वहाँ उतर गयी.

आज पहली बार कॉलेज कैंटीन के बाहर हम एक साथ बैठे थे. मेरा गुस्सा आन्सुनो में फुट कर बह निकला. थोड़ा शांत होने के बाद मैंने उससे कहा, ‘तुम बिना बताये ऐसे क्यों गायब हो जाते हो मन बेचैन होने लगता है. बुरी आशंकाओं से दिल बैठा जाता है लेकिन ये सब बातें तुम्हे समझ ही कहाँ आती है.’

पहली बार उसने मेरा हाथ अपने हाथो में लिया.कुछ देर हमदोनो चुपचाप उस लम्हे को महसूस करते रहे. खोमोशी अर्जुन ने ही तोड़ी, कहा – ‘ मेधा! अब तुम्हे इन चिंताओं से मुक्त होना होगा.अब मेरे और तुम्हारे रास्ते अलग होने का समय आ गया है. विश्वास करो मुझे भी तुमसे उतना ही प्यार है जितना की तुम मुझसे करती हो लेकिन इस प्यार के लिए जो क़ुरबानी देनी होगी वो मैं नहीं दे सकता. जितना प्रेम तुम्हारे लिए है ठीक उतना ही प्रेम मैं उन लोगों से भी करता हूँ जो समाज के सीसी दर्जे में दर्ज नहीं होते, हमेशा से शोधित वंचित और पल पल मरने को मजबूर हैं. मुझे उनके पास जाना होगा उनके साथ खड़ा होना होगा. उनके लिए लडाई लड़नी है. उनके जीवन के लिए संघर्ष करना है. इन सबके साथ मैं तुम्हे ले कर नहीं चल सकता. पता नही कब कौन सी गोली मुझे आ कर लगेगी और उस दिन सब खत्म. तुम्हे देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं होगा. न घर न संसार न ख़ुशी... कुछ भी नहीं.
मैं तुम्हे कभी भी सुखी विवाहित जीवन का वादा नहीं कर सकता. बल्कि कहना चाहता हूँ तुम पढाई ख़त्म कर के अपना अच्चा भविष्य बनाना और एक अच्छे लड़के से शादी भी कर लेना. चाहो तो इसे भी मेरा आदेश ही समझ लो.
मुझे अब यहाँ से चले जाना होगा. एक नये लक्ष्य, नई जगह, नये नाम और पहचान के साथ.आज के बाद मेरा तुमसे कोई सम्पर्क नहीं होगा.जानने की कोशिश भी मत करना.मर गया तो शायद टीवी और अख़बार के ज़रिये तुम तक खबर ज़रूर पहुँच जाएगी.
तुम्हे छोड़ कर जाने के लिए तुम मुझे माफ़ कर सकोगी न मेधा!

बहते आंसुओं के साथ अर्जुन की सारी बातें सुनती रही थी. अंत में बस इतना ही बोल पायी, ‘तुमने कभी शादी का वादा नहीं किया और न ही कभी ऐसे सपने दिखाए जिसके लिए माफ़ी मांगों. तुम्हे तुम्हारे कर्तव्य के रास्ते से मैं कभी मुड़ने नहीं कहूँगी. जैसा तुमने कहा वैसा ही होगा.’

वो शाम ही हमारे रिश्ते की आखरी शाम थी. आज 25 साल बाद फिर इस स्टेशन पर उसके इंतजार में बीते दिनों के याद के साथ मैं.... लेकिन अर्जुन अभी तक आया क्यों नहीं वो भूलेगा नही पूरा विश्वास है फिर क्या हुआ?

ज्यादा समय नहीं लगा मुझे इन सवालों के जवाब पाने में। अगली सुबह के अख़बार के पहले पन्ने पर ही मेरे सारे सवालों के जवाब थे। सरकार के लिए मोस्ट वांटेड नक्सली अर्जुन पुलिस और खुफिया विभाग की सक्रियता से पकड़ा गया था। लिखा था कि प्रारंभ में उदारपंथी नक्सली विचारधारा से प्रभावित अर्जुन बाद में प्रशासन की दमन नीति के प्रतिकार में उग्रपंथी मार्ग की ओर मुड़ गया। माना जाता था कि सेना और पुलिस की टुकड़ियों पर हमले, सुदूरवर्ती इलाक़ों को जोड़ने वाले पूलों, सड़कों आदि को बम ब्लास्ट आदि से उड़ाने जैसी घटनाओं की योजना उसी के दिमाग की उपज थी। कहा जा रहा था कि गोविंदपुर स्टेशन पर भी वह अपनी किसी आगामी योजना की रेकी के लिए आने वाला था, जिसकी सूचना पुलिस को किसी मुखबिर से मिल गई और समय रहते उसे गिरफ्तार कर लिया गया। मैं जानती थी, और बातों में चाहे जितनी सच्चाई हो, यह बात झूठी थी। वो गोविंदपुर स्टेशन तो... वरना वो यहाँ बिना किसी सुरक्षा तैयारी के नहीं आता।

खैर, अपने तमाम कार्यों के बीच भी वह अपना वादा नहीं भूला तो इतना तो तय है कि उसके दिल के किसी कोने में मृदुल भावनाएँ, संवेदनाएँ आज भी जीवित हैं। वो उसे नहीं भूला अभी तक और न एक-दूसरे से किए वादे को ही। हाँ, इस वादे के पूरे होने की मियाद थोड़ी लंबी जरूर हो गई है। अपनी सजा पूरी कर जब वो बाहर निकलेगा, तब शायद अपना रास्ता बदल गरीबों-शोषितों की सहायता के लिए वो शायद कोई और राह तलाशे! उस राह पर चलते, अपनी मंजिल पर पहुँचते उसके चेहरे पर वही मुस्कान फिर वापस आयेगी जो मेरे मानस पटल में पिछले 25 वर्षों से छपी हुई है। उसकी इस मुस्कान को फिर एक बार देखने का मैं इंतजार करूँगी... मैं उस से फिर मिलूँगी। ये मेरा वादा है- मुझसे, उसकी यादों से, उसके भरोसे से... इस बार कोई समय सीमा नहीं रखी है, मगर खुद से ही किया है फिर एक मुलाक़ात का वादा.....      




Monday 28 November 2016

पारम्परिक चिकित्सा पद्धति होडोपैथी

इस दुनिया में देखा अनदेखा इतना कुछ है कि कभी कभी हम संशय में पड़ जाते हैं किस पर यकीन करें और किसे मात्र संयोग समझ कर आगे उस पर और विचार या शोध न करें। चिकित्सा पद्धतियां भी इन्ही विश्वास अविश्वास के बीच अपनी राह बनाती आगे बढ़ रही जिससे मानव जाति लाभान्वित हो रही तो साइड इफेक्ट्स के झटके भी खा रही है। एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद,यूनानी और भी कितनी ही पद्धतियां है जिसके सहारे इंसान रोगमुक्त होने की कोशिश में लगा रहता है …….. एक पद्धति और भी है जो प्रचलित नहीं है क्योंकि इसे वनों में रहनेवाले जनजाति समूहों ने विकसित किया और अपने तक ही सिमित रखा। आज समय बदला और जनजातीय समूहों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया साथ ही उनकी संस्कृति, परम्परा, चिकित्सा पद्धति भी।
हम कथित सभ्य समाज के लोग इन चिकत्सा पद्धति का मज़ाक उड़ाते है जंगली विद्या भी कहते हैं लेकिन कुछ बीमारी और जख्मों पर ये इलाज रामबाण जैसा काम करता है। दो ऐसे उदाहरण मेरी आँखों देखी है।।


उम्र लगभग 14-15 होगी जब थेदुअस टोप्पो गाँव में खेलते हुए पेड़ से गिर पड़ा था। ऊपर से चोट ज़्यादा नहीं थोड़ा बहुत छिल गया था लेकिन कमर सीधी नहीं हो रही थी और बाँया हाथ भी भयानक पीड़ा थी शायद टूट ही गया होगा। दर्द से बेहाल थेदुअस को उसके दोस्त किसी तरह उसके घर ले गए। इत्तेफाक ही था कि उसका पिता गांव प्रमुख तो था ही बहुत अच्छा वैद्य भी था। दूर दूर गाँव से लोग उसके पास इलाज के लिये आते थे।
पिता ने जंगल जा कर कुछ जड़ी बूटियां और बड़े बड़े पत्ते जमा किये उसके साथ बांस की पतली पतली छड़ी बनायी। बेटे के कमर और हाथ पर जड़ी बूटी का लेप लगा कर उसे बड़े पत्तों से ढक बांस की छड़ीयों को पूरे कमर और हाथ पर जंगली लताओं की मदद से बांध दिया। करीब महीने दो महीने यूँ बंधा रहने के बाद जब इसे खोला गया तो थेदुअस का हाथ बिलकुल ठीक हो चुका था। कमर का दर्द भी नहीं था और अब वो सीधा खड़ा भी हो सकता था लेकिन कुछ दिनों बाद पता चला की उसके कमर की चोट काफी गहरी थी जो की पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाया था जब भी झटका लगता या बहुत भारी सामान उठाने पर उसे तीव्र दर्द शुरू हो जाता जो आराम करने पर धीरे धीरे चला जाता।
थेदुअस के पिता ने उसे सख्त चेतावनी दी थी कि कभी किसी भी प्रकार का नशा मत करना ये किया तो शरीर टूटने लगेगा और कमर दर्द बुरी हालत में आ जायेगा।
थेदुअस ने पिता की बात हमेशा याद रखी तो दर्द से भी बचा रहा लेकिन ढलती उम्र में बुरी संगत का असर ऐसा हुआ की शराब के नशे के साथ ही ड्रग्स का आदी भी हो गया। सचमुच ही उसका स्वास्थ्य तेज़ी से बिगड़ने लगा और अब हमेशा ही कमर दर्द से पीड़ित रहता है।
थेदुअस टोप्पो की उम्र आज करीब 54-55 वर्ष है, उसके पिता अब जीवित नहीं लेकिन आदिवासी पद्धति से किया उपचार का बेहतरीन उदाहरण मेरी आँखों के सामने है।
दूसरी घटना एक साल पुरानी है। पार्लर में काम करनेवाली एक आदिवासी महिला का बेटा अचानक ही मिर्गी दौरे से पीड़ित हो गया। अपने सामर्थ्य अनुसार उसने डॉक्टर दिखाया दवा भी की लेकिन परिणाम संतोषजनक नहीं मिल रहा था। तभी उसके किसी परिचित ने एक ऐसे पारम्परिक उपचार करनेवाले वैद्य की खबर दी जो दूर किसी जंगल के पास बसी बस्ती में रहता है। संगीता अपने बेटे को ले कर उसके पास गयी मात्र 4 बार जा कर दवा के डोज़ लेने के बाद अब उसका बेटा पूरी तरह स्वस्थ है अब कभी उसे दौरा नहीं पड़ा।
इस इलाज के बदले मूल्य भी अपनी इच्छानुसार देने की बात ऊस वैद्य ने कही थी। चाहे रूपये दो या खाने का कुछ सामान सब चलेगा।
ये है आदिवासियों की पारम्परिक चिकित्सा पद्धति जो कि लुप्तप्राय है क्योंकि अब न जंगल बच रहे कि जड़ी बूटियां उपलब्ध होंगी और न ही आदिवासियों को उनकी परम्परा के साथ रहने दिया जा रहा।
संस्कृति और परम्परा में बहुत सी उपयोगी चीजें भी छुपी होती है जिसे खत्म होने से बचाना चाहिए।

Monday 7 November 2016

असफल की डायरी


असफल की डायरी





सफलता और असफलता का मापदण्ड नितांत ही निजी विषय है। कहते हैं न ‘मन के हारे हार और मन के जीते जीत!’
भले ही दुनिया उच्च पदस्थ होना या समाज में आर्थिक आधार पर सम्माननीय होना ही सफल होने का पर्याय माने लेकिन असली सफलता तो संतुष्टि में हैं।

सिक्के के एक तरफ सफलता है तो निश्चित ही दूसरी ओर असफलता होती है। हम सफल होतें है तो खुश हो जाते हैं, श्रेय कभी खुद तो कभी किसी करीबी को देते हैं लेकिन असफल होने पर इसका दायित्व या कारणों के मूल में हम कभी जा पाते है? शायद नहीं ... शोक इतना अधिक होता है कि मूल कारण पर ध्यान कभी नहीं जाता।

असफलता के कई कारण होते हैं। कभी-कभी हम राह ही गलत चुन लेते हैं शायद निर्णय में असावधानी जिसे हम बदकिस्मती भी कहते हैं। कई लोगों की असफलता की कहानी जानने के बाद मुझे सबसे बड़ा कारण ‘भय’ ही लगा।
अनिश्चित भविष्य का भय  हमारे मन पर ऐसा असर करता है कि सब कुछ सही होते हुए भी हम कुछ कदम गलत उठा ही लेते हैं और यही कदम हमें असफलता की राह ले जाता है। डर के कई कारण होते हैं जिन्हें कई बार सही तरीके से समझ भी नहीं पाते तो कभी पता ही नहीं चल पाता कि अपनी तरफ से सारी तैयारी और योग्यता होने बावजूद असफलता क्यों हाथ आई!
मेरे जीवन में कई मौके आये जहाँ मुझे मेरी पसंद का ही कार्यक्षेत्र मिला
लेकिन छोटे-छोटे अवरोधों से लड़ने और उन्हें दूर करने की मामूली कोशिश के बाद हर बार मैंने हार मान ली, आगे बढ़ने के रास्ते खुद ही बन्द कर दिए।गुज़रते समय के साथ जब कभी किसी मुकाम पर न पहुँच पाने के कारणों की खोज करती हूँ तब हमेशा ही मेरा डर और काफी हद तक आलस्य को ही इन सब की वजह पाया।
अपने जीवन को एक निश्चित दिशा न दे पाने का जितना दुःख नहीं उससे कहीं ज़्यादा दुःख और अपराधबोध मुझे अपने एक निर्णय से है जिसे मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी असफलता मानती हूँ मेरे एक निर्णय ने एक दूसरे जीवन की दिशा ही बदल दी। उसके सुनहरे भविष्य का दरवाज़ा मैंने हमेशा के लिए बन्द कर दिया। मुझे ज़िन्दगी ने कई मौके दिए हर बार मैंने ठुकरा दिया उसे ज़िन्दगी ने सबसे सुनहरा मौका दिया था उसकी योग्यताओं के अनुरूप लेकिन मैंने छीन लिया। उसकी मैं बड़ी बहन हूँ लेकिन उस वक़्त मैं उसकी मेंटर भी थी। मेरी इच्छा और मेरी सलाह(आदेश्) के बिना मानों उसके हर बड़े निर्णय पूरे ही
नहीं होते थे  :-(

घटना जितनी पुरानी होती जा रही दिल पर दाग उतना ही गहरा होता जा रहा है।
साल 2000 था। रांची के अख़बार में छपे विज्ञापन पर नज़र पड़ी। BSc आर्मी नर्सिंग कोर्स के लिए आवेदन आमन्त्रित किये गए थे। छोटी बहन किसी भी तरह का बहाना न कर पाये इसलिए विज्ञापन की कटिंग और फॉर्म  एक साथ उसे पोस्ट  से भेज दिया। पश्चिम बंगाल के 24परगना ज़िले के एक छोटे से जगह में रहने के कारण उसे फॉर्म भरने आदि के लिए बहुत सी परेशानियों से दो चार होना पड़ा। बिहार से माइग्रेट विद्यार्थी होने की वजह से उसे एफिडेफिट आदि भी जमा करना पड़ता, पर उसने बहन की इच्छा को अपना सपना बना लिया।
कभी-कभी मज़ाक से कहती दीदी, मेरा वज़न ही तो सिरिंज जितना है कहीं मुझे छांट न दे। मैं कहती पहले दिमाग का टेस्ट पास करो फिर फिजिकल टेस्ट की सोचेंगे, अभी उसमें टाइम है तब तक अच्छी डाइट ले कर वजन बढ़ा लो। इसी तरह की बातें हमारे बीच चलती रहतीं और वो परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ ढेर सारा केला खाना और वजन बढ़ाने की हर संभव तरकीब में लगी रहती। तमाम बाधाओं को पार करते हुए रिटेन, इंटरव्यू, फिजिकल टेस्ट सब में मेरिट के साथ पास
हो गयी। जैसे-जैसे रिजल्ट निकलता वो मुझे खुशखबरी देती और मैं नाना
चिंताओं में घिरने लगती। आर्मी नर्स की ज़िन्दगी की कठिनताओं के बारे में कुछ खबरें इधर-उधर से मिलने लगीं और कुछ मेरे अपने पूर्वाग्रह बेचैन करने लगे थे। मुझे लगने लगा छोटी बहन सबसे दूर अकेली कहीं मुश्किल में पड़ गयी तो क्या करुँगी? कोई और नौकरी हो तो जब चाहे छोड़ दे लेकिन ये नौकरी तो यूँ ही छोड़ी नहीं जा सकेगी। दिन-रात मैं यही सोचती रहती और एक दिन जब उसका अपॉइंटमेंट लेटर आ गया और बहुत मुश्किल का सामना कर के किसी तरह एक टिकट वेटिंग में मुम्बई का मिला तो मैं अड़ गयी .... ज़िद पकड़ ली नहीं जाना है,’ जब टिकट भी कनफर्म्ड नहीं मिला तो समझना चाहिए वहां न जाना ही ठीक
होगा।‘ जैसे कमज़ोर तर्क दे कर उसे रोकने की कोशिश करने लगी।छोटी बहन बहुत रोयी, मुझे समझाने की बहुत कोशिश की; लेकिन मेरे अक्ल पर मानों पत्थर ही पड़ गए थे। मेरा डर मुझ पर इतना हावी हो गया था कि नकारात्मक बातों के अतिरिक्त मुझे कुछ और समझ ही नहीं आ रहा था। मेरी बातों ने बाकी सदस्यों पर भी असर किया सबने मिल कर बहन के सुंदर भविष्य का सपना बिखेर कर रख दिया।
बहन कई साल तक अपना टिकट संभाल कर रखी रही। आँखों में आंसू आते पर कभी मुझे दोष नहीं दिया। मैंने उसे अनजान मुसीबतों से बचाये रखने के लिए दूर जाने नहीं दिया लेकिन वक़्त ने किसके लिए क्या मुकर्रर किया है ये सिर्फ वक़्त आने पर ही पता चलता है।
माँ के कैंसर से लड़ने के दौरान सबसे ज़्यादा कठिन संघर्ष छोटी बहन ने ही किया।माँ को इलाज के लिए ले कर जाने से लेकर उनकी अंतिम सांस तक उसी ने सेवा की, सारी मानसिक यंत्रणा भी उसने ही सही।
उसके जुझारू व्यक्तित्व और स्वभाव के साथ सेवा भाव देखती हूँ तब मुझे अपने निर्णय पर पछतावा और बढ़ जाता है। अगर उसने आर्मी ज्वाइन की होती तो उसकी अलग पहचान होती। कैंसर पीड़ित माँ का संघर्ष थोड़ा आसान होता। मेडिकल सपोर्ट ज़्यादा मिलता।
आज भी वो अपने जीवन में खुश और संतुष्ट है, खुशहाल पारिवारिक जीवन है; लेकिन जो अवसर उसके जीवन को एक मुकाम तक पहुंचाता मेरी वजह से हासिल न हो पाया।
ये उसकी नहीं मेरी असफलता है।इस विफलता ने मुझे बहुत बड़ी सीख दी। मौका मिले तो पूर्वाग्रहों के कारण अति चिंता से उपजे भय के कारण अवसर को गंवा देना असफलता ही नहीं मूर्खता भी है।

Tuesday 20 September 2016

एसिड अटैकर की डायरी


कहीं पढ़ा था शरतचंद्र ने अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना “देवदास” के बारे में लिखा था कि उन्हें अफ़सोस है उन्होंने देवदास जैसे चरित्र की रचना की।
शायद समाज को देव जैसे चरित्र का परिचय नायक के रूप में नहीं देना चाहते थे लेकिन कालांतर में देखिये यही सबसे पसंदीदा चरित्र बन गया यही नहीं प्रेम अस्वीकार किये जाने पर पारु को गुस्से में चोट पहुँचाने को भी प्रेम की अभिव्यक्ति ही समझा गया।कुछ पुरुषों में ऐसी मानसिक विकृति हमेशा से रही है चाहे वो उपन्यास का चरित्र ‘देब’ हो या  आज का एसिड अटैकर!

सुनो पार्वती, इतना सुंदर होना अच्छा नहीं। अहंकार बढ़ जाता है। गले का स्वर थोड़ा नीचे कर के बोला, देखती नहीं, चाँद का ऐसा रूप है तभी तो उस पर भी कलंक का काला दाग है; कमल इतना सफ़ेद है तभी तो काला भंवरा उस पर बैठा रहता है। आओ, तुम्हारे चेहरे पर भी थोड़ा दाग लगा दूँ।
.... वो अपनी मुट्ठी में मछली मारने की बंसी कस कर पकड़ा और ज़ोर से घुमा कर पार्वती के माथे पर आघात किया; तुरन्त ही माथे से ले कर बायीं भौं के नीचे तक चीर गया। देखते ही देखते पूरा चेहरा खून से भर गया।
पार्वती ज़मीन पर गिर पड़ी और बोली, देबदा, ये क्या किया!
.... छी! ऐसा मत करो पारू।
शेष-विदा के क्षणों में बस याद रखने जितना एक चिन्ह छोड़े जा रहा हूँ।ऐसा सोने जैसा चेहरा कभी-कभी तो आईने में देखोगी न?....

ऊपर लिखा संवाद कितने ही लोगों ने पढ़ा होगा। क्या किसी ने कभी देवदास को विलेन करार दे कर उसे कितने साल जेल कितनी बार फाँसी होनी चाहिए इस पर कोई व्यख्यान दिया है? कभी फेमिनिस्टों को लगा, ये एक नारी के प्रति नर का अत्याचार है? या कि सभी ने इसे एक प्रेमी का प्रेमिका के प्रति व्याकुल उन्माद प्रेम-चाबूक के तौर पर ही स्वीकार लिया। या कि प्रेम की महान खुजलीज्वाला का प्रतिक स्वरुप, पाने की इच्छा और न पाने की वेदना के कॉकटेल के तौर पर, अपने अधिकारबोध और दूसरे पक्ष के अस्वीकार्यता के धक्के से दिशाज्ञानशून्य अक्रोशी प्रेम रूप मान कर पाठकों के हृदय में स्वर्णाक्षर में छप गयी और ब्लॉकबस्टर हिट फ़िल्म की अमर पोस्टर बन कर दर्शकों के मानसपटल पर हमेशा के लिए छा गयी!

अगर ऐसा ही है तो मेरे समय में इतनी काई-किचिर क्यों मची है? मैंने तो बस इसी सीन को थोड़ा सा बढ़ा-चढ़ा लिया है। बंसी की जगह एसिड। थोड़ा सा दाग करने की बजाय पूरे चेहरे को जला कर वीभत्स कर दिया .... सिर्फ डिग्री का फर्क है, लेकिन उद्देश्य तो एक ही है।

फॉलो करते हुए रांची से धनबाद फिर वहां से मुम्बई पहुँच गया। उसके आने-जाने के समय पर थोड़ा नज़र रखने के बाद एक दिन बस स्टैंड पर ही उसके चेहरे पर एसिड फेंका। फेंकना ही पड़ा क्या करता! वो मेरे पड़ोस में रहती थी मैं उसके प्यार में पागल था, उसे प्रेम प्रस्ताव दिया लेकिन उसने लौटा दिया।
इतनी हिम्मत उसकी! नहीं.... नहीं!
हिम्मत से भी ज़्यादा उसकी इतनी निर्दयता, असंवेदनशीलता। मैं उसके लिये रो-रो कर आँखे अंधी कर ले रहा हूँ, रात भर जाग कर छटपटाता रहता हूँ, उसकी याद में न किताबें पढ़ पाता हूँ और न ही सिनेमा देखने में दिल लगता है.... तो क्या वो एक बार मेरी हालत पर नज़र भी नहीं डालेगी?
जब मैं कह रहा हूँ कि तुमसे प्यार करता हूँ तब कितना कमज़ोर और कितना असहाय हो कर खुद को उसके सामने झुका कर कहता हूँ! प्यार में इतना असहाय हो कर लड़का आये और जो लड़की उसे लौटा दे, उसके अंदर क्या इंसान का दिल हो सकता है? या कि लोहे का टुकड़ा रखा है? जिसमे परिकथा का वो आईना बंधा है जिसमे सिर्फ अपना ही सुंदर चेहरा दिखता है किसी और की छाया भी नहीं पड़ती। पड़ोस का एक लड़का उसके लिए तड़प-तड़प कर मरा जा रहा है ये देख कर भी जिसके दिल में दया नहीं आती, उसके चेहरे का ऐसा सौंदर्य दरअसल उसके काले कुत्सित अहंकारी मन का स्क्रीन सेवर भर ही है।

समझ में नहीं आता लड़कियों को इतना घमण्ड आखिर किस चीज़ का है? लड़के प्रपोज़ करते हैं तो वो लोग कैसे “ना” बोल देती है?
हमारे देश की जो महान प्रथा है—रिश्ता तय कर के विवाह होना.... वहां तो न बोलने का कोई प्रश्न नहीं उठता। माँ बाप जिसे पसंद कर दें उसी के गले में माला पहनाना ही पड़ता है। हाँ आजकल कुछ मोडर्न बनी फॅमिली में लड़की की इच्छा भी पूछ लेते है लेकिन असल में सिस्टम ऐसा नहीं है। परिवार जिसे अच्छा समझेगा तुम्हे उससे ही प्रेम करना होगा। ये तो खूब मान लेती हो, और प्रेम-प्रस्ताव मान लेने में बुखार आने लगता है?

 रिश्तेवाली, शादी में तुम एक प्रेमविहीन सम्बन्ध में आराम से प्रवेश कर जा रही थी, कि बाद में प्रेम करना सीख लोगी और यहां तो फिफ्टी परसेंट प्रेम हुआ ही पड़ा है बाकि फिफ्टी परसेंट तुम बाद में सीख लोगी सोच कर घूमना-फिरना शुरू नहीं कर सकती हो? उपन्यास और फिल्मों की तरह का प्रेम कितनों को नसीब होता है जहां एक बिजली चमकते ही दोनों के दिल एकसाथ धड़क उठे और प्यार हो जाये?

ज़्यादातर तो ऐसा ही होता है, एक जन प्रेम करेगा दूसरा उसके आग्रह को समझ धीरे-धीरे उसकी इच्छा को अपनाने लगेगा। तो फिर जब मैंने शादी की बात रखी तो तुमने ”ना” क्यों कहा? मैं नौकरी नहीं खोजता, सुंदर नहीं इसलिए?
 ऐसा ही है तब तो तुम्हारी सोच दोगली है। सेफ-खेलना चाहती हो। तुम रुपया पैसा देख रही हो, सुरक्षा देख रही, बाहरी सुंदरता देख रही हो.... तब तो तुम्हे सज़ा मिलनी ही चाहिए।

सोच कर ही इतना अच्छा लगता है, मेरे जैसा, मैं अकेला नहीं, आज इस देश में हज़ार-हज़ार पुरुष मेरे भाई-बिरादर है जो लड़कियों पर एसिड फेंक रहे। ये देश प्रेमियों का देश है। हमलोग टोंट करते हैं, पीछा करते हैं, हाथ भी पकड़ लेते हैं, सरेआम ज़बरदस्ती चुम्बन भी... विरोध करने पर पिटते हैं, एसिड फेंकते हैं बलात्कार भी करते हैं, क्योंकि हमने प्यार किया है। पागलों की भाँति प्यार बहुत प्यार! इसलिए मेरी इच्छा मुताबिक अगर मुझे वो नहीं मिलेगी तो उसे किसी और की भी नहीं होने दे सकता। मेरे प्यार को जिसने नहीं समझा, उसे कभी किसी और का प्यार नसीब न हों इसकी व्यवस्था भी मैं खुद करूँगा। ठीक है.... मुझे फांसी होगी लेकिन ये उत्तराधिकार रह ही जायेगा।

‘पारु बाद में मन ही मन बोली थी, देबदा! ये दाग ही मेरे लिए सांत्वना है, यही मेरा आधार। तुम मुझे चाहते थे तभी तो हमारे बाल्य-प्रेम का इतिहास मेरे ललाट पर लिख गए। वो मेरी लज्जा नहीं कलंक नहीं मेरे गौरव का साम्राज्य और मैं सम्राज्ञी।‘
एक्सक्टली! तुम्हे कोई इतना चाहता है, मरने की हद तक चाहता है उसका प्यार अब ज़िद बन चूका है एकमात्र उद्देश्य बन गया है, इसमें इतना चिढ़ने और परेशान होने से कैसे चलेगा बोलो?
इससे तो तुम्हे अपने अस्तित्व को ही धन्य समझना चाहिए। गर्व होना चाहिये! इंसान किसका होता है? जो प्रेम करे उसका ही न.... इसीलिए जिस लड़की को देख मेरा दिल तड़प उठा है वो निश्चित ही सिर्फ मेरी है। मुझे हक़ है,ज़रूरत पड़े तो मैं उसे श्रीहीन कर दूँ। इसके अतिरिक्त ईगो व्यक्ति का सर्वनाश कर देता है, एसिड इस अहं को गला कर रख देता है और लड़कियों को समझा देता है, ज्यों ही रूप चला जाये फिर उसका कोई मोल नहीं रह जाता। अब न उसे अच्छी नौकरी मिलेगी और न ही दूल्हा। उसे देखते ही लोग सिहर उठेंगे और बच्चे चीख कर रो पड़ेंगे। इस महादहन के बाद ही नारी अपना सही स्थान समझ पायेगी। सत्य यही है स्त्री का सम्मान पुरुष की मुग्धता में ही है, उसका स्थान पुरुष के कामुक आलिंगन में है। अगर यह अच्छी तरह समझ जाओ तो बस.....
एसिड टेस्ट पास हो गयी......

Wednesday 7 September 2016

डायरी.... किसकी? आप तय करें..



जिन्हें देख कर आपकी आँखों में, शब्दों में सहानुभूति और मन के गहरे तल
में डर और अपने इस स्थिति में न पहुँचने की प्रार्थना चलती हो क्या उनकी
डायरी पढ़ना चाहेंगे? आपकी रूचि का उसमें कुछ भी न मिले शायद गहरी
उदासीनता और अपने छोटे-छोटे कामों के लिए भी दूसरों की मदद पर निर्भर
जीवन में झाँकने जैसा कुछ भी तो नहीं लेकिन फिर भी इस शरीर में भी एक मन
है जो बिलकुल आपके ही मन के जैसा भावनाओं का आवेग उद्द्वेलित करता रहता
है।  जीवन के कुछ दिन और सामान्य लोगों जैसा बिताने के बाद एक हादसा जब
ज़िन्दगी बदल दे तब ......

मेरा नाम मंदिरा है, पेशे से डॉक्टर थी, अभी भी हूँ लेकिन अब मेरी सेवाओं
की दिशा बदल गयी है मेरा जीवन समर्पित है मेरे ही जैसे मेरे साथियों के
लिए. अब मैं उनकी सुनती हूँ और अपनी सुनाती हूँ। अब मुझे टीवी पर भी अपने
व्हील चेयर के साथ टॉक शो पर जाने में संकोच महसूस नहीं होता। मैं अपनी
रोज़मर्रा की परेशानी, उस पर काबू पाने के बेहतर तरीके और आत्मनिर्भर बनने
के कौशल पर खुल कर बात करती हूँ। जीवन यदि जटिल है तो उसे सरल बनाने के
प्रयास में लगे रहना ही मेरा मकसद है।

अच्छी भली ज़िन्दगी चल रही थी, पढाई खत्म कर के अभी कुछ ही दिन हुए
प्रैक्टिस शुरू की थी।  बहुत से सपने थे मेरे और अजित के। अजित डॉक्टर
नहीं, हम कॉमन फ्रेंड की पार्टी में दोस्त बने और जाने कब एक दूसरे के
लिए खास बन गये कुछ पता ही नहीं चला। शादी की डेट फिक्स होनी बाकी थी
लेकिन भविष्य के गर्भ में कौन सी डेट किसके साथ फिक्स है समय आने पर ही
पता चलता है। एक एक्सीडेंट और उसके बाद सारे डेट सारी प्लानिंग बदल गयी।
कल जो कुछ भी मेरा सच था आज वो सब अतीत के साथ दफन हो गया.
होश आया तो अपने ही हॉस्पिटल के एक बेड पर पड़ी थी। कमर से नीचे का हिस्सा
बेकार हो गया था, मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था. शरीर का निचला
हिस्सा जितना सुन्न हुआ था मन उतना ही चंचल हो उठा था। जो कुछ बचा है
उसके खो जाने के डर से मैं मर रही थी, लेकिन उससे क्या होता है होना वही
था जो तय था। मुझसे बेहद प्यार करनेवाला अजित मुझे छोड़ कर चला गया।

नयी शुरुआत ऐसी थी जैसे नये जन्मे बच्चे के लिए नयी दुनिया। वार्धक्य की
चुनौती से लड़ते हुए मेरी माँ ने मुझे फिर से संभाला। मैं लाचार बेबस खुद
एक ग्लास पानी तक नहीं ले सकती थी, कब टॉयलेट जाने की ज़रूरत है ये तक
महसूस करने की क्षमता खो गयी थी। हर वक्त माँ ने छोटे बच्चे की तरह
संभाला।
माँ ने मेरी सबसे पसंदीदा चीज़ मेरी आँखों के सामने से दूर कर दी थी, मेरी
नजरें उन्हें खोजतीं लेकिन पूछ नहीं पाती थी... माँ भी समझती मैं क्या
खोज रही हूँ लेकिन वो भी अनजान बने रहने का नाटक करती। मुझे क्रेज़ था
लेटेस्ट डिजाईन के सैंडल्स का, पर अचानक ही उनकी ज़रूरत तो बिलकुल खत्म हो
गयी अब सिर्फ मैं और मेरा व्हील चेयर .......

जीवन के बदलाव को मैंने स्वीकार किया खुद को कठिन संघर्ष के लिए मजबूत कर
लिया और फिर वो दिन भी आया जब मेरा सबसे बड़ा सहारा मेरी माँ इस दुनिया से
चली गयी। माँ चली गयी लेकिन जाते -ते मुझे आत्मनिर्भर बना गयी,
‘आत्मनिर्भर’ पढ़ कर क्या सोचने लगे आप! हमारे लिए ये शब्द कितना
उपहासपूर्ण है.. है न! पर यही सच है। आज अपने घर में अकेली रहती हूँ,
अपनी गाड़ी भी खुद चलाती हूँ. आधुनिक तकनीकों ने मुझे बड़ा सहारा दिया.
मेरे सुन्न हो चुके जीवन को फिर से स्पंदन मेरे उद्देश्य से मिला।
अब मैंने अपनी सीमित हो चुकी डॉक्टरी क्षमता को ‘डिसेबल्ड ट्रेनिंग
प्रोग्राम’ से जोड़ कर असीमित कर लिया था। आज मेरे साथियों के लिए मेरा
जीवन प्रेरणा है अवसाद की शुन्यता से सुन्न हो चुके जीवन में आशा की किरण
है।
रोज ही नये साथी आते हैं।  मन की कहते हैं, मैं उनके साथ अपना दुःख भूलती
हूँ और उन्हें भुलाने में मदद करती हूँ, पर कॉन्फेशन करना चाहती हूँ
डायरी, तुम्हारे पास...... मैं कुछ नहीं भूल पायी। न वो रंगीन सपनों से
भरा जीवन और न ही अजित का मुंह फेर कर चला जाना और न ही लोगों की
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि जो सबसे अधिक चोट पहुंचाती हैं। दुनिया हमें दया
की दृष्टि से देखना चाहती है लेकिन हमसे प्यार नहीं कर सकती. सभी सोचते
हैं हमें प्यार से ज्यादा दया और दूसरी चीजों की ज़रूरत है। मैं रोज़ रोती
हूँ, खूब रोती हूँ लेकिन सुबह फिर से मुस्कुराते हुए अपने साथियों के पास
लौटती हूँ क्योंकि मैं प्रेरणा हूँ उनकी. प्यार के बिना कैसे जिया जाये
ये सीखना है उन्हें मुझसे।

कल पद्मा से मुलाकात हुई सड़क दुर्घटना में उसने अपना बच्चा खो दिया और
स्पाइनल कॉर्ड में चोट के कारण उसका जीवन भी व्हील चेयर पर आ गया।  घर के
लोग और पति सभी उसका ख्याल रखते थे लेकिन उसे महसूस होता कि पति पहले की
तरह उससे प्यार नहीं करता बस सहानुभूति के साथ निभाते जा रहा है। पद्मा
समझती है कि जब शरीर पहले जैसा नहीं रहा तो रिश्ता भी पहले जैसा नहीं
रहेगा लेकिन भावनाओं का क्या करे?  उसे तो रिश्ते के बदलते भाव से ही चोट
लग रही है। पद्मा माँ बनना चाहती है लेकिन किसी से ये बात कह नहीं सकती।
व्हील चेयर पर चल रही ज़िन्दगी पर दुनिया दया कर सकती है लेकिन उसे
सामान्य लोगों की तरफ कल्पना करते हँसते, गुनगुनाते और इच्छाएँ प्रकट
करते नहीं देख सकती।

व्हील चेयर पर चलती ज़िन्दगी के साथ ईगो, स्टाइल और मनमर्जियां माफ़िक नहीं लगती न!!
लेकिन जब वो मिला तो उसने मेरे बहुत सारे भ्रम तोड़ दिए। दुनिया उसे क्या
कमजोर और लाचार समझेगी वो सबकी इस आदत और इच्छा को धता बताते हुए ऐसे टशन
में रहता कि लोग उसकी स्टाइल को देखने के लिए मुड़-मुड़ कर देखते। दुबला और
अनीमिया से सफ़ेद पड़ा शरीर उसे और गोरा दिखाता था। चेहरे पर ऐसी मुस्कान
और बातों में इतना आत्मविश्वास- सुनकर लगता जैसे अभी व्हील चेयर छोड़ कर
उठ खड़ा होगा।

उसके पास हमेशा एक लैपटॉप रहता।  बात करता रहे या अपने बेड सोर की
ड्रेसिंग करवाए लैपटॉप हमेशा खुला ही रहता। नई चीज़ सीखने की ज़बरदस्त ललक
थी उसमें, झट सीख लेता था।  कानों  में बालियाँ, आँखों पर स्टालिश चश्मा
और मुंह में सिगरेट ये उसकी स्टाइल थी।  ‘ट्रेनिंग प्रोग्राम’ की ट्रेनर
मैं थी लेकिन सच तो ये है कि मैं उससे सीख रही थी अपने सारे दर्द और
संघर्षपूर्ण दिनों को कैसे दुनिया से छुपा कर खुल के हँसा जाता है, दोस्त
बनाये जाते हैं. कैसे वास्तव में जिया जाता है...
ट्रेनिंग के बाद भी कुछ देर बैठ कर वो रोज़ मेरे साथ बातें करता.... नहीं!
बल्कि उसकी रहस्यमयी बातें और आत्मविश्वास इतना आकर्षक था कि मैं ही उससे
बातें करने को रोक कर रखती। बहुत कुछ बताया उसने अपने बारे में, अपनी
इच्छाओं के बारे में भी।

अंशुमन बहुत अच्छा शूटर और कराटे में ब्लैक बेल्ट था। आपसी रंजिश में उसे
बुरी तरह मार कर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। वो मरा तो नहीं लेकिन मौत
से बदतर ज़िन्दगी हो गयी उसकी।
एक दिन उसने बताया जानती हो मैडम, आज मैं मॉल गया था कुछ लोगों का ग्रुप
मुझे गौर से देख रहा था, वो लोग मेरे कानों की बालियों पर बातें कर रहे
थे एक ने तो हद कर दी अपनी मोबाइल से मेरी फोटो लेने की कोशिश की। मैंने
देखा और उसके पास जा कर उसका फोन ले कर फेंक दिया।  क्या हम पिंजरे में
बंद जानवर हैं जिसे देख कर कोई हँसे, कोई बुलाये तो कोई उसकी फोटो खींचे?
क्या कहती हमदोनों का दर्द तो एक सा है.... उसके शब्दों से मेरा दर्द भी
टपक रहा था।
एक दिन उसने बताया जानती हो मैडम इन्टरनेट पर रोज़ ढूंढ़ता हूँ कहीं से कोई
लिंक मिले और पता चले कि मैं अब व्हील चेयर पर नहीं बल्कि पैरों पर खड़ा
हो सकता हूँ लेकिन देखो न जिस तरह व्हील चेयर मिलने के बाद गर्ल फ्रेंड
मिलनी बंद हो गयी उसी तरह किसी भी लिंक में ऐसा कोई मैजिक नहीं मिलता कि
मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं।

अपने पैरों पर चलने वाला आदमी अगर उसकी ये बात सुनता तो शायद कहता बाथरूम
जाने तक में मदद चाहिए और सपने गर्ल फ्रेंड के देखता है लेकिन मैं जानती
हूँ मन के पाँव कभी व्हील चेयर पर नहीं आते। वो हमेशा संगी/संगिनी की
तलाश में रहता है, कोई ऐसा जो उसे गले लगाए कहे ‘मुझे तुमसे प्यार है’।

उसकी बातें सुन कर मैं उसे गले लगा कर कहना चाहती थी ‘अंशुमन मैं हूँ
न...’ लेकिन हमदोनों के बीच दो व्हील चेयर की दूरी मुझे कभी ऐसा कहने
नहीं देगी।

अब अंशुमन ट्रेंड हो चुका है खुद ड्राइविंग करता है, अपने ज्यादातर काम
खुद करता है। अब वो यहाँ नहीं आता...
पता नहीं उसके सपने उसे कहाँ तक ले गए।

Sunday 4 September 2016

भांति भांति के राधेश्याम



चित्र साभार गूगल से

भांति-भांति के राधे-श्याम 
ये आलेख फिल्मकार बुद्ददेब दासगुप्ता द्वारा बांग्ला में लिखी गयी है .....
पत्नी भाग जाये तो पुरुष का मान-सम्मान नहीं रह जाता, लेकिन पुरुष भी भाग जाते हैं दुसरे की पत्नियों के साथ. ईला का पति भाग कर जाता है बेला के पास बेला का पति पड़ोस की मुक्ति के साथ भाग जाता है दीघा, फिर लौट के नही आता. पिताजी के मित्र डॉ मंडल बहुत ही भले मानस थे, लेकिन पता नही कैसे एक दिन देखा उनके दादाजी के मोह्गनी की अलमारी में घुन लग गया है. ये कीड़े हजम कर गये डॉ की पैंट शर्ट बनियान उनकी पत्नी के ब्लाउज पेटीकोट सब. उनके घर के विपरीत दिशा में ही एक बढई की दूकान.थी. उसे बुला कर दिखाया गया उसने कहा सामने का पल्ला दोनों तरफ की लकड़ी और ताक सब बदलना पड़ेगा. डॉ. राज़ी हो गये आखिर दादाजी के स्मृति में रखी अलमारी का सवाल था. दुसरे दिन सवेरे ही अपनी थैली ले कर हाज़िर हो गया अधेढ़ उम्र का सूनी आँखों वाला एक लकड़ी का मिस्त्री.
करीब दो साल पहले ही डॉ. मंडल के बेटे की शादी हुई थी घर में आई एक सुंदर सी बहू और साल भर बाद ही एक प्यारा सा पोता. मैं तब क्लास टेंथ में पढता था. एक दिन सुबह उठ कर देखता हूँ पिताजी का मुंह लटका हुआ तनाव में माँ का चेहरा तो उनसे भी ज्यादा.... डॉ. मंडल की पुत्रवधू कहीं नही मिल रही और वो लकड़ी का मिस्त्री भी गायब है उसका थैला वहीँ पड़ा है जिसमे उसके सारे औजार है और बिस्तर पर पड़ा हुआ है डॉ. का छोटा सा पोता.
सारे मोहल्ले में थू थू होने लगी, चेम्बर और घर में ताला लगा कर डॉ, मंडल अपने बेटे पोता और पत्नी को को ले कर चले गये अपने पैतृक गाँव और फिर कभी लौट कर नहीं आये.
बहुत, बहुत साल बीत गये एक दिन किसी जगह से कोलकाता वापस लौट रहा था, रास्ते में एक छोटा सा बस्तीनुमा शहर पड़ा. वहां चाय पीने के लिए गाड़ी रोक दी. चाय और कुछ बिस्किट आर्डर करने जिस छोटे से दुकान जैसी जगह पर आया वहाँ एक औरत चाय बना रही थी उसे देखते ही मैं चौंक गया उसके पीछे एक बुढा बैठा हुआ बांसुरी बजा रहा था. मुझे चाय दे कर वो फिर से स्टोव पर चाय का पानी चढाने लगी वो महिला मतलब डॉ. मंडल के घर से भागी हुई उनकी पुत्रवधू. इतनी उम्र में भी , उस औरत का रूप लावण्य उसे छोड़ कर नहीं गया था इसका कारण शायद बांसुरी बजाता वो बुढा ही होगा, जो पेशे से बढई था. फिर चाय के लिए बोला, उसके बाद फिर एक कप उसके बाद और तीन कप चाय पीने के बाद मैंने अपना परिचय दिया. मैं बोला, पता है, बहुत कोशिश के बाद भी कोई ये कारण नहीं जान सका, सब कुछ छोड़छाड़ कर आप इस बूढ़े के साथ क्यों निकल गयी.
वो महिला धीरे धीरे बताने लगी, अलमारी ठीक करते समय ये काम के बीच बीच में बांसुरी निकाल कर बजाता था, बचपन से ही मुझे बांसुरी बजाने का शौक था लेकिन घर से किसी ने सिखने नहीं दिया. औरत जात बांसुरी क्या बजाएगी! शादी के बाद पति को बहुत मनाने की कोशिश करती रही की मुझे बांसुरी सीखने दो.. एक दिन थप्पड़ मार कर उसने भी सीखा दिया की बांसुरी मेरे लिए नहीं.
ये मिला तो इसने मुझे बांसुरी बजाना सिखाया. अभी तक सिखाता है. क्या होगा पक्का मकान और पेट भरने के तरह तरह के पकवानों से जबकि मेरा मन तो खाली ही रहता था. शाम को यहाँ हम दोनों मिल कर बांसुरी बजाते है, बहुत से लोग सुनने आते है, मन आनन्द से भरा रहता है.
पेरिस से लगभग चार घंटे लगते है वेसुल जाने में, अन्तराष्ट्रीय स्तर का फिल्म फेस्टिवल आयोजन होता है. जिसके संचालक मार्टिन और उसके पति जाँ-मार्क हैं. दोनों वेसुल में रहने के बावजूद एक दुसरे को बैंकोक में मिलने से पहले नहीं पहचानते थे. पटाया के समुद्र किनारे अकेली बैठी थी मार्टिन और वहीँ पास ही कहीं बैठा था अकेला जाँ- मार्क. उसके बाद पता नहीं कैसे विधाता की इच्छा से दोनों का परिचय हुआ. किससे शादी की जाए यही सोचते हुए दोनों के इतने सारे साल यूँ ही निकल गये थे. बातें करते करते दोनों को पता चला की वो दोनों ही पागलों की तरह सिनेमा से प्यार करते है. दोनों ही स्कूल में पढ़ाते हैं, सैलरी आदि जो मिलती है उससे किसी तरह चल जाता है लेकिन उससे ज्यादा नहीं. वेसुल लौट कर दोनों ने शादी कर ली, सिनेमा को साक्षी मान कर. उसके बाद हुआ एक सपने का जन्म. कोई सहारा नही सम्बल नही, अमीर यार दोस्त भी नही. है तो सिर्फ वो एक सपना.... वेसुल में फिल्म फेस्टिवल शुरू करना है. पता नहीं कैसे उन दोनों ने वेसुल में फेस्टिवल की शुरुआत कर ही दी. बहुत मान-अपमान,कहा-सुनी के बीच से भी फिल्म फेस्टिवल के सपने को उन्होंने आकार दे ही दिया.
उनके घर में ही फिल्म फेस्टिवल का ऑफिस था , एक दिन मैं इन्टरनेट पर काम कर रहा था वहीँ बैठ कर , देखा मार्टिन रोते हुए अंदर आई उसके आंसू थम नही रहे थे, पीछे पीछे जाँ भी आया. उसकी आँखों में भी पानी था लेकिन वो लगातार मार्टिन को सांत्वना दे रहा था. क्या हुआ? पता चला एक प्रसिद्ध म्यूजिशियन की रील अभी तक पेरिस से यहाँ नहीं पहुंची है. शो शुरू होने का टाइम साढ़े पांच था छह बजने को हैं. दोनों की आँखों के आंसू रुक नही रहे थे मैं चुपचाप बाहर चला गया.... उसी वक्त समझ गया था दोनों में से कोई किसी को छोड़ कर कभी नही जा सकेगा दोनों ही सिनेमाप्रेम के एक अद्भुत जंजीर से बंधे है.
करीब तीस साल पहले होनोलुलु में मेरी मुलाकात जेनेट पोलसन से हुई थी. जेनेट तब एयर होस्टेस थी लेकिन प्लेन में चढ़ते ही उसे रोना आने लगता. डर के कारण नही बल्कि जो करना चाह रही थी वो न कर पाने के दुःख में. उसने नाटक और सिनेमा से प्यार किया था. उसके घर जा कर देखा था नाटक कविता कहानी की किताबो और पोस्टर से घर भरा हुआ था. कुछ दिनों बाद सुना अपनी ये नौकरी छोड़ बैंक से लोन ले कर सिनेमा विषय पर यूनिवर्सिटी में पढाई करने गयी है जेनेट. जेनेट का पति था , बेटी थी पर कुछ था जो जेनेट का नहीं था.
विली, फिजी-आई लैंड का लड़का था. वहां से नाटक विषय पर पढने आया था होनुलुलू. होनुलुलू फिल्म फेस्टिवल से उस समय मैं भी जुड़ा हुआ था, करीब 6-7 बार जाना हुआ. जेनेट तब तक उस फिल्म फेस्टिवल की डायरेक्टर बन चुकी थी. हम दोनों ही अधेड़ उम्र के हो चुके थे, उसने मुझे बताया की वो विली से शादी कर रही है, पति से बहुत पहले ही separation हो चुका था. विली जेनेट से छब्बीस साल और जेनेट की बेटी से दो साल छोटा है. विली को तब जस्ट पढ़ाने का काम मिला था इस्ट वेस्ट यूनिवर्सिटी में और वो नाटक के लिए ग्रुप बनाने का काम भी कर रहा था.
आखरी बार जब होनुलुलू गया तब उनके घर पर ही ठहरा था. विली जब पढ़ाने चला जाता जेनेट तब अपने मन के डर की बात मुझसे कहती. विली तो अभी बहुत छोटा है एकदम जवान है कोई और लड़की आ कर उसे अगर मुझसे दूर ले जाएगी तो..... जेनेट की तो उम्र हो गयी है. एक शाम मैं और विली टहलने निकले. बहुत दूर तक हम निकल आये टहलते हुए, वहीँ एक पेड़ दिखा कर विली ने कहा था , जानते हो यही हमारी शादी हुई थी, और इसी पेड़ के नीचे हमने हमारा पहला नाटक खेला था.
अभी कुछ दिन हुए जेनेट ने इ-मेल कर के मुझे बताया की एक बिलकुल नया एक्सपेरिमेंटल काम शुरू किया है दोनों नें. जिसमे एकक अभिव्यक्ति के साथ घुलमिल गयी है सिनेमा के कुछ दृश्य, शब्द और उनके अपने जीवन की कुछ सत्य घटनाएं. जेनेट को अब और डर नहीं लगता.स्टेज उन दोनो को एक ऐसे मायाबंधन में बाँध रखा है जहाँ उम्र या दुसरे ऐसे किसी चीजों का कोई महत्व ही नहीं.
सपना प्यार खोजता है और प्यार सपने की तलाश में भटकता है. जो प्रेम, पसंदीदा काम के बीच पंख फैलाता है वो प्रेम सम्बन्ध स्मृति में रह जाता है हमेशा के लिए. यहाँ उम्र, रूप, समाज, देश कुछ भी फर्क नहीं ला सकता.
कुछ गलत कहा मैंने??

Thursday 11 August 2016

डाइवर की डायरी से....


आज फिर गंगा में इस छोर से उस छोर तक गोता लगा कर खोज ही निकाला उस लाश को. काफी गल चुकी थी, निकालने में परेशानी भी हो रही थी लेकिन पार्टी ने कहा था अच्छे पैसे देगा. लाश बाहर आते ही घरवाले इस तरह पछाड़ खा कर रो रहे थे कि पैसा मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई. आज फिर खाली हाथ ही घर लौटना पड़ा.

गोताखोर की भी कोई कहानी होती है क्या? नहीं, कोई कहानी नहीं होती, लेकिन कितने ही हत्या, आत्महत्या और साजिश की परिणति के हम साक्षी होते हैं. कितने ही केस पुलिस फाइल में दबे रह जाते अगर लाश नहीं मिली तो और कितने ही इंश्योरेंस क्लेम ना हो पाएं अगर हम डेड बॉडी पानी से निकाल कर नही ला पाए तो...

पेशा है अखबार बेचना, लेकिन पार्ट टाइम डिसास्टर मैनेजमेंट ग्रुप में स्वंयसेवी, नाम भोलानाथ. आज फिर से गंगा में डुबकी लगाना है. सच कहता हूँ गोताखोर का काम भी कम जोखिम भरा नहीं, कई बार मृत्यु से दो-चार हाथ कर के ही हम वापस ज़मीन देख पाते है. लेकिन कुछ लोगों को तो जोखिम लेना ही पड़ेगा न; ताकि बहुत से लोग चैन से जी सकें.

गंगा के पानी में जितना आप गहरे उतरते जायेंगे- उतना ही ज्यादा दबाव महसूस करेंगे, कभी-कभी तो नाक से खून भी निकल आता है. एक बार फेसबुक प्रेम में असफल हुई महिला ने ख़ुदकुशी करने के लिए गंगा को ही चुना. उसकी लाश खोजते-खोजते मैं खुद ही लाश हो जा रहा था.
नदी के पानी में जब सूरज की रौशनी पड़ती है तब उसका रंग मटमैला दिखता है, उस समय लाश खोजने में कम दिक्कत होती है; लेकिन गहरे पानी में एकदम अँधेरा होता है, हाथ मार-मार कर अंदाज़ा लगाना पड़ता है कि ये लाश हो सकती है. नदी का पानी रंगभेद भी नहीं करता, हर लाश जो कुछ घंटे पानी में डूबी रही हो सफ़ेद ही दिखाई देती है चाहे व्यक्ति कितना भी काला ही क्यों न रहा हो. स्त्री और पुरुष की लाश पहचानना भी आसान होता है. अगर लाश पुरुष की है तो वो चित्त पड़ा मिलेगा और महिला की लाश हो तो पीठ के बल पड़ी होगी. लेकिन फिर भी इतने समय तक लाश पानी में पड़ी रहने के बाद उसे बाहर ले कर आना कठिन हो जाता है कई बार तो लाश बाहर निकालने के बाद चार दिन तक ठीक से खाना भी नहीं खा पाता. पानी के अंदर लाश इतनी गल जाती है कि खींच कर निकालने की कोशिश में लाश की चमड़ी सहित आंतें हाथ में आ जाती हैं. या फिर देखा जाता है कि लाश के कुछ हिस्से पानी के जीवों ने खा लिए हैं, रस्सी से बाँध कर लाश उठाने के प्रयास में चमड़ी और मांस गल कर गिरते रहते है.

वैसे आप ये मत सोचिये कि हमें हमेशा ही लाश खोजने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, ऐसा नहीं. शीत ऋतु इस काम में बहुत सहायक है, इस मौसम में लाश बहुत जल्दी ही उभर कर सतह  के करीब आ जाती है उस समय एक बांस से ठेल कर या रस्सी बाँध कर तुरंत खींच कर ऊपर ले आता हूँ. ग्रीष्म काल बहुत मुश्किलें खड़ी करती है, सतह पर लाश जल्दी नहीं आती और पानी में इतने गहरे डूबी रहती है कि कई बार उसे निकालने में सर्प दंश का शिकार या मछली के काटे जाने का भी डर रहता है. लाश खोजते हुए हाथ कभी-कभी पत्थरों के नीचे भी आ जाता है.


आमतौर पर हम सांप के काटे जाने पर ज्यादा भयभीत होतें है लेकिन गंगा के पानी में इतने जहरीले साँप नही जितनी की काट खाने वाली मछलियां. कुछ ,मछलियाँ तो निशाना साध कर काँटों से वार करती हैं- उनका बस चले तो नाक नोच कर ले जाएं.

आप सोचते होंगे, लाश देर-सवेर मिल ही जाती होंगी. लेकिन ये हमेशा नहीं होता नदी के नीचे इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते है कि एक बार लाश उसमें धंस गयी तो शायद कभी हाथ न आएगी.
एक बार एक परिवार अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमने आया था. दोनों बच्चे घाट पर ही पानी से खेल रहे थे. अचानक बड़े बच्चे का पांव फिसला और वो पानी में बह गया मैंने बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिला, उसकी माँ पछाड़ खा कर रो रही थी लेकिन मैं उसके बेटे को जिंदा तो क्या उसे यकीन दिलाने के लिए कि उसका बच्चा अब नहीं रहा, उसकी लाश तक नहीं दे सका.

ओह! एक बात का ज़िक्र करना तो भूल ही गया था, डाइवर्स का काम दो तरह का होता है.... एक लाइव और दूसरा रिकॉर्डिंग. चौंक गए!!  ( तो सुनिए.
मान लीजिये आप घाट पर या बीच पर हैं, अचानक आपके सामने ही कोई कूद पड़ा तो आपके पास और कोई चारा नहीं उसे बचाने के लिए तुरंत कूदना ही पड़ेगा ताकि समय पर बचाया जा सके, ये हुआ लाइव वर्क और रिकॉर्डिंग मतलब पुलिस जब खबर दे, कहीं पर कोई दुर्घटना घटी है तब वहाँ सारे इंतजाम के साथ जा कर नदी में डुबकी लगानी पड़ती है और ये सर्च कितनी देर में खत्म होगी कहा भी नहीं जा सकता. तो हुआ न ये रिकॉर्डिंग!
 एक बात और बताता हूँ- इतने साल से ये काम करते- करते अब तो किनारे बैठे हुए देख कर बता सकता हूँ कि कोई अपने-आप गिर गया या डाइव लगाया. वक्त रहते नजर पड़ जाए तो तुरंत समझ आ जाता है सामने वाला यूँ ही खड़ा है या ईरादा आत्महत्या का है.

बड़ी नदियों की धार बहुत तेज़ होती है और कहीं-कहीं करंट भी होता है, इसलिए तैरना जानते भी हों तो भी सावधानी रखनी चाहिए.

Tuesday 2 August 2016

कहानी : इच्छापुरण , लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर



 चित्र साभार गूगल 

सुबलचन्द्र के बेटे का नाम सुशीलचन्द्र है. लेकिन हमेशा नाम के अनुरूप व्यक्ति भी हो ऐसा कतई ज़रूरी नहीं. तभी तो सुबलचन्द्र दुर्बल थे और उनका बेटा सुशीलचन्द्र बिलकुल भी शांत नही बल्कि बहुत चंचल था.

उनका बेटा सुशील पुरे मोहल्ले को परेशान कर रखता था इसलिए कभी-कभी पिता, पुत्र को नियंत्रण में रखने के लिए भाग कर आते लेकिन पिता के पैर में गठिया का दर्द और बेटा भागता था हिरन जैसा. नतीजा थप्पड़, लात, मार कुटाई कुछ भी सही जगह पर नहीं पड़ता था. लेकिन सुशीलचन्द्र जिस दिन पकड़ में आता उस दिन उसके पिता के हाथों से बचा पाना किसी के सामर्थ्य में नहीं रहता.

आज शनिवार के दिन स्कूल में दो बजे ही छुट्टी हो जाती है लेकिन आज सुशील का किसी भी तरह स्कूल जाने का मन नही हो रहा था. इसके बहुत सारे कारण थे. पहले तो आज स्कूल में भूगोल की परीक्षा है दूसरे, मोहल्ले के बोस निवास में आज पटाखे फोड़ने का कार्यक्रम तय है. सुबह से ही वहाँ धूमधाम चल रही है. सुशील की इच्छा है आज सारा दिन वहीँ बिताये.

बहुत सोचने के बाद सुशील स्कूल जाने के समय अपने बिस्तर पर जा कर लेट गया. उसके पिता ने आकर पूछा- ‘क्या रे, इस समय बिस्तर पर पड़ा है, आज स्कूल नही जाना क्या?’
सुशील बोला, ‘मेरे पेट में मरोड़ उठ रहे है, आज मैं स्कूल नहीं जा पाऊंगा.’
पिता सुबल उसके झूठ को समझ गये, मन-ही-मन बोले, ‘रुक! आज तेरा कुछ उपाय करना ही होगा.’ सुशील से बोले, ‘पेट में मरोड़ उठ रहे है?’ फिर तो आज कहीं जाने की ज़रूरत नहीं. बोस निवास में पटाखे देखने हरि को अकेले ही भेज देता हूँ, तुम यहाँ चुपचाप पड़े रहो मैं अभी तुम्हारे लिए पाचक तैयार कर के लाता हूँ.’

सुशील के कमरे से निकल कर बाहर सांकल लगा दिया और बहुत कड़वा सा एक पाचक तैयार करने चले गये. सुशील तो अब भारी मुश्किल में पड़ गया. लेमनचूस खाना उसे जितना ही अच्छा लगता था उतना ही बुरा पाचक खाने में लगता था उसे तो अब मुसीबत नजर आने लगी थी. उधर बोस निवास जाने के लिए तो कल रात से ही उसका मन छटपटा रहा था, लेकिन....

सुबलचन्द्र जब एक बड़े से कटोरे में कड़वा पाचक ले कर कमरे में आये तो सुशील तुरंत बिस्तर से उतर गया और बोला, ‘मेरा पेट दर्द एकदम ठीक हो गया है. मैं आज स्कूल जाऊंगा.’

पिता बोलें, ‘न ना! आज जाने की ज़रूरत नहीं.तुम पाचक खा कर चुपचाप सोये रहो.’ ये बोल कर सुबलचन्द्र जबरदस्ती सुशील को पाचक खिला कर बाहर से कमरे में ताला लगा कर चले गये.

सुशील बिस्तर पर पड़े रोते-रोते सारा दिन केवल मन-ही-मन यही कहता रहा, ‘काश, मैं अगर बाबा के जितनी उम्र का होता तो कितना अच्छा होता जो मेरे इच्छा होती वही करता और कोई मुझे ऐसे कमरे में बंद कर के नहीं जा पाता.’

उसके पिता सुबल चन्द्र बाहर अकेले बठे बैठे सोच रहे थे, ‘मेरे माता पिता मुझे बहुत ज्यादा ही प्यार दुलार देते थे इसलिए मैं अच्छी तरह पढाई लिखाई कुछ भी नहीं कर पाया. काश, यदि फिर से बचपन मिल जाता तो फिर कुछ भी हो जाए पहले की तरह समय बर्बाद नही कर के , मन लगा कर पढाई करता.’

इच्छापूरण देव उस समय उनके घर के सामने से जा रहे थे. वो पिता और पुत्र के मन की इच्छा जान कर सोचने लगे. ‘अच्छा कुछ दिन इन लोगों की इच्छा पूरी कर के देखा जाये.’

ये सोच कर वो पिता से बोले, ‘तुम्हारी इच्छा पूरी होगी. कल होते ही तुम तुम्हारे बेटे की उम्र प्राप्त करोगे.’ बेटे से जा कर बोले, ‘कल होते ही तुम तुम्हरे पिता के उम्र के हो जाओगे.’ सुन कर दोनों ही बहुत खुश हो गए.

वृद्ध सुबलचन्द्र रात में ठीक से सो नहीं पाते थे भोर के वक्त थोड़ी नींद आ जाती थी. लेकिन आज पता नहीं क्या हुआ उन्हें भोर होते ही एकदम कूद कर बिस्तर से नीचे उतर आये . उन्होंने देखा कि वो बहुत छोटे हो गये है. उनके दांत जो गिर गये थे सब अपनी जगह पर आ गये हैं, दाढ़ी मूंछ सब गायब. रात में जो धोती और कुरता पहन कर सोये थे वो इतना बड़ा हो गया है की उसकी आस्तीन झूल कर ज़मीन छू रही थी. कुरते का गला छाती तक उठ आया है और धोती इतनी बड़ी की ज़मीन पर ठीक से पाँव रख कर चल भी नहीं पा रहे.
हमारे सुशील बाबू रोज उठते ही दुरात्मा की तरह दौड़ते फिरते है, लेकिन आज उनकी नींद ही नहीं टूट रही; जब अपने पिता सुबल चन्द्र के चिल्लाने की आवाज़ से उसकी नींद खुली तो देखा उसके पहने हुए कपड़े इस तरह छोटे हो कर चिपक गये हैं की उसके चीथड़े हो कर शरीर से अलग हो जायेंगे. पूरा शरीर बढ़ गया है, काले सफ़ेद दाढ़ी-मूंछ के कारण आधा चेहरा दिखाई ही नहीं देता; उसके सर पर कितने बाल थे लेकिन आज हाथ फेर कर देख रहा सामने से गंजा हो गया जो की दिन के उजाले में चमक रहा है. आज सुशील चन्द्र कई बार उठने के प्रयास में इस तरफ उस तरफ करते हुए बार बार सो जा रहा है लेकिन अंत में अपने पिता के इतनी चीख पुकार के मारे उसे उठना ही पड़ा.

दोनों के ही मन की इच्छा पूरी हुई लेकिन बहुत मुश्किलें भी खड़ी हो गयी. पहले ही बताया था कि सुशील चन्द्र की इच्छाएँ थी यदि अपने पिता की उम्र का हो जायेगा तो स्वाधीन होगा, पेड़ पर चढ़ कर तालाब में कूदेगा, कच्चे आम खायेगा, चिड़ियों के बच्चे पकड़ेगा, पूरी दुनियां घुमेगा- फिरेगा और जब इच्छा होगी घर में आ कर जो इच्छा हो वही खायेगा कोई उसे कुछ नहीं कहेगा. लेकिन आश्चर्य! उस दिन सवेरे से उसे पेड़ पर चढ़ने की इच्छा ही नहीं हुई, पानी देख कर कूदने की इच्छा तो दूर उसे लग रहा था की अगर कूदा तो उसे बुखार आ जायेगा. वो चुपचाप बरामदे में एक चटाई बिछा कर बैठ सोचने लगा.

एकबार मन में आया खेल-कूद एकदम से छोड़ देना ठीक नहीं होता, एक बार कोशिश कर के ही देखा जाये. ये सोच कर पास ही एक आमड़ा पेड़ था उसी पर चढ़ने की कोशिश करने लगा. कल तक जिस पेड़ पर वो गिलहरी की तरह झटपट चढ़ जा रहा था आज इस बूढ़े शरीर के साथ किसी भी तरह संभव नहीं हो रहा था. पेड़ की एक नाजुक डाल पर शरीर का भार देते ही वो डाल भारी शरीर का भार वहन ना कर पायी और टूट कर ज़मीन पर गिर गयी, साथ में बूढा सुशील चन्द्र भी धड़ाम से गिर पड़ा. पास के सड़क पर लोग जा रहे थे उन्होंने जब एक बूढ़े को बच्चे की तरह पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करते देखा तो हँसते हँसते बेहाल हो गये. सुशील शर्म से सर नीचा किये हुए फिर से उसी चटाई पर आ कर बैठ गया. नौकर से बोला, ‘सुनो, बाज़ार से एक रूपये  का लेमनचूस खरीद लाओ.’

लेमनचूस का सुशील चन्द्र को विशेष लोभ था. स्कूल के पास के दूकान में वो रंग बिरंगे लेमनचूस सजाया हुआ देखता; दो-चार पैसे जो भी मिलते उसी से लेमनचूस खाता था. सोचता था जब पिता के जितना बड़ा हो जायेगा तब पॉकेट भर भर कर लेमनचूस खरीदेगा और जी भर कर खायेगा. आज नौकर एक रुपये में ढेर सारा लेमनचूस खरीद कर ला दिया उसी में से एक उठा कर उसने अपने दन्त विहीन मुंह में डाल कर चूसने लगा लेकिन बूढ़े मुंह में बच्चों की पसंद का लोजेंस स्वाद मुताबिक नहीं बल्कि बेस्वाद लग रहा था. एक बार सोचा ; ये सब छोटे हो गये बाबा को खिलाया जाये, लेकिन दुसरे ही पल सोचा, ‘ ना! देना ठीक नहीं होगा, ये सब खा कर तबियत ख़राब हो जाएगी.

कल तक जो लड़के छोटे सुशील चन्द्र के साथ कबड्डी खेलने आते थे आज वो बूढ़े सुशील चन्द्र को देख छिटक कर दूर चले गये.

सुशील सोचा करता था पिता की तरह आज़ाद होने पर वो सारा दिन अपने लड़के-दोस्तों के साथ डू-डू आवाज़ करते हुए कबड्डी खेलता रहेगा. लेकिन आज राखाल, गोपाल, निवारण,अक्षय, हरीश को देख कर मन-ही
-मन खीज उठा, सोचा, अभी चुपचाप यहाँ बैठा हूँ  अभी लड़के आयेंगे और अचानक ही हुडदंग मचाने लगेंगे.

पहले ही बताया है, सुबलचन्द्र अपने बरामदे में बैठ कर रोज़ सोचा करते थे मैं जब छोटा था शैतानी कर-कर के केवल समय ही बर्बाद किया है, अगर बचपन दुबारा मिल जाये तो एक बार शांत और अच्छे बच्चे की तरह सारा दिन कमरे का दरवाज़ा बंद कर के सिर्फ पढाई-लिखाई करूँगा.यहाँ तक कि शाम को दादीमाँ के पास कहानी सुनने भी नहीं जाऊंगा, रात दस-ग्यारह बजे तक प्रदीप जला कर पढाई पूरी करूँगा.

लेकिन बचपन वापस पा कर वो किसी भी तरह स्कूल जाने को तैयार नही. सुशील तंग हो कर बोलता, ‘बाबा स्कूल नहीं जायेंगे क्या?’ सुबलचन्द्र मुंह नीचे कर सर खुजाते हुए धीरे-धीरे कहते, आज मेरे पेट में मरोड़ उठ रहे हैं, आज स्कूल नही जा सकूँगा. सुशील चन्द्र नाराज़ हो कर बोला, जायेंगे कैसे नहीं? स्कूल जाते समय मेरा भी इस तरह खूब पेट दर्द हुआ है, मैं ये सब खूब जानता हूँ.’

छोटा सुशील नित नये उपाय निकाल कर स्कूल से अनुपस्थित रहता था कि इस वक्त सुबल चन्द्र का उसे झांसा देने का कोई भी उपाय व्यर्थ था.सुशील ज़बरदस्ती छोटे पिता को स्कूल भेजने लगा. स्कूल से लौट कर छोटा पिता खेलने-कूदने और उधम मचाने लग जाता लेकिन, उसी समय वृद्ध सुशील चन्द्र एक रामायण की किताब ले कर सस्वर पाठ करना आरम्भ कर देते. सुबल चन्द्र के उधम मचाने के कारण वृद्ध पुत्र के पढने में व्यवधान उत्पन्न होता था इसलिए छोटे पिता को नियंत्रण में रखने के लिए उसे एक स्लेट पकड़ा देता जिसमें बहुत कठिन-कठिन गणित के सवाल होते. इतने कठिन सवालों में से एक ही हल करने में छोटे पिता का एक घंटा निकल जाता. शाम को बूढ़े सुशीलचन्द्र के कमरे में और कई बूढ़े मिल कर शतरंज खेला करते. उस समय सुबलचन्द्र को ठंडा रखने के लिए सुशीलचन्द्र ने एक मास्टर रख दिया, मास्टर रात दस बजे तक उसे पढ़ाता रहता.

भोजन के विषय में सुशील बड़ा कडक था ,क्योंकि उसके पिता सुबलचन्द्र जब वृद्ध थे उन्हें अपना खाना ठीक से हजम नहीं होता था, थोडा सा भी ज्यादा खा ले तो खट्टे डकार आने लगते थे —ये बात सुशील चन्द्र को अच्छी तरह याद थी इसीलिए वो अपने पिता को कैसे भी अधिक खाने नहीं देता था. इधर सुबलचन्द्र के छोटे हो जाने के बाद से पेट में जैसे आग लगी रहती हमेशा ही भूख लगती जैसे पत्थर भी खाये तो हजम हो जाये ऐसी स्थिति हो गयी थी. सुशील उन्हें इतना कम खाने देता कि भूख के मारे वो छ्टपट करते. अंत में सूख कर उनके शरीर की हड्डियाँ बाहर दिखने लगी. सुशील सोचा, ज़रूर कोई गंभीर बीमारी हुई है इसलिए वो तरह-तरह की दवाइयां खिलाने लगा.

बूढ़े सुशील को भी रोज़ मुश्किलें आने लगीं. वो अपने पहले की आदत अनुसार जो भी करने जाता उसे सह्य नहीं हो रहा था. पहले मोहल्ले में कहीं भी नाटक-नौटंकी की खबर सुनता तो घर से भाग कर ठीक पहुँच जाता था, चाहे जाड़ा-बरसात कुछ भी हो. आज का सुशील ऐसा करते हुए सर्दी लग कर खांसी शरीर दर्द के साथ तीन सप्ताह के लिए बिस्तर पकड लिया. हमेशा से ही वो तालाब में नहाता है लेकिन आज भी वही करने से हाथ-पाँव में गठिया का दर्द और सुजन उभर आया, जिसकी चिकत्सा करने में छह महीने लग गये. उसके बाद से ही वो गर्म पानी से ही नहाता है और पिता सुबलचन्द्र को भी तालाब में नहाने जाने नहीं देता. पुरानी आदत मुताबिक भूल कर जब भी पलंग से कूद कर उतरने जाता तो हाथ पैर की हड्डियाँ टनटना जाती है. मुंह में एक पूरा पान ठूंस का उसे ध्यान आता है कि उसे दांत नहीं हैं, चबाने में बहुत ही कष्ट है. बाल सवांरने के लिए कंघी सर पर चलाते ही याद आता है कि सर पर तो बाल ही नहीं. जब कभी ये भूल जाता है कि वो अपने पिता की उम्र का हो गया है और पहले की तरह शैतानी करते हुए बूढी आनंदी बुआ की मटकी पर पत्थर मारने लगता तो लोग बूढ़े को बच्चों की तरह शरारत करते देख मारो-मारो, चिल्ला कर मारने दौड़ते. तब वो खुद ही संकोच में पड़ कर चुपचाप घर में घुस जाता.

सुबल चन्द्र भी कभी-कभी भूल जाता कि वो अब बूढ़ा से छोकरा हो गया है और जा कर वहां बैठ जाता जहाँ और बूढ़े लोग ताश-पासा खेल रहे होते और बूढों की तरह ही बातें करता तो वहाँ लोग उसे भगाने लगते कहते, ‘ जाओ-जाओ जा कर खेलो यहाँ बैठ कर बड़ों के बीच बड़ा बनने को चेष्टा मत करो.’ अचानक भूल कर मास्टर से भी बोल पड़ता, ‘ज़रा तम्बाकू दो तो, तलब लगी है’ सुन कर मास्टर जी उसे एक पाँव पर बेंच पर खड़ा कर देते. इसी तरह एक दिन नाई को बोला, ‘कितने दिन हो गये तू मेरी दाढ़ी बनाने नहीं आया?’नाई भी उसकी ओर देख कर जवाब दिया, ‘आऊंगा और 10 साल बीतने दो फिर आऊंगा.’ फिर कभी-कभी आदत मुताबिक जा कर अपने बेटे सुशील को पिटता तो सुशील उनसे कहता, ‘पढाई लिखाई कर के यही शिक्षा मिली है, एक रत्ती लड़का और बड़ों पर हाथ उठाना?’ वैसे आस-पास लोग जमा हो जाते और कोई थप्पड़ तो कोई डांट तो कोई समझाने लगता.

तब सुबल एकनिष्ठ हो कर प्रार्थना करने लगता, आहा! अगर मैं अपने बेटे सुशील की तरह बुढा हो जाऊं और आजाद रहूँ तो कितना ही अच्छा हो!’
इधर सुशील भी मन ही मन हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता, ‘ हे देवता, मुझे मेरे पिता की तरह छोटा कर दो कितना अच्छा होगा मैं पहले की तरह ही खेल-कूद, घूमना-फिरना कर सकूँगा!’
पिता जी जिस तरह शैतानी करने लगे हैं उन्हें अब और मैं संभाल नही सकता. पहले ही तो अच्छा था.

तब इच्छापूरण देव आ कर बोले, ‘कैसा लग रहा है, तुम दोनों की इच्छा पूरी हुई न! शौक मिटा या नहीं?’
दोनों ही साष्टांग हो कर देवता से बोले, ‘दुहाई हो! हम जैसे थे हमें फिर से वैसा ही बना दीजिये. सब शौक मिट गये.

देवता बोले, ‘ठीक है कल सुबह नींद से जागने पर तुम दोनों पूर्ववत हो जाओगे.’

दुसरे दिन सुबल चन्द्र फिर से बूढ़े और सुशील फिर से बच्चा बन गया. दोनों को लगा जैसे कोई सपना देख कर अभी नींद से जागे हों.
सुबल चन्द्र आवाज़ भारी कर के आवाज़ लगाये, ‘सुशील, व्याकरण याद नहीं करना है.’
सुशील सर खुजाते हुए मुंह नीचा कर के बोला, ‘पिताजी, मेरी व्याकरण की किताब खो गयी है.’

Monday 18 July 2016

इश्वरेर बाशा (गॉड्स नेस्ट)

बाबा, मामा घर आ गया?
बकवास मत करो.... उस आदमी ने बच्चे को धमकाया; लो ये पकड़ो। बच्चे के हाथ में उसकी छोटी सी पोटली आदमी ने थमा दी।
चल अब उतर...  ट्रेन के दरवाज़े की तरफ वो बढ़ने लगा। बच्चा जल्दी-जल्दी पांव बढ़ा कर उसके पीछे हो लिया। आदमी पीछे मुड़ कर एक बार भी नही देख रहा। झटपट उतर कर प्लेटफार्म पर चलने लगा। वो भी उसके पीछे उतरा अपने छोटे छोटे पाँव से। हैंडल पकड़ कर झूलते हुए किसी तरह सीढ़ी पर अपने पांव रख कर उतरा था वो।
 उफ़!! उसका सर घूम गया। इतने लोग! इतने लोग! इतनी रौशनी! इतनी आवाज़!
डर के मारे उसने उस आदमी का हाथ कस कर पकड़ लिया। आदमी ने अपना हाथ छुड़ाना चाहा लेकिन वो तर्जनी पकड़े रहा। बाएं हाथ की तर्जनी और छाती से चिपका कर अपनी वो छोटी सी पोटली। चप्पल पहनने की आदत नहीं इसलिए पाँव घसीट कर चल रहा था। इतने लोग! डर से उसका गला सूख कर काठ हो गया था। उसकी बहुत छोटी सी ऊंचाई वाली देह के सामने अनगिनत बलिष्ठ पैर दिख रहे थे। धोती, पजामा ,पैंट, साड़ी सब तेज़ी से भाग रहे- मानो एक सांस में दौड़ते रहने के अतिरिक्त बाकि सब गौण है। वो उस आदमी का चेहरा देखना चाह रहा था लेकिन ऊपर की ओर देखने की कोशिश में ही ऊँगली की पकड़ में खिंचाव आने लगता। वो और भी सख्ती से उस आदमी का हाथ पकड़ना चाह रहा है! लेकिन वो आदमी उसकी मुट्ठी से ऊँगली छुड़ा लेना चाह रहा.. खींच रहा ..खींच रहा और ऊँगली छूट गयी। बच्चा गला फाड़ कर चीख उठा.... बाबा!!!  भीड़ में लोगों के धक्के खाते-खाते वो बहुत पीछे छूट गया। फिर भी रोते-रोते आवाज़ लगा रहा था बाबा!! बाबा!!  आंसू पोंछ कर उसने देखा वो स्टेशन के बाहर खड़ा है जहां बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है.... हा व ड़ा वो अपनी छोटी पोटली और नई चप्पल घसीटते हुए फिर चलने लगा लोगों के चेहरे में उस आदमी को ढूंढने लगा।  उसे उम्मीद थी कि वो आदमी अभी वापस आएगा और हाथ छूट जाने के कारण उसे डांटेगा, गालियां देगा, बाल नोंच कर इतना मारेगा कि उसके कुछ बाल नुच कर आदमी की हाथों में आ जायेंगे। लेकिन अँधेरा आ गया आदमी लौट कर नही आया।  इस भयंकर सच का सामना करते हुए बच्चे के दोनों पाँव बेजान हुए जा रहे थे कि उसका बाप उसे इस विशाल हावड़ा स्टेशन पर अकेला छोड़ गया। बच्चा कुछ भी ठीक से सोच नहीं पा रहा था फिर भी उसकी आँखों में पानी था। वो आदमी उससे प्यार नहीं करता था, जो थोड़ा उसे खाने देता उससे कहीं ज़्यादा उसे मार खाना होता था। उसके 7 वर्ष के जीवनकाल में सिर्फ भय त्रास और असहाय होने का ही सिर्फ बोध था। फिर भी वो सब उसका पहचाना था।  अब वो नए सिरे डर रहा है, नए सिरे से त्रस्त और एकाकी, नए सिरे से असहाय!  अत्याचार के साथ भी एक नियम है, जिसके साथ जीवन बंधा होता है उसके अत्याचार सम्बन्ध में भी एक आस्था का जन्म होता है। एक तरह का विश्वास। लगता है यही तो वो करेगा। इस तरह की यंत्रणा देगा। उस तरह से अपमानित करेगा। प्रत्येक अत्याचारी का एक निर्दिष्ट तरीका होता है जो पीड़ित है वो उसे पहचानता है। पहचाने डर के बीच संत्रास में भी उसे एक सांत्वना मिलती रहती है। नए अत्याचारी के अत्याचार की सम्भावना नए सिरे से डराती है। अनजाने भविष्य के सम्मुख होते ही परिचित उत्पीड़न की धारणा को ज़ोर से आघात लगा।  मिठू के नए जीवन और नए संघर्ष की शुरुआत हुई। आज से वो अकेला है अनाथ!!

  ये एक छोटा सा अंश कल ही खत्म किये बांग्ला उपन्यास 'ईश्वरेर बाशा' यानी 'ईश्वर का घोंसला' से... जब-तक तक मैं इसे पढ़ती रही मैं एक दूसरे संसार में थी वो संसार इतना भयावह इतना अन्धकारमय है कि उसके सामने हमारे जीवन के दुःख कुछ भी नही। मैं 16 वर्ष की उम्र से कहानी/उपन्यास पढ़ती आ रही हूँ, कितनी ही किताबें पढ़ीं लेकिन #tilottama majumdar की लिखी ये कहानी और उसके परिवेश/ परिस्थिति का ऐसा सजीव वर्णन कभी नहीं पढ़ी थी। मिठू की कहानी से शुरू हो कर वीरे, अब्दुल, पिंटू, ली,ब्लैकी, छेनो, रीना, छावनी, शर्माबाई ..... कितने ही किरदार और उनके जीवन की लड़ाई की साक्षी लेखिका मुझे बनाती रही। कभी-कभी भाषा अश्लील लगने लगती, लेकिन यही तो उन अनाथ बच्चों के जीवन का सच है जिसे दुनिया         'हरामी' कह कर पुकारती है। उनके जीवन की कहानी श्लील कैसे होगी? कितनी लांछना कितनी वंचना और अभाव से परिपूर्ण उनका जीवन होता है!  अनाथालय के Father ने दूसरे सामान्य बच्चों के साथ उन मेधावी बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था कर रखी थी जो अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं ताकि उन्हें स्वस्थ परिवेश में मिले.... लेकिन कहाँ? जाने क्यों दूसरे बच्चे उनसे दूर ही रहते है उनके साथ बात नहीं करते, उनके साथ नहीं खेलते- ये बच्चे जानते हैं और आपस में बात करते है ... "साला हमलोग बेजन्मा, अज्ञात कुल के हैं न इसलिए बापवाला बेटा सब हमलोगों के साथ नही खेलता..." छोटे बच्चों का यौनशोषण, नशे की जुगाड़ के लिए यौनाचार के लिए अपने को प्रस्तुत कर देना, समलिंगी होना, वेश्यावृत्ति, आक्रोशवश और अपने बढ़ते शरीर की कामेच्छा पूर्ति के लिए लड़कियों की तलाश में रहना। ये सब कुछ कहानी में इस तरह लेखिका ने पिरोया है कि कहानी खत्म होने के बाद लगता है अगर ये सब दृश्य नहीं होते तो आज के बढ़ते अनाचार और उनकी दुर्दशा पर दृष्टिपात अधूरा ही रह जाता।
 मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से लिखी ये किताब मैं हर उस व्यक्ति के लिए पठनीय कहूँगी जिन्हें बाँग्ला पढ़ना आता है।
एक अनाथ बच्चा अपनी चुप्पी के पीछे मन में कितना बड़ा तूफ़ान छुपाये रहता है इसका पता सहज ही नहीं चल पाता। विकृत मनोवृति के पीछे सभ्य समाज के लोग कितने दोषी है इस किताब को पढ़ कर काफी कुछ उजागर हुआ मेरे लिये।
छावनी ने मिठू से कहा था ... ये पूरी दुनिया ही ईश्वर का घोसला है, तो जहाँ ईश्वर वहीँ तो स्वर्ग है। मिठू अपने जीवन अनुभव से कहानी के अंत में कहता है…. सारी दुनिया नर्क है। मैं नर्क तुम भी नर्क। नर्क-नर्क बराबर; बराबर ईश्वर का घोसला! दोनों में कोई फर्क नहीं। जिसे जो चुन लेना है चुन लो। स्वर्ग या नर्क! तुम्हारा-मेरा ईश्वर का घोसला।
मिठू अनाम परिचय से जीवन की शुरुआत कर के भी अपनी बुद्धि और कौशल से प्रसिद्ध गणितज्ञ बना लेकिन जीवन के इस स्वर्ग-नर्क का हिसाब कभी मिला नहीं पाया।
हाय….. इन अभागे बच्चों का जीवन !!