Monday 18 July 2016

इश्वरेर बाशा (गॉड्स नेस्ट)

बाबा, मामा घर आ गया?
बकवास मत करो.... उस आदमी ने बच्चे को धमकाया; लो ये पकड़ो। बच्चे के हाथ में उसकी छोटी सी पोटली आदमी ने थमा दी।
चल अब उतर...  ट्रेन के दरवाज़े की तरफ वो बढ़ने लगा। बच्चा जल्दी-जल्दी पांव बढ़ा कर उसके पीछे हो लिया। आदमी पीछे मुड़ कर एक बार भी नही देख रहा। झटपट उतर कर प्लेटफार्म पर चलने लगा। वो भी उसके पीछे उतरा अपने छोटे छोटे पाँव से। हैंडल पकड़ कर झूलते हुए किसी तरह सीढ़ी पर अपने पांव रख कर उतरा था वो।
 उफ़!! उसका सर घूम गया। इतने लोग! इतने लोग! इतनी रौशनी! इतनी आवाज़!
डर के मारे उसने उस आदमी का हाथ कस कर पकड़ लिया। आदमी ने अपना हाथ छुड़ाना चाहा लेकिन वो तर्जनी पकड़े रहा। बाएं हाथ की तर्जनी और छाती से चिपका कर अपनी वो छोटी सी पोटली। चप्पल पहनने की आदत नहीं इसलिए पाँव घसीट कर चल रहा था। इतने लोग! डर से उसका गला सूख कर काठ हो गया था। उसकी बहुत छोटी सी ऊंचाई वाली देह के सामने अनगिनत बलिष्ठ पैर दिख रहे थे। धोती, पजामा ,पैंट, साड़ी सब तेज़ी से भाग रहे- मानो एक सांस में दौड़ते रहने के अतिरिक्त बाकि सब गौण है। वो उस आदमी का चेहरा देखना चाह रहा था लेकिन ऊपर की ओर देखने की कोशिश में ही ऊँगली की पकड़ में खिंचाव आने लगता। वो और भी सख्ती से उस आदमी का हाथ पकड़ना चाह रहा है! लेकिन वो आदमी उसकी मुट्ठी से ऊँगली छुड़ा लेना चाह रहा.. खींच रहा ..खींच रहा और ऊँगली छूट गयी। बच्चा गला फाड़ कर चीख उठा.... बाबा!!!  भीड़ में लोगों के धक्के खाते-खाते वो बहुत पीछे छूट गया। फिर भी रोते-रोते आवाज़ लगा रहा था बाबा!! बाबा!!  आंसू पोंछ कर उसने देखा वो स्टेशन के बाहर खड़ा है जहां बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है.... हा व ड़ा वो अपनी छोटी पोटली और नई चप्पल घसीटते हुए फिर चलने लगा लोगों के चेहरे में उस आदमी को ढूंढने लगा।  उसे उम्मीद थी कि वो आदमी अभी वापस आएगा और हाथ छूट जाने के कारण उसे डांटेगा, गालियां देगा, बाल नोंच कर इतना मारेगा कि उसके कुछ बाल नुच कर आदमी की हाथों में आ जायेंगे। लेकिन अँधेरा आ गया आदमी लौट कर नही आया।  इस भयंकर सच का सामना करते हुए बच्चे के दोनों पाँव बेजान हुए जा रहे थे कि उसका बाप उसे इस विशाल हावड़ा स्टेशन पर अकेला छोड़ गया। बच्चा कुछ भी ठीक से सोच नहीं पा रहा था फिर भी उसकी आँखों में पानी था। वो आदमी उससे प्यार नहीं करता था, जो थोड़ा उसे खाने देता उससे कहीं ज़्यादा उसे मार खाना होता था। उसके 7 वर्ष के जीवनकाल में सिर्फ भय त्रास और असहाय होने का ही सिर्फ बोध था। फिर भी वो सब उसका पहचाना था।  अब वो नए सिरे डर रहा है, नए सिरे से त्रस्त और एकाकी, नए सिरे से असहाय!  अत्याचार के साथ भी एक नियम है, जिसके साथ जीवन बंधा होता है उसके अत्याचार सम्बन्ध में भी एक आस्था का जन्म होता है। एक तरह का विश्वास। लगता है यही तो वो करेगा। इस तरह की यंत्रणा देगा। उस तरह से अपमानित करेगा। प्रत्येक अत्याचारी का एक निर्दिष्ट तरीका होता है जो पीड़ित है वो उसे पहचानता है। पहचाने डर के बीच संत्रास में भी उसे एक सांत्वना मिलती रहती है। नए अत्याचारी के अत्याचार की सम्भावना नए सिरे से डराती है। अनजाने भविष्य के सम्मुख होते ही परिचित उत्पीड़न की धारणा को ज़ोर से आघात लगा।  मिठू के नए जीवन और नए संघर्ष की शुरुआत हुई। आज से वो अकेला है अनाथ!!

  ये एक छोटा सा अंश कल ही खत्म किये बांग्ला उपन्यास 'ईश्वरेर बाशा' यानी 'ईश्वर का घोंसला' से... जब-तक तक मैं इसे पढ़ती रही मैं एक दूसरे संसार में थी वो संसार इतना भयावह इतना अन्धकारमय है कि उसके सामने हमारे जीवन के दुःख कुछ भी नही। मैं 16 वर्ष की उम्र से कहानी/उपन्यास पढ़ती आ रही हूँ, कितनी ही किताबें पढ़ीं लेकिन #tilottama majumdar की लिखी ये कहानी और उसके परिवेश/ परिस्थिति का ऐसा सजीव वर्णन कभी नहीं पढ़ी थी। मिठू की कहानी से शुरू हो कर वीरे, अब्दुल, पिंटू, ली,ब्लैकी, छेनो, रीना, छावनी, शर्माबाई ..... कितने ही किरदार और उनके जीवन की लड़ाई की साक्षी लेखिका मुझे बनाती रही। कभी-कभी भाषा अश्लील लगने लगती, लेकिन यही तो उन अनाथ बच्चों के जीवन का सच है जिसे दुनिया         'हरामी' कह कर पुकारती है। उनके जीवन की कहानी श्लील कैसे होगी? कितनी लांछना कितनी वंचना और अभाव से परिपूर्ण उनका जीवन होता है!  अनाथालय के Father ने दूसरे सामान्य बच्चों के साथ उन मेधावी बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था कर रखी थी जो अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं ताकि उन्हें स्वस्थ परिवेश में मिले.... लेकिन कहाँ? जाने क्यों दूसरे बच्चे उनसे दूर ही रहते है उनके साथ बात नहीं करते, उनके साथ नहीं खेलते- ये बच्चे जानते हैं और आपस में बात करते है ... "साला हमलोग बेजन्मा, अज्ञात कुल के हैं न इसलिए बापवाला बेटा सब हमलोगों के साथ नही खेलता..." छोटे बच्चों का यौनशोषण, नशे की जुगाड़ के लिए यौनाचार के लिए अपने को प्रस्तुत कर देना, समलिंगी होना, वेश्यावृत्ति, आक्रोशवश और अपने बढ़ते शरीर की कामेच्छा पूर्ति के लिए लड़कियों की तलाश में रहना। ये सब कुछ कहानी में इस तरह लेखिका ने पिरोया है कि कहानी खत्म होने के बाद लगता है अगर ये सब दृश्य नहीं होते तो आज के बढ़ते अनाचार और उनकी दुर्दशा पर दृष्टिपात अधूरा ही रह जाता।
 मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से लिखी ये किताब मैं हर उस व्यक्ति के लिए पठनीय कहूँगी जिन्हें बाँग्ला पढ़ना आता है।
एक अनाथ बच्चा अपनी चुप्पी के पीछे मन में कितना बड़ा तूफ़ान छुपाये रहता है इसका पता सहज ही नहीं चल पाता। विकृत मनोवृति के पीछे सभ्य समाज के लोग कितने दोषी है इस किताब को पढ़ कर काफी कुछ उजागर हुआ मेरे लिये।
छावनी ने मिठू से कहा था ... ये पूरी दुनिया ही ईश्वर का घोसला है, तो जहाँ ईश्वर वहीँ तो स्वर्ग है। मिठू अपने जीवन अनुभव से कहानी के अंत में कहता है…. सारी दुनिया नर्क है। मैं नर्क तुम भी नर्क। नर्क-नर्क बराबर; बराबर ईश्वर का घोसला! दोनों में कोई फर्क नहीं। जिसे जो चुन लेना है चुन लो। स्वर्ग या नर्क! तुम्हारा-मेरा ईश्वर का घोसला।
मिठू अनाम परिचय से जीवन की शुरुआत कर के भी अपनी बुद्धि और कौशल से प्रसिद्ध गणितज्ञ बना लेकिन जीवन के इस स्वर्ग-नर्क का हिसाब कभी मिला नहीं पाया।
हाय….. इन अभागे बच्चों का जीवन !!

Thursday 7 July 2016

सरवाईवर



दिसम्बर की कड़कड़ाती ठण्ड में आठ बजते ही होस्पिटल पहुँच जाना होता था. रोज़ की तरह अपने कमरे में बैग रख कर धूप सेंकने बाहर आ कर खड़ी हो गयी थी, राजू वहीँ मुझे चाय पकड़ा गया. चाय पीते हुए मैं चुपचाप आते जाते लोगों को देख रही थी. रोज़ का यही रूटीन था सुबह सुबह डॉक्टर से मिलने लोग आना शुरू कर देते. डिस्चार्ज ले कर जानेवाले भी सुबह सुबह ही निकल जाना चाहते थे. नया कैंसर हॉस्पिटल था इसलिए भीड़ ज्यादा नहीं होती थी बस कुछ उम्मीद से भरे और कुछ उम्मीद छोड़ वक्त और हालात से लड़ते चेहरे ही दिखाई देते. मैं इन्ही चेहरों के बीच ज़िन्दगी के फलसफे तलाशती रहती

तभी लगा मेरे पास आ कर कोई खड़ा हुआ. नजरें घुमा कर देखा तो एक लम्बा सा घने बालों वाला हैण्डसम लड़का खड़ा था. उम्र लगभग २०-२२ के बीच होगी. उसने मुस्कुरा कर कहा ... गुड मॉर्निंग मैडम. मैंने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया. आदतन स­वाल करना मैं ही शुरू करती हूँ लेकिन मेरे मुंह खोलने से पहले उसने सवालों की झड़ी लगा दी. एक के बाद एक सवाल.

कैंसर मरीज़ को क्या खाना चाहिए. कैसी कसरत करनी चाहिय. पूरी तरह ठीक होने में कितना टाइम लगता है. अगर ऐसा करे तो कैसा रहेगा वैसा करे तो कैसे परिणाम होंगे.... कितने सवाल लेकिन हर सवाल सकारात्मक थे एक भी सवाल ऐसा नहीं की लगे वो मरीज़ की हालत या कैंसर की वजह से निराश है. मैं उसके सवालों के जवाब देती रही.

मुझे अब अपने काम पर लगना था उससे बातें करते हुए ही कमरे की तरफ लौटने लगी तब उसने एक और सवाल किया... कैंसर क्यों होता है?

सवाल बहुत पीड़ादायक है क्योंकि इसका जवाब अभी तक मेडिकल साइंस के पास नहीं. कैंसर हॉस्पिटल में खड़े हो कर इस सवाल का जवाब बहुत सोच समझ कर देना पड़ता है, लेकिन अभी मैंने जवाब देना शुरू किया भी नही था कि उसने आगे अपने सवाल ही को विस्तार देना शुरू कर दिया. इतनी बातों के दौरान मैं उसके लिए मैडम से दीदी हो गयी थी.

शादाब बातें आगे बढ़ाते हुए कहा.. दीदी, मैंने तो कितने आर्टिकल्स और प्रचार में पढ़ा है की नशा करने से कैंसर होता है, मैं तो सिगरेट शराब या किसी भी तरह का नशा नहीं करता फिर मुझे क्यों हुआ?

अब जैसे मेरे पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे सच बताऊँ तो उसकी बातें सुन कर मैं अंदर तक काँप गयी थी. मेरी जुबान सुख गयी. इतनी ठंड में भी पसीना सा महसूस होने लगा.

इतनी देर की बातचित में उसने एक बार भी ये नहीं बताया था कि मरीज़ कौन है उसके सारे सवाल मरीज़ के घरवालों जैसे थे, मैंने भी उसे घरवालों की काउन्सेलिंग के दौरान कही जाने वाली बातें बताती गयी थी. उसे देख कर भी कोई नहीं कह सकता था वो कैंसर का मरीज़ है.

मेरे मुंह से बस इतना ही निकला ... ओह तुम पेशेंट हो! उसने सहजता से जवाब दिया -

हाँ....

मैं उसे वार्ड में भेज कर अपने काम में लग गयी. उस दिन ही उसका पहला किमो था. उड़ीसा से आया था इसलिए किमो के बाद ३ दिनों के लिए हॉस्पिटल में ही रुक गया था. उसके साथ सिर्फ उसके पापा थे.

15 दिनों बाद शादाब फिर आया अपने दुसरे किमो के लिए. इस बार चेहरा थोड़ा मुरझाया हुआ था कुछ थका सा मैं उससे मिलने उसके कमरे में गयी तो मुझे देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गयी. बातों का सिलसिला फिर शुर हुआ... उसने कहा दीदी, आपने जैसी जीवन शैली अपनाने को कहा था आजकल मैं वैसे ही कर रहा हूँ. समय से दवा, खाना, रेस्ट सब कुछ. मैंने कहा.. वाह! तब तो जल्दी ही तुम ‘विजेता’ के लिस्ट में अपना नाम लिखाओगे. हर कैंसर पेशेंट को हम तुम्हारा ही उदहारण देंगे शादाब!

उसने कहा ... हाँ दीदी, इस बार मैं जीतना चाहता हूँ. पता है दीदी. पिछले महीने दो लेटर्स एक साथ एक ही दिन मेरे हाथ आये थे. एक में NDA में सिलेक्शन की खबर थी और दुसरे में कैंसर कन्फर्मेशन रिपोर्ट. इसी हफ्ते कॉलेज में फंक्शन भी था जिसमे मैं भी गाना गाने वाला था पर मुझे कुछ भी करने का मौका नही मिला ..... कैंसर ने मुझे चुन लिया था. मैं उसकी भीगती आँखों का सामना नही कर पायी. फिर आऊँगी कह कर उठ गई.

उसने और उसके परिवार ने बहुत संघर्ष कर पैसे जमा कर कर के किमो और दुसरे प्रोसेस पुरे किया. हर बार लड़का हँसते हुए आता ज़िन्दगी से भरी बातें करता. मैं मन ही मन उसके लिए दुआ करती और उससे कहती ... फिर मिलेंगे शादाब!

जिस दिन उसका आखरी किमो हुआ उसने बताया अब आगे का ट्रीटमेंट उड़ीसा के ही किसी दुसरे हॉस्पिटल में करवाने का तय किया है, अब शायद इस हॉस्पिटल आना नही होगा.

उसने कहा... दीदी आपके पास तो मेरा फोन नंबर है आप कभी कभी मुझे फोन कर लिया कीजियेगा. मैंने मुस्कुरा कर कहा .... हाँ ज़रूर!

हाँ तो कह दिया लेकिन कभी उसकी खबर नहीं ले पायी..... हिम्मत ही नहीं होती थी, ये ख्याल हमेशा रोक देता कि फोन करूँ और पता नहीं क्या सुनने को मिले. हॉस्पिटल का फोन नंबर तो उसके पास भी था उसने भी कभी फोन नहीं किया. पता नही आज वो है या ....



मेरे लिए शादाब हमेशा एक कैंसर सरवाईवर का चेहरा ही लिए रहेगा. उसकी सकारातमक बातें और जीवन के प्रति उत्साह प्रेरणा देती रहेगी. कैंसर से लड़ना है विजेता बनना है.



‘Cancer Survivor Day’ का दिन शादाब तुम्हारे नाम.....