Wednesday 13 September 2017

प्राचीन अपराध : बलात्कार




विषय कुछ नया नहीं बल्कि सदियों पुराना है. युद्ध और कब्ज़ा करने के युग का जब आरम्भ हुआ होगा शायद तब से ही बलात्कार होते चले आ रहे हैं. भारत में हमेशा से माना जाता रहा है कि बलात्कार तभी होता है जब स्त्री कि सहमति होती है या वही उत्तेजित करती है. उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है इसलिए लांछना और सज़ा भी स्त्री को ही मिलती है.
क्यों भूल गये? अहिल्या को भी तो पत्थर बन जाना पड़ा था व्यभिचार का आरोप ले कर, जबकि धोखा इंद्र ने दिया था.
राजनैतिक बलात्कार से बचने के लिए ‘सती’ होने की प्रथा चल पड़ी. उच्च कुलीन स्त्री को भी सती कर देने का प्रचलन हो गया. कारण था कहीं पति के अभाव में व्यभिचार करने लगे तो सर्वनाश हो जायेगा. कुलीन स्त्रियाँ तब घर से बाहर शायद ही कभी निकलती थीं, तो डर किसका था? ज़ाहिर है अपने ही सगे-सम्बन्धियों का! पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति को बहुत ही सहज लिए जाता रहा है, समझा जाता है कि पुरुष ग्रंथी की इसमें अहम भूमिका है इसलिए ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं. स्त्री ही इसके लिए दोषी है.
युग बदला क़ानून भी बने लेकिन बलात्कार के प्रति मानसिकता नहीं बदली परिस्थति चाहे कुछ भी हो यहाँ तक कि बाल शोषण में भी यही माना जाता है कहीं-न-कहीं उसकी इच्छा थी तभी ऐसा हुआ.
बीसवीं सदी यूरोप में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का युग था. शुरुआत से ही बलात्कार को गंभीरता से नहीं लिया गया. बाद में जब इसके कारणों का विश्लेषण किया जाने लगा तब प्रतिपादित कर दिया गया कि स्त्री उकसाती है या इसकी कामना करती है तभी बलात्कार होते हैं. यानी जो हमारे देश में पहले से प्रचारित था उसे उन्होंने थ्योरी बना दिया.
बलात्कार कितनी बड़ी त्रासदी और कितने व्यापक रूप में समाज में स्थापित है इस पर यकीं दिलाने में स्त्रीवादियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा. एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा था, बलात्कार कम या ज्यादा समझ बुझ कर की गयी वो धमकी है जो पुरुष महिलाओं को डर की स्थिति में बनाये रखने के लिए करते हैं.
मनोविश्लेषक निकोलस ग्रोथ ने 1979 में जेल में रह रहे सौ बलात्कारियों का अध्ययन कर अपने रिपोर्ट में लिखा था, बलात्कार के मुख्यतः तीन कारण होते हैं – sadism, anger or the desire of power यानी कुछ अपवाद छोड़ कर ज्यादातर बलात्कार यौनेच्छा से प्रेरित नहीं होती बल्कि ऐसा अपराध है जिसमें व्यक्ति को शारीरिक मानसिक पीड़ा दे कर दबाव में रखा जाता है, सबक सिखाने और आत्मतुष्टि का आनंद पाने के लिए होता है.
बेरहमी, स्वार्थ और लैंगिक भेद एक पुरुष को बलात्कारी में परिवर्तित कर देता है. हम यदि मान भी लें कि लैंगिक भेद मिटा दिया जायेगा तो भी स्वार्थ और नृशंस भाव से व्यक्ति आज तक उबर नहीं पाया. ऐसे में कानून बनने के बावजूद बलात्कार कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं.
आज हम ऐसे समय में पहुँच गये हैं जहाँ अख़बार ऐसी खबरों से ही भरे रहते हैं. अपराधी अब गैंग में होते है. पीड़िता को मार डालने में भी कोई डर या संकोच नहीं होता. ऐसे कृत्यों के साथ अब नया आयाम जुड़ा है तकनीक का. अब बलात्कारियों के पास बलात्कार सिर्फ ताकत दिखाने का ही जरिया नहीं बल्कि विडियो और फोटो वायरल कर पैसे कमाने का भी जरिया है. समाज में कुछ लोग ऐसे भी है जो ऐसे जघन्य यौनिक हिंसा के विडियो देखना बहुत पसंद करते है. एक बड़ा बाज़ार रियल रेप विडियो का है.
हम सोचते हैं क़ानून बनने और जागरूकता फैलाने के प्रयास के बावजूद ऐसे हादसे रुकना तो दूर कम होने का भी नाम क्यों नहीं ले रहे? तस्वीर बिलकुल साफ है – समाज में परपीड़ा से आनंद पाने वालों की संख्या कुछ कम नहीं, यही इसका असल कारण है. बलात्कार सिर्फ एक व्यक्ति पर हुए हमले का मुद्दा नहीं बल्कि उसकी पहचान छीन लेने का अपराध है. साथ ही सामाजिक सुरक्षा का भी प्रश्न है. आज हर परिवार अपने बच्चों और महिलाओं के प्रति अत्यंत असुरक्षा के भाव से आतंकित है. बलात्कार पर काबू नहीं पाया जा रहा लेकिन पीड़ित के प्रति संवेदना ज़रूर होनी चाहिए. पुलिस की भूमिका सबसे अहम है तुरंत कार्यवाही और सुनवाई के बाद सज़ा के लिए चार्जशीट जल्द ही प्रस्तुत करना होगा. सरकार द्वारा पीड़िता को पुनर्वास के लिए सहायता राशि भी प्रदान की जानी चाहिए.
क़ानून तो है बस तत्परता और संवेदना की अत्यंत आवश्यकता है. सारी घटनाओं के पीछे स्त्री को निम्न समझने की मानसिकता प्रमुख है इसे बदलने के लिए बचपन से ही नींव डालनी होगी.





Friday 1 September 2017



तकनीक की साया  

1985-87 में एक अंग्रेजी धारावाहिक “small wonder” प्रसारित हुआ करता था। उसी का हिंदी रूपांतरण लगभग एक दशक बाद किया गया। दोनों ही सीरियल काफी लोकप्रिय हुए। मैं भी बड़े चाव से देखती थी। एक लड़की जो देखने में बिल्कुल आम दूसरी लड़कियों जैसी है लेकिन उसके काम इतने असाधारण कि वो कारनामों में तब्दील हो जाते। दरअसल वो लड़की ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ का एक नमूना थी जिसे उसके सृजक वैज्ञानिक अपने घर ले आते हैं और अपनी बेटी बता कर दुनिया से उसका परिचय कराते हैं। बहुत मज़ा आता था उसके कारनामें और अड़ोस-पड़ोस की हैरानी देख कर।
80 के दशक में हमारे देश में ये सब तकनीकी क्षेत्र में कल्पनातीत था लेकिन यहां पर सत्यजीत रे की एक कथा शृंखला का ज़िक्र करूँगी जिसमें उन्होंने ऐसे ही एक रोबो मनुष्य की रचना की जो न सिर्फ हर कार्य में माहिर था बल्कि पृथ्वी से ले कर अन्य ग्रहों के प्राणियों तक की भाषा समझने में सक्षम था। सत्यजीत रे की कल्पना यहाँ तक जाती है कि उस रोबो को बनानेवाले वैज्ञानिक प्रो शंकू को भी ज्ञात नहीं कि उस रोबो में और क्या-क्या विशेषताएँ हैं! समय सापेक्ष वो सामने आता।
आज इन कथा कहानियों और कल्पनाओं को साकार करने में तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी जापान ने सफलता प्राप्त कर ली है।  जापान ने ‘साया’ नाम से एक ऐसी ही लड़की को अब दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। साया 16-17 साल की प्यारी सी जापानी लड़की है (दरअसल साया की कोई उम्र ही नहीं)। सड़क पर निकली तो कोई पहचान ही नहीं पाया कि वो रोबोट है। सिर्फ चेहरा ही नहीं उसमें अच्छी लड़की के सारे गुण प्रोग्राम किये गए हैं, नैतिक मूल्यों की भी उसे समझ है। साया फेसबुक अपडेट कर सकती है, ट्विटर भी हैंडल करना जानती है। जल्द ही साया की छोटी मोटी खामियों को दूर कर उसे आम लोगों के बीच लाया जाएगा। जिन्होंने इसे डिजाइन किया उनका सपना जाने कितने ही लोगों को रोमांच का अनुभव कराएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। 
दुनिया मे तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उपलब्धि इंसान को श्रेष्ठता के चरम शिखर पर ले जा रही है। इंसान मशीन के ज़रिए अपनी हर समस्या का हल चुटकियों में निकाल सकता है। एक बटन दबाते ही मानो आसपास के वातावरण और परिस्थिति मानव की मुठ्ठी में।  इन सब सुविधाओं और सुख के एवज में इंसान को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है और आगे और भी ज्यादा चुकनी होगी।
इन मशीनों के ज़रिए सारे काम पूरे कराने में धीरे-धीरे क्या हम ही इन मशीनों के गुलाम नहीं हो गए? इतने चमत्कारिक उजले तकनीकी दुनिया का स्याह पक्ष भी है- हम अपनी प्रकृति से उसकी पहचान छीन रहे हैं। इंसान अपनी स्वाभाविक भावनात्मक सम्बन्धों,संवेदनाओं को भी यांत्रिक बनाता जा रहा है। जापान जैसे उन्नत देश के युवाओं को एक-दूसरे में कोई रुचि नहीं। वो सिर्फ मनोरंजन या वासनापूर्ति के लिए करीब आते हैं, आपसी संबंधों से अधिक उन्हें कंप्यूटर और एनीमेशन से रिश्ता बनाये रखना रुचिकर लगता है। जापान का ही एक छोटा सा वीडियो क्लिप देखा जिसमें अंतिम संस्कार भी रोबोट द्वारा सम्पन्न किया जा रहा था, क्योंकि अब वहाँ के लोग पारम्परिक रिवाजों को नहीं निभाना चाहते और न ही उनके पास समय है। रोबोट द्वारा कार्य सम्पन्न कराने पर खर्च भी कम आता है।
कल्पना कीजिये साया जैसी लड़की तमाम मानवीय गुणों से युक्त हमारे बीच पहुँच जाती है। वो अकेलापन दूर करती है, हर प्रकार से मदद करती है। उसकी कोई आशा/अपेक्षा भी नहीं सिर्फ समय पर चार्ज कर देना है जैसा कि हम अपने फोन के साथ करते हैं, तो निश्चित ही वो आपके सपनों की परी हो जाएगी। तब उसे छोड़ कोई मानवी की ओर आकर्षित होगा? संभावना कम ही नज़र आती है। और फिर एक ‘टर्मिनेटर’ जैसे यांत्रिक मानव  का भी उदय होगा जो सब कुछ तहस-नहस करने हमारे बीच आएगा। तब क्या होगा? क्या मनुष्य अपनी ही बनाई मशीनों के बीच अपना अस्तित्व बचा पायेगा?

अपने समतुल्य बुद्धि और रचनाशीलता की शक्ति एक यान्त्रिक मानव में डाल देने के बाद  उसका गुलाम हो जाना पड़े तो आश्चर्य नहीं।
अभी तक जितनी तकनीकों का विकास हुआ है उनसे हमें जितना लाभ मिला है, उतना ही हमारे शरीर को नुकसान भी पहुँचा है। औसत आयु बढ़ी है लेकिन बहुत ही कम उम्र से ही हम दवाओं पर निर्भर हो जाते हैं। शरीर बीमारी का घर बन चुका है।
समाज में जितना ज़ोर विकास के नाम पर मशीनीकरण पर दिया जा रहा है उसका एक शतांश भी प्रकृति, प्राकृतिक नियम और मानवीय मूल्यों को दिया जाता तो ‘साया’ सिर्फ किस्से कहानियों का ही हिस्सा होती। उचित होता कि यंत्रों को यांत्रिक कार्यों में ही लगाया जाता- यांत्रिक मानव बनाने के प्रयास न होते।

Monday 3 July 2017

अपील


हर ब्लॉगर एक विषय पर लिखते हुए ही आगे बढ़ता है। वही इसकी खूबसूरती और ब्लॉग में विविधता जगाता है।
वापसी किये सभी ब्लॉग मित्रों का स्वागत है। अपनी विषय क्षेत्र पर पकड़ और जानकारी का खजाना खोले रखिये। पढ़नेवाले ज़रूर पढ़ेंगे।
यात्रा, रोचक तकनीकी जानकारी, कहानी कविता, कानून,राजनीति,व्यंग,इतिहास न जाने कितने ही ऐसे विषय हैं जिस पर मित्र लिखते हैं और मेरे जैसे लोग बहुत रुचि सहित पढ़ते हैं। आगे और रसद मिलेगा इस इंतज़ार में भी बार बार ब्लॉग पर जाते हैं।
आप सब से अनुरोध है , लिखिए ब्लॉग पढ़ना सुकून देता है मानों हम एक अच्छी किताब पढ़ रहे है जो विषयपरक और भटकन से बचाती है।
जिन्हें मैं नियमित पढ़ती हूँ उनका लिखना अभी भी जारी है आप भी लिखिए । ब्लॉगिंग स्वस्थ परंपरा है इसे मरने मत दीजिये।
धन्यवाद

Monday 3 April 2017

पुलिस की डायरी


हर दिन नये चोर, नये डकैत, नये अपराध के तरीके से दो चार होना हमारा रोज़ का काम है. कभी कभी अपराध के कारण इतने ह्रदय विदारक होते हैं कि समझ नहीं आता असली अपराधी कौन है. जो सामने दिख रहा हो वो या जो मूल में छिपा है वो.

रात फोन की घंटी बजी, खबरी से लीड मिली मिराजुद्दीन की लापता लड़की का सुराग मिला है, उसे हैदराबाद के एक बहुत बड़े बंगले में रखा गया है. खबर मिलते ही हम हैदराबाद के लिए टीम और वर्क स्ट्राटेजी बना कर निकल पड़े. हम चार लोग थे, हैदराबाद पहुँच कर वहाँ की पुलिस की सहायता से उस बंगले तक पहुँच गये जहाँ आयशा के होने की खबर मिली थी. आलिशान बंगला था. बिना किसी जद्दोजेहद के हम आसानी से बंगले में घुस गये लग रहा था, इस काण्ड में संलित्प लोग भाग गये थे पुलिस से पहले चोर को ही खबर हो जाती है. अंदर प्रवेश करते ही देखा यहाँ की सज्जा बहुत ही सुरुचिपूर्ण थी. हर कमरे को किसी बादशाही कमरे का रूप दिया गया था. कालीन से लेकर झूमर तक सब एक से बढ़ कर एक. वहीँ एक कमरे में हमें आयशा मिल गयी.

बहुत महंगे कपड़े, सर से पाँव तक सौदर्य परिचर्चा साफ़ झलक रही थी. करीने से बंधे हुआ बाल नेलपॉलिश लगे नाख़ून.... चौदह साल की बच्ची आयशा बहुत खुबसुरत युवती लग रही थी. जब हमने उसे आयशा कह कर पुकारा तो उसने कहा, उसका नाम आयशा नहीं और वो अपनी मर्ज़ी से यहाँ रह रही है किसी ने उसे अगवा नहीं किया. जब हमने उसकी फोटो जो उसे पिता से मिली थी उसे दिखाया और समझाने पर उसने स्वीकार किया कि वो आयशा ही है तब हमने और देर न कर फ़ौरन उसे साथ ले अपने शहर रवाना हो गये. उसे उसके पिता के हाथ सुरक्षित सौंप दिया गया.

दो दिन बाद उसका पिता मिराजुद्दीन पुलिस स्टेशन की बेंच पर मुंह लटकाए बैठा मिला. मैंने पूछा क्या बात है मिराज सब ठीक तो हैं न, आयशा ठीक है न? उसने लगभग रोते हुए कहा... वो तो ठीक है लेकिन जाने उसे क्या हुआ है जब से आई है एक ही ज़िद पकड़े बैठी है उसे यहाँ नही रहना, उसे वापस हैदराबाद जाना है. उन्ही लोगों के साथ रहना है जो उसे ले कर गये थे.

जान कर बहुत आश्चर्य हुआ, उससे कहा कल बेटी को ले कर आना देखता हूँ, मैं उससे बात कर के उसे समझाने की कोशिश करूँगा.

दुसरे दिन आयशा अपने पिता के साथ मेरे पास आई. नज़रे झुका कर चुपचाप बैठी रही, मेरे किसी सवाल का जवाब देने को राज़ी नहीं. बस एक ही रट, उसे हैदराबाद वापस जाना है. मैंने कहाँ, ठीक है लेकिन पता तो चले कि तुम वहां क्यों वापस जाना चाहती हो जहाँ जा कर लड़कियां किसी भी तरह अपने घर वापस लौट आना चाहती है.

उसने कहा, आपसे अकेले में बात करुँगी, अब्बा को बाहर जाने कहिये. मैंने मिराजुद्दीन को बाहर बैठने कहा.

आयशा ने बताना शुरू किया जो लोग मुझे हैदराबाद ले गये थे उन लोगों ने मुझे बहुत अच्छी तरह रखा था. अच्छा खाने को दिया, अच्छा पहनने को दिया. सोने के लिए एक पूरा पलंग मेरे लिए था. यहाँ तो हम छह बहने और अम्मी ऐसे सोती हैं कि सारी रात करवट भी नहीं बदल सकते, एक साइड हो कर ही सोना पड़ता है ज़मीन पर. इतना छोटा सा एक कमरा और नौ लोग उसी में रहते, खाते, सोते हैं. एक ही खाट है जिस पर अब्बा और छोटा भाई सोते हैं. खाना दो वक्त किसी तरह जुट जाता है. मुझे हमेशा भूख लगती रहती है लेकिन अम्मी डांट देती है, घर में कुछ हो तब तो दे. लेकिन जितने दिन मैं हैदराबाद में थी भरपेट खाना खाती थी, पलंग पर सोती थी, जिधर चाहे करवट बदलो पंखा लाइट सब कुछ था. कितना आराम और सुख था वहाँ. यहाँ तो सिर्फ भूख और गाली है बस... मुझे फिर से वहीँ जाना है साहब.

भूख लाचारी का कैसे फायदा उठाते हैं ये मानव तस्कर. अच्छी ज़िन्दगी का सपना दिखा कर उठा लाये फिर कुछ दिन अच्छा खाना कपड़ा और सुख के दर्शन भी करा दिए जब लड़की पूरी तरह उनके जाल में फंस गयी तब एक दिन किसी अमीर शेख या ऐसे ही किसी आदमी को कुछ रुपये के एवज में बेच दी जाती है, उसके बाद जो ज़ुल्मों का सिलसिला शुरू होता है उसके बारे में तो उन्हें अंदाज़ा ही नहीं.

उसकी सारी बातें सुनने के बाद एक बार फिर काउन्सेलिंग के लिए भेज दिया. वहां से लौटने के बाद वो काफी सामान्य नजर आ रही थी. दुबारा फिर कभी मिराजुद्दीन को पुलिस स्टेशन पर नहीं देखा. बाद में सुना कि आयशा की शादी उसी बस्ती के फल विक्रेता से कर दी गयी है.

मानव तस्करी के बहुत से हिंसक और दिल दहला देने वाले किस्से अक्सर सुनने को मिलते हैं लेकिन लड़की भूख और गरीबी से तंग आ कर अपनी मर्ज़ी से जाने को जब तैयार हो तो समझ आता है पेट की आग के आगे संभवतः शरीर के घाव भी मायने नहीं रखते.


Monday 27 March 2017

बिन ब्याही माँ की डायरी



नए दौर की नई कहानी, नई तकनीक पर अब नए प्रयोग होने लगे हैं। कभी शादीशुदा जोड़े ही छुप-छुपा कर सेरोगेसी के ज़रिये संतान हासिल कर रहे थे अब हमारे बॉलीवुड के अभिनेताओं ने एकदम ताज़ा उदाहरण पेश करना शुरू कर दिया है। बिना शादी ब्याह के झमेले में पड़े सेरोगेसी तकनीक से पिता बन जाओ। देश की ऐसी छुट-पुट खबरें पढ़ती हूँ तो 7 साल पहले के अपने देश भारत में बिताये दिन याद आते हैं। मेरी डायरी के पन्नों में वो सारे दिन आज भी ताज़ा हैं, लेकिन मैं सब पीछे छोड़ कर दूसरे देश निकल आई, आना ही पड़ा क्या करती! मेरे माता पिता भी मेरे निर्णय के विरुद्ध थे, आगे हम दो ज़िन्दगियों का सवाल था- यूँ ही बर्बाद नहीं कर सकती थी। चूँकि फैसला मेरा था, उसका परिणाम का भी मुझे ही करना होगा।
क्या सोचने लगे? कैसा फैसला कौन सी दो ज़िन्दगी?
सारे सवालों के जवाब मेरी डायरी में है आज कुछ पन्ने आपके लिए खोल देती हूँ।
करण जौहर की फ़िल्म कुछ-कुछ होता है की अंजलि याद है न, एकदम टॉम बॉय। खेलकूद कपड़ों की स्टाइलिंग सब कुछ लड़कों जैसा। दोस्त भी लड़के ही, हों भी क्यों नहीं अंजलि लड़कियों जैसी शर्मीली, कपड़े और ब्यूटी पर ध्यान देनेवाली लड़कियों जैसी थी ही नहीं। मैं भी बिलकुल अंजलि जैसी ही थी। एकदम बिंदास, बेफिक्र और अपनी मर्ज़ी से चलने वाली। मैं बाइक भी बहुत अच्छी चलाती थी लेकिन पापा की थी तो उन्हें बिना बताये छुपा कर चलाती थी। आपको वीनू पालीवाल याद है? वही प्रसिद्ध महिला बाइकर जिसे HOG रानी नाम दिया गया था, पिछले साल सड़क दुर्घटना में ही उसकी मौत हो गयी थी। मैं उनकी ज़बरदस्त फैन थी। सोचती हूँ वीनू को भी तो अपने बाइक प्रेम और लम्बी दूरी तक सड़क नापने की उत्कंठा ने क्या कुछ कम परेशान किया होगा? लड़की हो कर लड़कों की तरह अकेली ही बाइक पर दुनिया नापने निकल पड़ी समाज को तो बहुत खुजली मची होगी। लेकिन फिर भी वीनू पालीवाल ने अपने सपने को पूरा किया और अपने प्यारे हार्ले डेविडसन पर ही मौत को गले लगा लिया।
एक बार मैंने भी रेगिस्तान में बाइक रैली में हिस्सा लिया। वहाँ पहुंची तो देखा एक मेरे अलावा दूसरी कोई भारतीय लड़की रैली का हिस्सा नहीं थी लेकिन विदेशी लड़कियां कई सारी थीं।अनोखा अनुभव था जीवन भर याद रहेगा। वैसे मेरा तो पूरा जीवन ही एडवेंचर बन गया है।
कॉलेज खत्म कर के मैंने एक एडवरटाइजिंग एजेंसी ज्वाइन कर ली। यहां का माहौल कम-से-कम मेरे कपड़ों और पिक्सि हेअरकट आदि पर प्रश्न चिन्ह लगाने जैसा नहीं था। मुझे मेरी तरह जीने के लिए दूसरों के इज़ाज़त की ज़रूरत नहीं थी।

आज सालों बाद मुझे मेरे कॉलेज की सहेली स्मिता मिली। शादी कर के खुश है पति अभी अमेरिका में रह रहा है अगले साल लौटने पर दोनों ने परिवार बढ़ाने का सोचा है। उससे मिल कर ख़ुशी और एक नई बेचैनी के साथ मैं घर लौटी।
नींद नहीं आ रही, बार बार करवटें बदल रही हूँ और अंदर एक आवाज़ मुझे बेचैन किये जा रही है। मैं माँ बनना चाहती हूँ। हाँ, ये मेरे अंतरात्मा की आवाज़ थी।
जानती हूँ आप मेरी इच्छा पढ़ कर मन-ही-मन मुझे कोसते हुए कह रहे हैं, अगर इतनी ही इच्छा थी माँ बनने की तो किसी से शादी कर लेती या किसी गरीब अनाथ को ही घर ले आती। पूण्य भी होता और किसी बच्चे को परिवार मिल जाता।
आपको क्या लगता है, मेरे माँ-पापा ने मेरी शादी करवाने की कोशिश नहीं की? उन्होंने तो बहुत कोशिश की लेकिन किसी ने मुझे पसंद ही नहीं किया। मेरे बहुत से दोस्त है लेकिन कोई मुझे अपनी पत्नी रूप में नहीं देखना चाहता। मैं बाइक चलाती हूँ कभी भी देश की किसी भी प्रान्त में रैली के लिए निकल जाती हूँ , मर्दाने तरीके के कपड़े पहनना ही पसंद करती हूँ। शादी की पात्रता अनुसार मैं कहीं से भी खरी नहीं उतरती। पात्रता हासिल करने के लिए मुझे खुद को बदलना पड़ेगा या सही पात्र हूँ इसके लिए दिखावा करना होगा, जैसे कि अंजलि ने अपना प्यार किसी दूसरे के साथ देख अपनी जीवन शैली में बदलाव कर लिया था। मैं इसके लिए राज़ी नहीं।
वीनू पालीवाल मेरी प्रेरणा, उनका भी तलाक हो गया था सिर्फ इसलिए की उनके पति को उनका बाइक चलाना और दूर-दूर निकल जाना पसंद नहीं था। कितना कठिन है खुद को मार कर दूसरे की ज़िद और झूठे अहंकार के लिए जीते जाना।
अगर मैं बच्चा गोद लेती तो इसमें मेरा कृतित्व कहाँ रहता? नौ महीने अपने अंदर पलनेवाले शिशु का वो अनुभव कैसे मिलता! इसीलिए मैंने तय किया कि कृत्रिम गर्भधारण कर मैं माँ बनूँगी।

मेरी एक इच्छा ने मेरे आस-पास भूचाल ला दिया। माँ-बाप रोना पीटना शुरू कर दिए, दिन रात मुझे कोसते कि दुनिया में इतनी लड़कियां पैदा होती हैं, एक अच्छा और स्वाभाविक खुशहाल जीवन जीते हुए माँ बाप को कृतार्थ करती हैं; एक उनके ही भाग्य क्यों फूटे निकले जो उनकी बेटी ऐसे नियम विपरीत चलने की ज़िद पकड़े बैठी है। स्मिता ने समझाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। उसने समाज का डर दिखाया….. गर्भधारण के बाद कैसे मैं सबके सामने रोज़ आना-जाना करुँगी? कैसे ऑफिस में सबकी नज़रों और सवालों का सामना करुँगी? सभी चरित्र पर ऊँगली उठाएंगे कैसे उनका मुंह बन्द होगा? ऐसे निर्णय सेलिब्रिटी लें लोग प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते उनके जीने के कई रास्ते हैं लेकिन मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की ऐसा कदम उठाये तो स्थिति दर्दनाक हो जायेगी। कितने ही उदाहरण खोज-खोज कर निकालने लगी सिर्फ मुझे समाज के बनाये नियम विरुद्ध कदम उठाने से रोकने के लिए।
मैंने उससे कहा, तुम क्या सोचती हो? मैंने तय नियम के अनुसार माँ बनने की कोशिश नहीं की, लेकिन हर बार रिजेक्ट कर दी गयी क्योंकि मुझे अपना आत्मसम्मान विसर्जित करना मंज़ूर नहीं था। अब मैं माँ बनने के लिए वैज्ञानिक तकनीक का सहारा ले रही हूँ तो इसमें क्या गलत है? मैं किसी को ठग नहीं रही। किसी के साथ झूठे सम्बन्ध भी नहीं बना रही। माँ बनने में अपराध कहाँ है और मैं तो माँ बन सकती हूँ और उसका पालन पोषण भी कर सकती हूँ फिर इसमें किसी को क्या परेशानी होगी? स्मिता के पास मेरे तर्क का कोई जवाब नहीं था या शायद माँ बनने की मेरी लालसा इतनी बलवती हो गयी थी कि अब कोई विरोध सुनना ही नहीं चाहती थी।
आखिर वो दिन भी आ गया जब मेरे माँ बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। प्रयोग सफल रहा। अब मेरे जीवन की एक बड़ी इच्छा पूरी होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। महीने गुज़रने लगे। शरीर में परिवर्तन होने लगा था मेरा पेट अब नज़र आने लगा था। लोगों की तिरछी नज़रें व्यंग्य बाण और सवालों से परेशान हो कर माँ-पापा ने घर से निकलना ही छोड़ दिया। मैं इसके लिए तैयार थी इसलिए चुभती नज़रों और व्यंग्यों से बेपरवाह अपने रास्ते चलती रही।
अपने गर्भ के छठे महीने में मैंने ऑफिस में सबको बुला कर एक छोटी सी टी पार्टी दी और खुलासा किया की न तो मेरे साथ प्रेम प्रसंग में कोई धोखा हुआ है और न ही किसी ने बलात्कार किया है और न ही छुप कर मैंने शादी कर ली है। मैंने माँ बनने की इच्छा को पूरा करने के लिए साइंटिफिक तरीके से स्पर्म इंसेमिनेशन करवाया है जिसमे किसी भी प्रकार से पुरुष शरीर के संपर्क में आने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
उस दिन के बाद सहकर्मियों की फुसफुसाहट बन्द हो गयी, भले ही  मेरे अनुपस्थिति में बातें होती हों पर मुझे सुना कर नहीं।
दिन बीतते गए और फिर तृप्ति का जन्म हुआ। सचमुच गर्भधारण के बाद बच्चे के बढ़ने से ले कर प्रसव पीड़ा सब कुछ वैसा ही था जैसे सामान्य तरीके से माँ बनने पर होती है। फर्क सिर्फ यही था कि तृप्ति सिर्फ मेरी थी। मैं ही उसकी अकेली अभिभावक।

देखते-देखते तृप्ति प्ले स्कूल जाने लायक हो गयी। एडमिशन में खास परेशानी नहीं हुई बस पिता के नाम की जगह खाली देख कई स्कूलों ने वापस लौटा दिया। थोड़ी कोशिश के बाद एक प्ले स्कूल में एडमिशन मिल ही गया। तृप्ति की बहुत सी पसंद मेरे जैसी ही है उसे गुड़िया से ज़्यादा गाड़ी और स्पोर्ट्स में दिलचस्पी है। छोटी सी तृप्ति अब अपनी माँ और अपनी आया नीरू मासी के अलावा भी दोस्त बनाने लगी है; रोज़ नई चीजें सीखती और नए सवाल ले कर घर आती। अभी तो शुरुआत थी, तृप्ति को अभी अपनी माँ का अपने लिए चुने हुए जीवन की बहुत सी जवाबदेही पूरी करनी बाकी थी।
जब तृप्ति को बड़े स्कूल में एडमिशन करवाना था तो ये भी किसी युद्ध से कम नहीं रहा। हर जगह तृप्ति अपने टेस्ट में पास हो जाती लेकिन मैं तृप्ति की माँ इंटरव्यू के दौरान फेल कर दी जाती क्योंकि तृप्ति के पिता का परिचय नहीं था। अंत में सोर्स लगा कर ही तृप्ति का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन हो सका।
स्कूल से आ कर तृप्ति पूछती , माँ मेरे सब दोस्तों के पापा हैं मेरे क्यों नहीं है?
ये पहला सवाल था जिसकी उम्मीद भी थी मुझे और मैं इसके लिए तैयार भी थी। मैं तृप्ति से किसी भी तरह का झूठ नहीं कहना चाहती थी लेकिन बातों को ठीक से समझ सके इसके लिए सही उम्र का इंतज़ार ज़रूरी था।
आज मैंने उसके प्रश्न का जवाब दिया,  नहीं बेटा तुम्हारे कोई पापा नहीं है सिर्फ माँ है।
मेरे दोस्त कहते हैं मेरे पापा मेरे साथ नहीं तब ज़रूर स्टार हो गए हैं।
नहीं तृप्ति तुम्हारे पापा स्टार नहीं हुए तुम अपने दोस्तों से कहना तुम अपनी माँ की इच्छा से इस दुनिया में आई हो।
ठीक है माँ मैं सबको यही बताऊँगी कि तुमने भगवान से प्रार्थना की थी तभी उन्होंने मुझे तुम्हारी बेटी बना कर भेजा।
आज का सवाल-जवाब यहीं पर खत्म हो गया।
तृप्ति खुद को दूसरे बच्चों से अलग न समझे इसलिए मैंने पता नहीं कब खुद में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया था। अब मैं कभी-कभी सलवार कुर्ती और साड़ी पहनती थी, बाल भी कन्धे तक लम्बे कर लिए थे। अलग-अलग डिश बनाना तो तृप्ति को खुश करने के लिए मेरा सबसे पसंदीदा काम हो गया था।

आज ऑफिस से लौट कर देखा तृप्ति उदास है उसने बताया कुछ बच्चे एकसाथ मिल कर उसे उसके पिता न होने के कारण चिढ़ा रहे थे। वो कहते हैं तृप्ति और तृप्ति की माँ झूठी है, पापा स्टार भी नहीं बने साथ भी नहीं रहते तो फिर कहाँ हैं? कोई जवाब न दे पाने के कारण तृप्ति स्कूल में रोयी भी थी।
मेरा कलेजा फट रहा था छोटे बच्चे भी ग्रुप बना कर कितने निर्दयी व्यवहार करना सीख जाते हैं! मैंने तृप्ति को फिर समझाने की कोशिश की। उसे बताया तुम ट्यूब बेबी हो।
वो क्या होता है माँ?
उसके मासूम से सवाल के जवाब में स्पर्म बेबी समझाना और उसके लिए समझना दोनों ही कठिन था इस उम्र में।
मैंने कहा, थोड़ी बड़ी हो जाओ फिर मैं तुम्हे समझा दूंगी; अभी चलो तुम्हारे पसंद का कस्टर्ड बनाया है खा लो।

निष्ठुर दुनिया किसी को अपनी मर्ज़ी का जीवन शांति से जीने नहीं दे सकती उसमें दखलंदाज़ी किये बिना जीवन को प्रभवित किये बिना उसे चैन नहीं।
एक दिन तृप्ति स्कूल से लौट कर बोली माँ मिडिया प्रेस क्या होता है?
उसके सवाल ने मुझे मानो अँधेरे कुंए में धकेल दिया जहाँ तरह-तरह की आवाजें गूंज रही हैं, लेकिन कोई मेरी आवाज़ नहीं सुन रहा। मैं समझ गयी कि अब तृप्ति को एक स्वाभाविक ज़िन्दगी देने के लिए मुझे फौरन ये शहर और जितनी जल्दी हो सके इस देश को भी छोड़ कर निकलना होगा।

मीडिया के सवाल-जवाब और समाज की छींटाकशी मेरी बेटी का जीवन नर्क बना देगी। मध्यम वर्ग को तय किये रास्तों पर ही चलना होगा उसके बाहर अपनी मर्ज़ी से कदम रखने की कीमत मैं तो चुकाने के लिए तैयार थी लेकिन मेरी बेटी को भी चुकाना पड़े इसके लिए मैं तैयार नहीं।
विधवा अकेली औरत, भीख मांग कर दूसरों के सहारे जीवन गुजारती औरत इस समाज को मंज़ूर है। पति से प्रताड़ित होती औरत के आंसू समाज को मंज़ूर हैं, संतान सुख न दे सके ऐसा पति भी समाज को मंज़ूर है लेकिन कोई आत्मनिर्भर औरत अपनी मर्ज़ी से अपनी एक संतान पैदा करे इसे स्वीकार करना सीखने में अभी भी इस समाज को बहुत देर है।
मैंने जल्दी ही वो शहर छोड़ दिया और साल भर के अंदर ही नई नौकरी के साथ कनाडा शिफ्ट हो गयी। यहां तृप्ति को रोज़ ऐसे सवालों का सामना नहीं करना पड़ता तृप्ति और तृप्ति की माँ मैं, हमदोनों दुनिया के सबसे सुंदर रिश्ते माँ और संतान के रिश्ते के बेहद सुखद पलों को जी रहे हैं।
मैं अपने देश अपनी संतान के साथ लौटना चाहती हूँ। वो दिन भी ज़रूर आएगा जब तुषार कपूर, करन जौहर की तरह तृप्ति की माँ को भी समाज ख़ुशी-ख़ुशी अपनाएगा। सवालों के कठघरे में खड़ा नहीं करेगा।




Sunday 19 March 2017

अनाधिकार प्रवेश :रबिन्द्रनाथ टैगोर

मूल कहानी : अनाधिकार प्रवेश
लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर
बाँग्ला भाषा से अनुदित



किसी एक सुबह सड़क के पास खड़े हो कर एक लड़का एक दूसरे लड़के के साथ एक अतिसाहसिक कार्य से सम्बंधित शर्त रख रहा था। ठाकुरबाड़ी के पुष्पवाटिका से फूल तोड़ सकेगा या नहीं, यही उनके तर्क का विषय था। एक लड़का बोला, ‘सकेगा’ और दूसरा लड़का बोला ‘कभी नहीं सकेगा’।
ये काम सुनने में तो बहुत आसान है लेकिन करना उतना सहज नहीं, ऐसा क्यों है ये समझाने के लिए थोड़ा और विस्तार से बताना आवशयक है।
स्वर्गवासी माधवचन्द्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी राधानाथ जी के मन्दिर की उत्तराधिकारिणी हैं। अध्यापक महाशय को तर्कवाचस्पति उपाधि मिली ज़रूर थी लेकिन वो कभी अपनी पत्नी के सामने ये सिद्ध नहीं कर पाये थे। कुछ पंडितों का कहना था कि उनकी उपाधि सार्थक हुई थी क्योंकि सारे तर्क और वाक्य सबकुछ उनकी पत्नी के हिस्से ही आये थे और वो पतिरूप मे इसका फलभोग कर रहे थे।
सत्य तो यह था कि जयकाली ज़्यादा बात नहीं करती थी लेकिन बहुधा सिर्फ दो बातों में, कभी-कभी तो नीरव रह कर भी बड़ी-बड़ी बात करनेवालों की बोलती बन्द कर देती थी।
जयकाली दीर्घाकार, बलिष्ठ देहयष्टि, तीक्ष्णनासिकायुक्त प्रखरबुद्धि महिला थी। उनके पति के जीवित रहते ही उन्हें प्राप्त देवोत्तर संपत्ति उनके हाथ से निकली जा रही थी। किन्तु विधवा जयकाली ने अपनी समस्त बक़ाया संपत्ति वसूल कर उसकी सीमा-सरहद भी तय कर दी, जो उसका प्राप्य है कोई भी उसमें से एक रत्ती भी उसे वंचित नहीं कर सकता था।
इस महिला में बहुमात्रा में पौरुष होने के कारण उसका कोई संगी-साथी नहीं था। दूसरी स्त्रियां उससे भय खाती थीं। परनिंदा, छोटी बात या फिर बात-बात पर रोना-धोना उसके लिए असहनीय था। इतना ही नहीं पुरुष भी उससे भय ही खाते थे; क्योंकि ग्रामवासी चण्डीमण्डप में बैठ कर आलस्य से भरे गपबाजी में जो दिन बिताते थे उसे वो नीरव घृणापूर्ण कटाक्ष द्वारा धिक्कारती थी जो उनके स्थूल जड़त्व को भी भेद कर उनके ह्रदय में छेद कर देती थी।
प्रबल रूप में घृणा करना और उसी रूप में उसे प्रकट करने की असाधारण क्षमता थी उस प्रौढ़ा विधवा में। उनके विचारदृष्टि में यदि कोई अपराधी ठहरता तो उसे बातों से बिना बातों के भी भाव-भंगिमा से ही दग्ध कर देती थी।
गाँव के सारे कार्यक्रमों, आपदा-विपदा में उपस्थिति रहती। हर जगह वो अपने लिए एक गौरवपूर्ण सर्वोच्च स्थान बिना चेष्टा के ही प्राप्त कर लेती थी। जहां भी उनकी उपस्थिति रहेगी सबके बीच उन्हें ही प्रधान-पद मिलेगा इस विषय में न उनको और न ही दूसरों को कोई संदेह रहता।

रोगी सेवा में सिद्धहस्त थी लेकिन रोगी उनसे यमराज की भांति डरता। रोगमुक्त होने के लिए नियमपालन में लेशमात्र भी उल्लंघन जयकाली देवी की क्रोधाग्नि रोगी के बुखार से भी अधिक तप्त कर देती थी। दीर्घाकार ये महिला गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियमदंड की तरह सदैव उपस्थित रहती; कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकता था और न ही उनसे प्रेम करता था। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति से उनका योगसूत्र था लेकिन फिर भी उनके जैसी एकाकी महिला और कोई नहीं थी।

जयकाली देवी निसंतान थी। मातृ-पितृहीन अपने भाई की दो संतानों को लालन-पालन के लिए अपने घर ले आई। घर में कोई पुरुष अभिभावक न होने के कारण उन दोनों पर कड़ा अनुशासन नहीं था और स्नेहान्ध बुआ के प्रेम से दोनों बिगड़ते जा रहे हैं ऐसी बात कोई नहीं कह सकता था। उन दोनों में से बड़े की उम्र अठारह वर्ष थी। कभी-कभी उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे और परिणयसूत्र में बंधने के प्रति उस किशोर का मन भी कदाचित उदासीन नहीं था लेकिन उसकी बुआ ने इस सुखवासना को एक दिन के लिए भी प्रश्रय नहीं दिया। अन्य महिलाओं की भांति किशोर नवदम्पत्ति के नवप्रेमोदगम दृश्य उनकी कल्पना में बहुत उपभोग्य, मनोरम जैसा कुछ नहीं था। और उनका भतीजा विवाह कर दूसरे पुरुषों की तरह दिनभर घर में पड़े रह कर पत्नी के प्रेम आह्लाद में खा-पी कर मोटा होता रहे- ये सम्भावना उनके सम्मुख असंभव प्रतीत होती थी। वो बहुत कड़े शब्दों में कहतीं- पुलिन पहले उपार्जन करना शुरू करे, उसके बाद ही बहू घर आएगी। बुआ के इतने कठोर वाक्य सुन आगंतुकों का हृदय फट जाता।
ठाकुरबाड़ी (मन्दिर) जयकाली देवी के लिए सर्वप्रमुख और यत्नशील धन था। भगवान के शयन, स्नान-आहार में तिलमात्र की त्रुटि भी असहनीय थी। पुजारी ब्राह्मण भी अपने दो देवताओं की अपेक्षा इस मानवी से सबसे ज़्यादा भय खाते थे। पहले, एक समय था जब स्वंय देवता के नाम से निकला हिस्सा भी उन्हें पूरा नहीं मिलता था। कारण; पुजारी ब्राह्मण की एक और पूजक-मूर्ति गोपनीय मन्दिर में थी; उसका नाम निस्तारिणी था।छुपा कर घी-दूध, छेना, मैदा, नैवेद्य स्वर्ग और नर्क में बराबर बाँट दिया करता था।लेकिन आजकल जयकाली के सामने देवता को उनके हिस्से का सोलह आना पूरा ही भोग चढ़ा दिया जाता है, उपदेवता को जीविका के लिए अब अन्यत्र उपाय देखना पड़ रहा है।
जयकाली की सेवा और यत्न से मन्दिर प्रांगण साफ-सुथरा झकझक करता है– कहीं एक तिनका भी पड़ा नहीं रहता। प्रांगण के पार्श्व में माधवी लता उग आयी है। उसके यदि एक भी सूखा पत्ता गिरे तो जयकाली तुरन्त उसे उठा कर बाहर फेंक देती है। मन्दिर की परिपाटी, शुद्धता और पवित्रता में लेशमात्र भी व्यवधान होने पर जयकाली देवी उसे सहन नहीं कर पाती थी। पहले गाँव के लड़के छुपा-छुपी खेलते हुए इसी प्रांगण में आश्रय लेते थे लेकिन अब ये सुयोग सम्भव नहीं। पर्व-उत्सव के अतिरिक्त मन्दिर प्रांगण में ऊधम मचाने की अनुमति किसी को नहीं। कभी-कभी बकरी शावक भी घुस आते थे पौधे लता-पत्ता खा कर अपनी भूख मिटाने के लिए, लेकिन अब यहां पाँव धरने पर दंड प्रहार खा कर मीमियाते हुए भागना पड़ता है।
अनाचारी व्यक्ति चाहे वो परम आत्मीय सम्बन्धी ही क्यों न हो उसका मन्दिर प्रांगण में प्रवेश नहीं हो सकता था। जयकाली की एक भगिनी का पति, जो खान-पान में धर्मच्युत, मांस लोलुप था आत्मीयतापूर्वक भेंट करने आया, किंतु जयकाली के त्वरित प्रवेश-विरोध प्रदर्शन पर सगी बहन से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। इस मन्दिर से सम्बंधित अनावश्यक अतिरिक्त सतर्कता सामान्य व्यक्तियों के बीच पागलपन ही माना जाता था।
जयकाली बाकि हर जगह कठोर, दृढ और स्वतन्त्र थी, मात्र इस मन्दिर में वो सम्पूर्ण आत्मसमर्पित थी। इस मूर्ति के सामने जयकाली जननी, पत्नी, दासी—इनके सामने वो सतर्क, सुकोमल, सुंदर और नम्र थी। एकमात्र इस मन्दिर प्रस्तर और अंदर विराजे देवता के सामने ही जयकाली का निगूढ़ नारीस्वभाव चरितार्थ होता था, यही उसका स्वामी, पुत्र और समस्त संसार बन गया था।
इतना जानने के बाद पाठक अब समझ सकते हैं कि मन्दिरप्रांगण से फूल तोड़ कर दिखाने की प्रतिज्ञा करनेवाले लड़के के साहस की सचमुच कोई सीमा नहीं थी। वो जयकाली का छोटा भतीजा नलिन था। वो अपनी बुआ को बहुत अच्छी तरह जानता है फिर भी उसकी दुर्दांत प्रकृति, बुआ के अनुशासन के वश में नहीं आयी। जहाँ भी विपदा हो उसका आकर्षण भी वहीं होता, और जहाँ अनुशासन वहीं उसका मन उसे लंघित करने को चंचल हो उठता। जनश्रुति है, नलिन की बुआ भी अपने बाल्यकाल में उसी के स्वाभाव की अभिरूप थी।
जयकाली उस समय मातृ स्नेहमिश्रित भक्ति भाव सहित देवता की ओर दृष्टि टिकाये दालान में बैठ कर माला जाप कर रही थी।
लड़का दबे पाँव चुपचाप पीछे से आ कर माधवी लता के निचे खड़ा हो गया। देखा, निचली शाखाओं के फूल देवता को चढाने के लिए तोड़ लिए गए हैं, तब बहुत ही धीरे धीरे सावधानी से मंच पर चढ़ गया। ऊँची डाल पर छोटी-छोटी कलियाँ लगी हुई थीं, उन्हें ही तोड़ने के लिए उसने अपने शरीर और बाहों को ऊपर उठाना शुरू ही किया था की जीर्ण मंच मचमच की आवाज़ के साथ टूट कर टुकड़े हो गया। मंच से झूलती लताएँ और नलिन दोनो ही एक साथ भूमिसात हो गए।
जयकाली दौड़ कर आयी और अपने भतीजे के काण्ड की दर्शक बनी। ज़ोर से उसकी बाँह पकड़ उसे ज़मीन से उठाया। नलिन को काफी चोट आयी थी लेकिन उन चोटों को पर्याप्त सजा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो अज्ञात ही मिल जाता है ऐसा जयकाली देवी का विचार था, इसलिए उस चोटिल लड़के पर बुआ की कठोर मुष्टि का प्रहार भी पड़ने लगा। लड़के की आँख से एक बून्द आंसू नहीं टपका तब उसे खींचते हुए एक कमरे में ला कर बन्द कर दिया गया इतना ही नहीं आज शाम का नाश्ता भी न देने का आदेश हो गया।
खाना बन्द होने का आदेश सुन दासी लीलामति छलछलाती आँखों के साथ बच्चे को क्षमा कर देने का अनुरोध करने लगी किन्तु जयकाली का मन नहीं पसीजा। उस घर में ऐसा कोई दुःसाहसी नहीं था जो ब्राह्मणी के आदेश की अवमानना कर उस भूखे बच्चे को कुछ भी छुपा कर खिला सके।
जयकाली नया मंच बनाने का आदेश दे पुनः माला जाप करने दालान में आ कर बैठ गयी। कुछ देर बाद लीलामति पुनः उपस्थित हुई, बोली लड़का भूख से रो रहा है उसे कुछ खाने के लिए दे दूँ?
अविचलित एक शब्द में उत्तर मिला, नहीं! लीलामति चुपचाप लौट गयी। पास ही एक कमरे में बन्द नलिन के रोने का करुण स्वर धीरे-धीरे क्रोध गर्जना में परिवर्तित होने लगा—अंत में बहुत देर बाद उसका कातर रुद्ध कंठस्वर माला जपती हुई बुआ के कान तक पहुंचा।
नलिन का रुदन जब परिश्रांत और मौनप्राय हो आया ठीक तभी एक दूसरे प्राणी की डरी हुई कातर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी और उसके साथ ही एकसाथ दौड़ते हुए चीत्कार करते कुछ लोगों की कलरव ध्वनि मन्दिर के सम्मुख उपस्थित हुई।
सहसा मन्दिर प्रांगण में पदध्वनि हुई। जयकाली पीछे मुड़ कर देखी, भूमि तक माधवी लता हिल रही है।
मृदु स्वर में जयकाली आवाज़ दी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। समझी, किसी प्रकार बन्दीगृह से पलायन कर फिर से उन्हें तंग करने यहां पहुँच गया है।
अपनी मुस्कान होंठों को दबा कर छुपाते हुए प्रांगण में उत्तर आयी।
लताकुंज के पास जा कर पुनः आवाज़ लगायी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। एक शाखा हटा कर जयकाली ने देखा, एक शूकर प्राणभय से आक्रांत हो घने लताकुंज में आश्रय ले कर छुपा है।
जो लताकुंज इष्टदेवता के वृन्दावन का प्रतिरूप, जिसकी खिली हुई कलियों की सुगन्ध गोपियों के श्वास सुरभि की याद दिलाती है और कालिंदी तट के सुखविहार, सौंदर्यस्वप्न को जागृत करती है--- जयकाली के प्राणों से भी अधिक यत्न से पवित्र बनाये रखे इस नंदनभूमि पर अकस्मात ऐसी वीभत्स घटना घट गयी!
पुजारी लाठी हाथ में ले दौड़ा आया।
जयकाली तुरंत ही अग्रसर हो उसे रोक दी और द्रुतगति से मंदिर का मुख्यद्वार अंदर से बन्द कर दी।
सुरापान से उन्मत डोम दल मन्दिर द्वार पर आकर चिल्लाने लगे उन्हें उनका बलि-पशु वापस चाहिए!
जयकाली बन्द द्वार के पीछे से ही चिल्ला कर बोली, ‘जाओ, यहाँ से भाग जाओ! मेरा मंदिर अपवित्र मत करो!
डोम दल वापस लौट गया। जयकाली ब्राह्मणी अपने राधानाथ जी के मन्दिर में एक अशुचि प्राणी को आश्रय देगी, ये प्रत्यक्ष देख कर भी किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
इस सामान्य सी एक घटना ने अखिल जगत के महादेवता को भले ही परम प्रसन्न किया होगा किन्तु समाज नामधारी अतिक्षुद्र देवता बहुत क्षुब्ध हो गए।

Tuesday 7 March 2017

मौलिक अधिकार और भिखारी दुसाद, (बांग्ला) लेखिका : महाश्वेता देवी

मूल कहानी : मौल अधिकार ओ भिखारी दुसाद  (बांग्ला)
लेखिका : महाश्वेता देवी
रचनावली :  महाश्वेता देवीर छोटो गोल्पो संकलन


ये स्थान है नवागढ़ के सीमान्त और बस-पथ के ऊपर. नवागढ़ एक छोटा-मोटा स्टेट या एक बड़ी ज़मींदारी थी. वहाँ के जमींदार को ‘राजा’ का ख़िताब मिला था और उस जमींदार की उम्र स्वाधीनता वर्ष में थी मात्र एक साल, फिर भी वो राजा साहेब ही पुकारे जाते थे. रजवाड़ी खत्म होने के बाद भी राजा साहेब सम्बलहीन नहीं हुए थे, राज्य हस्तांतरण के दौरान बहुप्रचलित नियम के अंतर्गत बीस-पचीस देवी-देवताओं के नाम से खास ज़मीन अलग की गयी थी जो उन्ही के अधीन हुई. फिर भी राजा साहेब पर चरम अन्याय घटित हो ही गया, राज्य सरकार एक पाप कर बैठी. बस और रेल पथ योजना के तहत राज्य और केंद्र सरकार ने वो ख़ास ज़मीन अधिग्रहण कर ली.

राजा साहेब की किशोरावस्था में ये घटना होती है, तब राजमाता और उनका काबिल वकील इस दुःख से विह्वल हो कर रांची, पटना के वकीलों से परामर्श करते हैं साथ ही राजा साहेब की गुज़र-बसर की व्यवस्था के प्रयास में आबादी-जंगल-कटाई-ठेकेदारी और टिम्बर कारखाना, लॉरी-ट्रांसपोर्ट व्यवसाय की नींव रखी जाती है फिर शुरू होती है अन्याय के विरुद्ध कानूनी लड़ाई.

लगता है, राजा साहेब का छह सालों से चल रहा विरोध रंग लाया है, आज नवागढ़ में धूम मची है, प्राथमिक विद्यालय, राजमाता ट्रांसपोर्ट की छुट्टी है. राजा साहेब के आवास “सुर निवास” से नाना मिष्ठान की थालियाँ रंगीन कागज़ से ढ़क कर टेहरी कचहरी, मंदिर आदि जगहों पर सौगात भेजी जा रही है.
बहुत दिनों बाद आज नवागढ़ के लोग स्वच्छंद अनुभव कर रहे हैं राजा साहेब ने घोषणा की है ख़ुशी मनाओ, धूम मचाओ घर-घर दीप जलाओ –- अपने अपने खर्चे पर. खुशी का वैसा रूप न होने पर भी आज लोग हल्का महसूस कर रहे है.


पिछले आठ सालों से राजा के आदमियों और बटाईदारों के बीच भीषण तनातनी दिखायी देती आयी है. पहले राजा के आदमी उन्हें पिटते हैं फिर पुलिस आती है जो बटाईदार, नेता-अगवाई करने वाला लगता, उसे पुलिस उठा कर ले जाती लेकिन पिछले दस महीनों से कुछ बदल सा गया है, पहले यहाँ पुलिस पहरे पर नहीं बिठायी जाती थी, अब पुलिस बैठ गयी है.

ऐसा ही होता आ रहा है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी है ये घटनाएं भी उतनी ही पुरानी हैं. इस बीच बटाईदारों की संख्या भी बढ़ी है और खेत-बट्टा अधिकार विषय में उनकी चेतना भी बढ़ी है. उनकी इस चेतना के पीछे किसी तीसरी शक्ति का ही हाथ है ये पुलिस का संदेह है... “तीसरी शक्ति है बाकि कोई एक दल-संगठन नहीं.... कौनो कमनिस, कौनो आदिबासी स्वार्थ संरक्षक, कौनो उग्रपंथ, जौनो रहे साला सबे इ गरीब किसानों का ही मदद देत है.”
इसी में सब गड़बड़ लगता है, तीन महीने पहले बटाईदारों ने जो लड़ाई की उसमे वो लोग एक कपड़े पर लिखे थे – “मेहनत की फसल के आधा बट्टा पर, हमलोगों का मौलिक अधिकार है”
उस कपड़े को दोनों छोर से बाँध उसे हाथ में ले कर जुलूस में घूम रहे थे.
लिखी हुई बातें बहुत ही आपत्तिजनक थीं. बटाईदार, ये बटाईदार किसान राजा साहेब से कहेंगे श्रमोत्पादित फसल पर उनका न्यायिक अधिकार है? ये तो ठीक नहीं, और उनमें से लिखना कौन जानता है? किसने लिखा ये सब?
राजा साहब खुद को घोर वंचना का शिकार मान रहे. अन्याय! अन्याय हुआ है उनके साथ. वो शोषित, अत्याचारित हैं. सरकार ने उनकी ज़मीन ले कर बस और रेल पथ बना दिया जिसकी वजह से ही आज उनकी राजमाता ट्रांसपोर्ट की लॉरी से उसी रास्ते पर लकड़ी-कोयला,अनाज- उनके कुली ढ़ो रहे है. रेलगाड़ी वैगन से उनके कारखाने में चिरी हुई लकड़ियाँ जाती है , ये कितनी ओछी बात है. अभी इस अन्याय का प्रतिकार हुआ ही था कि अब इन बटाईदारों ने सरकारी श्रम-विभाग के नियमानुसार फसल में हिस्सा चाहिए का नारा लगाना शुरू कर दिया!

इस बार बटाईदारों ने राजा साहेब के आदमियों को फसल उठाने नहीं दिया, कहा ... मारो सालों को! और मारते-मारते मथुरा सिंह को जख्मी कर दिया तब चन्दनमल के हाथों से बन्दूक छिन कर खुद राजा साहेब को गोली चलानी पड़ी और उनके दल के बहुत से लोग मारे गये.

ये तो होता है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी ,उतनी ही पुरानी ये घटनाएँ भी है.
यहाँ बच्चों को सुलाते हुए दादी परीकथा की तरह ये कहानी सुनाती है.... उसके बाद आये राजा साहेब, बोले... का बुधिया, इ का खचड़ाई है रे? तोहार दादा बोले, का खचड़ाई, फसल दिया करो और अपना हत्यारा सिपाही लोगन को जाने बोलो. उसके बाद राजा साहेब की गोली चली. मार दिए तोहार दादा के, फट गईल कलेजा और खून निकला ऐसे जैसे भादो म गंगा जी में पानी.

यही होता है, होता ही रहा है. ज़मीन के धनी मालिक और खेत मजदूर किसानों की कहानी में ऐसा ही होता है. कोई इस कहानी को बदल नहीं सकता.

लेकिन इस बार कहानी में थोड़ा फर्क था. मारते- मारते, मार खाते-खाते भी स्लोगन दे रहे थे;
“मेहनत की फसल पर
आधा बट्टा पर
हमलोगों का
मौलिक अधिकार है...”
ऐसी घटना नवागढ़ की माटी के जीवनकाल में कभी नहीं घटी थी, फलस्वरूप पुलिस बैठा दी गयी. दुखिया की लाश चालान हो गयी, जख्मी लोग अस्पताल में भर्ती कर दिये गए. शांतिभंग और क़ानून उल्लंघन का केस बटाईदारों के नाम हो गया. अचानक ही एक और नया काण्ड घट गया; बटाईदार यूनियन ने भी अदालत में केस लड़ने की अर्जी दाखिल कर दी.
इन सब कारणों से नवागढ़ तीन महीने तक पुलिस पहरा के दबाव में रहा. इसी बीच राजा साहेब को उनके ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार मिला, घुटन भरी हवा मानो कुछ हल्की हुई. क्या हुआ इस केस में अब चारों ओर यही चर्चा है.

इन सबके बीच भिखारी दुसाध हो कर भी नहीं है , कोई उसे नहीं पूछ रहा. पूछने जैसा कुछ है भी नहीं अत्यंत ही भीरु और निरीह है. घूम-घूम कर बकरी चराना ही उसका काम है. ये मवेशी ही उसके जीने का एकमात्र सहारा हैं. इनकी देखभाल और खाना भी अत्यंत साधारण है. बकरियां हर तरह के पत्ते और घास खा लेती हैं. साल में एकाधिक बार और एकाधिक बच्चे भी पैदा करती हैं. कोई और होता तो इन्ही मवेशियों से अपनी किस्मत संवार लेता लेकिन भिखारी दुसाध की किस्मत! उसकी बकरी परिवार की परिकल्पना – दो बकरी एक बकरा, नहीं तो एक बकरी दो बकरा—इससे ज्यादा बढ़ती ही नहीं.
क्या करे! भिखारी की किस्मत —-- जंगल में चराने जाये तो सियार, लकड़बग्घा ले जाये. बाज़ार में बेचने जाये तो कोई सही दाम ही न दे. भिखारी लोगों के बीच से ऐसे चला जाता है मानों अपने अवांछित अस्तित्व पर वो खुद ही लज्जित हो.

कभी-कभी भिखारी को अपने मवेशी उठा कर भागते हुए जंगल की तरफ जाते भी देखा जाता है. चेहरे पर डर की गहरी छाप. आतंक से उसकी जीभ सूख जाती है, होठों के कोने में झाग जम जाता है. पहले-पहल लोग उसकी हालत देख अवाक् रह जाते थे.
का हुआ रे, भिखारी?
पुलिस आई - पुलिस
तो इससे तुझे का?
बकरा उठा ले जायेगा उ लोग.
पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता है. मवेशी के दुश्मनों के बीच ही जंगल में लकड़ी काट झोपड़ा तैयार कर के उन्हें अंदर रख खुद उसके मुहाने पर बैठा डर से काँपता रहता.
सम्पत्ति के नाम पर और तो कुछ भी नहीं है उसके पास, न घर न ज़मीन-जायदाद न बीवी-बच्चे बस यही जो कुछ बकरी है. पहनने को एक टुकड़ा धोती और दिन भर मवेशी के पीछे भागना यही उसका काम. ये भी कुछ बुरा नहीं इसमें भी वो सपने देखता है --- अगर उसके पास दस-पंद्रह बकरियां हो जाये तो वो उन्हें सुमाडी हाट में बेच आएगा बहुत अच्छे दाम पर सिर्फ एक गाभिन बकरी रख लेगा. उसके बाद एक बड़ी धोती और एक गमछा साथ में एक कंघी खरीदेगा. दुसाध टोला में खोज कर एक अच्छी विधवा, बड़ी उम्र की औरत से शादी भी करेगा दोनों मिल कर मवेशी पालेंगे तब उनकी संख्या और बढ़ेगी. फिर उसका भी एक जमीन और घर होगा.

लेकिन भिखारी का ये सपना कभी पूरा नहीं होता. बाड़ा गाँव में दुसाध लोग अच्छे ही थे, पता नहीं क्या हुआ बाड़ा के गणेशी सिंह के साथ, उन्होंने उसे मार डाला. पुलिस वहाँ बैठा दी गयी, वो लोग भिखारी और दूसरे दुसाधों के बकरा-बकरी उठा कर ले जाने लगे.
भिखारी कितना रोया गिड़गिड़ाया लेकिन पुलिस कुछ नहीं समझती. अंत में राका दुसाध ने कहा अपनी गाभिन बकरी को ले कर दूर भाग जा, नाडा गाँव में कोई गड़बड़ नहीं है वहाँ मैदान में चराना और बरगद के नीचे रहना.
भिखारी बरगद के नीचे झोपड़ी बना कर रहने लगा. नाडा के मालिक राजपूत हैं, सब हट्टे –कट्टे मांस खाने वाले लेकिन वो लोग कभी भिखारी से छिन कर नहीं खाते जब भी बकरा चाहिए पैसे दे कर खरीदते है. आठ रुपया दस रुपया .... लेकिन सबका किस्मत में सुख कहाँ!
फिर एक दिन वहाँ का राजपूत होली के दिन गाना गाने आई एक औरत को गोली मार दिया. बस! पुलिस आ कर बैठ गयी. पुलिस आते ही राजपूत लोग बोला भिखारी के पास से एक बकरा ले आओ. तीन दिन तीन बकरा देने के बाद भिखारी वहाँ से भाग गया.

सबके लिए ये दुनिया बहुत बड़ी न भी हो लेकिन भिखारी के लिए बहुत ही छोटी हो गयी थी. नाडा के बाद डांगा गाँव रहने चला आया. डांगा के शिव मंदिर के पुजारी हनुमान मिश्र को प्रणाम कर आया था.
क्या रूप-रंग!! मानो देह से रौशनी फूट रही हो. हाँ तो ऐसा देखने में कैसे न होई? देउता दूध पीते हैं, दूध में स्नान करते है, रोजे महादेव से बात करते है.

भिखारी वहाँ के जंगल में दुसाध टोली में बहुत खुश था सभी उसको अपना लिए थे, कहते थे यहीं रुक जाओ, शादी भी करा देंगे लेकिन ....
देउता के पास एक दिन दरोगा आया. सात दिन वहीं रह गया, भिखारी के देउता बोले, भिखारी दुसाध! दरोगा को बकरा खाने दो.
ये तो बचने जा रहा था देउता.
क्या? पुलिस दरोगा देव-देवता के स्थान के बाद ही होता है, उसे खिलाने में पैसे की बात करेगा?

बकरा भेंट चढ़ा कर डांगा गाँव भी छोड़ दिया भिखारी दुसाध.
डांगा गाँव के दुसाध लोग दुखी हो रहे थे लेकिन क्या करे भिखारी? उसका तो खेत मजदूरी का काम नहीं है. ये बकरी ही उसकी आजीविका है. पालना, बेचना, फिर पालना और फिर बेचना. पर पुलिस उसकी एक मात्र आजीविका का साधन बार-बार नष्ट कर देती है.
यहाँ के लोग, भिखारी गरीब है इसलिए कभी उसे छोटा नही समझे अपना साथी माना, अपने साथ खिलाया-पिलाया.

सब छोड़ कर अंत में आना पड़ा नवागढ़. यहाँ के प्राइमरी स्कूल मास्टर सुखचाँदजी बहुत अच्छे आदमी है. स्कूल के पास वाले बरगद के पास बैठ कर भिखारी से बहुत बातें करते है. उनकी उमर भी कम है, गाँव की रीती-निति नहीं समझते इसलिए कहते है, रात में तो बड़ा-बुढ़ा को पढना सिखाते हैं तुम उसी में चले आना.

का किया जाये महाराज़? भिखारी को आप पढना सिखायेंगे बस!! भागो भिखारी नवागढ़ से. राजा साहेब भगाएगा, पुलिस चला आयेगा, लाला जी सौदा नहीं बेचेगा, कुआँ से पानी नहीं मिलेगा.
सुखचाँद बोले कैसे?
कैसे नहीं? एक टौर्च देख कर हम पूछल रही, उकर दाम केतना हो, ए लालाजी? त लाला, कितना गुस्सा हो गईल. कहत रहीं, का भिखारी! दुसाध हो कर तू, छोटा काम करनेवाला, अभी का टोर्च जलाएगा?
नवागढ़ में भिखारी का एक नया घर बना है, राजा साहेब के वकील कबाड़ हुए बस, लॉरी लोहा लक्कड़ के दाम बेच देते हैं. जब तक न बेचे तब तक वही घर है और उसके पडोसी हैं कुछ भिखमंगे. वहीं पर बड़े-बड़े घास भी उग आये हैं जो भिखारी की बकरियों के लिए पर्याप्त है.
 जंगल में बैठ कर यही सब सोचता रहता है, सोचता और सोचता ही रहता है. पुलिस लालाजी की दूकान नहीं लुटता, ग्वाला की गाय नहीं छीनता. जिसके पास जो है उसे रहने देता है फिर उसकी बकरियां क्यों छिन लेते हैं! इसके अलावा तो उसके पास और कुछ भी नहीं है.

अपने मवेशियों को जंगल के उस झोपड़ी में राम जी से प्रार्थना कर उनके हवाले रख कर कांपते ह्रदय से नवागढ़ अपने नये डेरा में पहुँच जाता है. ऐसे समय में लंगड़ा, कानी और कुष्ठरोगी लड़का सब उसकी बहुत मदद करते है, उसे बता देते हैं पुलिस यहाँ है तो भाग जाओ.
राम जी जब कृपा करते हैं तब उसके मवेशी सही सलामत मिलते हैं, जब राम जी उसकी अर्जी भूल जाते हैं तब कभी लकड़बग्घा ले जाता है तो कभी सांप काट लेता है. कभी-कभी तीन-तीन महीने नवागढ़ में पुलिस रह जाती है तब भिखारी रोज़ ही जंगल और नवागढ़ आना-जाना करता है.

इस बार तीन महीने तक पुलिस यहाँ रह गयी, भिखारी तो जंगलवासी ही हो गया था, एक दिन जंगल के किनारे-किनारे चलते हुए पहुँच गया बाड़ा गाँव की ओर. वहाँ जंगल में उसे बांका दुसाध मिला, उसने भिखारी की बहुत मदद की. तीन-चार और दुसाध लड़कों के साथ जंगल में घुस कर एक बहुत मजबूत झोपड़ा बना दिया और भिखारी से बोला यहीं रह जाओ, यहाँ उस नाले से पानी भी मिल जायेगा.
खाऊंगा क्या?
पैसे दो, खरीद लाता हूँ.
ये लो.
कुछ दिन बाद बांका बोला, कितने दिन रहना हो क्या पता! उस बकरे को बेच दो।
कहाँ?
हाट में.
भिखारी बोला, लेकिन मैं कभी वहां गया नही.
विश्वास कर सको तो मुझे दो.
बकरा बेच कर बांका उसके हाथ में साठ रूपये पकड़ा दिया। इतने रूपये देख भिखारी खुद को राजा समझने लगा. इन्ही तीन महीनों के बीच उसकी बकरी एक और बच्चा देती है. भिखारी उसे भी बेच कर अपनी खुराकी के इंतज़ाम का पैसा बांका के हाथ देता है.
बांका बोलता है अभी तो पुलिस नहीं है, बीच-बीच में टोली में आ कर सबसे मिल जाया करो.
बाडा टोली में ही एक दिन कनू दुसाध बोला नवागढ़ से पुलिस चौकी उठ रही है.
सुन कर भिखारी सोचा अभी ही चले जाना अच्छा है. बकरी परिवार अभी कुल आठ है—दो बकरी, दो बकरा, बछड़ा चार.
बांका बोला, चले जाने दो, उसके बाद तुम जाना.
पुलिस चली गयी, चौकी उठ गयी। भिखारी भी नवागढ़ के लिए रवाना हो गया. बहुत खुश था अपने बस वाले डेरा में लौटते हुए, उसे देख कर उसके भिखमंगे पड़ोसी भी खूब खुश हुए.
कानी उसकी जगह पर झाड़ू मार कर साफ कर देती है. एक आँख से सब देखने के बाद बोली, देख ले भिखारी सब है न?
हाँ,हाँ! सब है. घास की बनी चट्टी, गली-टूटी बोतल, टिन का पीपा.
खबर है भिखारी!
क्या?
दोरा भाग गया.
कहाँ?
सुमादि। वहां हाट में बैठने पर ज़्यादा पैसा मिलेगा और लँगड़ा क्या किया मालूम? डालि को भगा कर एक दूसरी लड़की लाया है।
और तू?
मुझे कौन लेगा बोल? एक आँख से दिखता नहीं, दोनों आँखे अंधी होतीं तो पैसा मिलता और इतनी बूढ़ी भी नही हुई अभी.
इसलिए इंसान की तरह मेहनत कर के नहीं खा सकती?
कम मेहनत करती हूँ? भीख मांगने तोहरी तक पैदल चल के जाती हूँ, कम मेहनत है क्या?
बाप रे! कितना सारा बकरा-बकरी रे भिखारी!
हाँ कल ही जा कर हाट में बेच आऊंगा.
नवागढ़ की और ... खबर है रे भिखारी!
क्या?
राजा साहेब को क्या तो मिला है सरकार की तरफ से. खूब हुल्लड़ और खुशहाली मना रहा सब. आज रात में पटाखा भी फोड़ेगा.
तुमलोगों का तो मज़ा हो गया.
नहीं, नहीं! ये लोग झूठे पत्तल पर कुछ नहीं छोड़ेंगे कि हमलोग कुछ खा सकें. खाने मिला था तोहरी के बैजनाथ लाल की माँ जब मरी थी. इतना-इतना पूड़ी कचौड़ी.
अरे कहाँ जा रहा भिखारी?
एकबार सुखचांद जी से मिल आएं.
सुखचांद जी भिखारी दुसाध जात और बकरी चराता है इसलिए घृणा नहीं करते. नवागढ़ में आने के बाद से किसी ने भी भिखारी से नही पूछा, भिखारी! कहाँ था इतने दिन? वो जो यहां रहता भी है ये भी कभी किसी की नज़रों में नही आया.

का किया जाये महाराज? ये तो होता ही है, होते ही रहता है. बकरे का मांस और दूध वो भी बहुत सस्ते दाम पर चाहिए तब भिखारी की ज़रूरत होती है. लेकिन इसका मतलब उसे किसी गिनती में रखा जाये ... नहीं, ऐसा क्या कभी होता है! ये कहानी बहुत पुरानी, नवागढ़ के माटी से भी पुरानी.

सुखचाँद जी का स्कूल आज बन्द है. सुखचांद बरगद के नीचे बैठ कर ग्वाल मोतिहार और भकत को बहुत मन से कुछ समझा रहे हैं. नवागढ़ के ग्वालों के पास बहुत धन है. सुखचांद की उम्र कम है समझाने बताने का उत्साह बहुत ज़्यादा.

आओ, आओ भिखारी, कब आये?
आज भोरे सुखचांद जी.
रामजी जैसे रखे। आप ठीक है न?
हाँ भिखारी। बैठो-बैठो.
भिखारी थोड़ा हँस कर, उन सब से दूर जा हाथ जोड़ कर बैठ गया. ग्वालों के पैर में नगड़ा, कान में पीतल की रिंग, हाथ में लाठी, सर पर पगड़ी, उन्हें देखने से ही डर लगता है भिखारी को.

मोतिहार भिखारी के आगमन से बेपरवाह बोला, ना, ना सुखचांद जी, फिर से बताइये.
शुरू से?
हाँ हाँ!
बताया तो....
फिर भी समझ नहीं आया. राजा साहेब की ख़ास ज़मीन पर से रेल लाइन बिछाई गयी, बस के लिए सड़क बनी, ये तो होता ही है। क्या भकत! सरकार क्या आसमान पर लाइन खींच रेल और बस के लिए रास्ता बनाएगी, ऐसा कहीं होता है?
हाँ मोतिहार, एकदम ठीक!
तो फिर राजा साहेब इसके लिए मामला क्यों किये? यही बात समझ नहीं आ रही.
सुखचांद बोला,क्यों नहीं करेगा? देखो, वो ज़मीन किसकी थी? राजा साहेब की थी?
हाँ, तो! अरे कितनी, कितनी सारी जमीन है उनकी.
उस जमीन पर राजा साहेब का हक़ था?
हाँ
अपनी संपत्ति पर जो हक़ है, इसके नाम से भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार है. मौलिक अधिकार सात प्रकार के हैं और भारतीय संविधान का कर्तव्य है प्रत्येक नागरिक की मौलिक अधिकार की रक्षा करना.
का ताज्जुब? “मौलिक अधिकार” कोनो बुरा बात न है जी? ठीक बात है?
कैसे हो ई बुरा बात, ई ख्याल आपका दिमाग में कैसे आई मोतिहार जी?
मोतिहार बोला, तब बटाईदार लोग चिल्ला रहा था”मौलिक अधिकार” ,उसी से ही न पुलिस आयी?
नहीं, नहीं वो तो कानून-सुशासन का बात आ गया था न इसलिए पुलिस आयी.
मौलिक अधिकार कैसा होता है?
सुखचांद खूब खुश हुआ क्योंकि उसे अपनी विद्या बुद्धी ज़ाहिर करने का मौका मिला. उँगलियों पर गिनते हुए बोलना शुरू किया. पहला हुआ, समानता का अधिकार. जिसमें जात-पात, धर्म कोई कारण नहीं देखा जायेगा सब समान है. इन कारणों से किसी पर अन्याय नही हो सकता.
ये बात लिखा है?
एकदम!
मोतिहार अपने ज्ञात सत्य के ज़ोर पर बोला, ये ज़रूर किसी अँगरेज़ का लिखा होगा. जात-पात धर्म का फरक नही रहेगा? हम और भिखारी दुसाध एक बराबर?
एकदम। संविधान में लिखा है.
फिर भी ये झूठ है, ये तो आँखों के सामने ही दिख रहा है हमेशा ही. जात के कारण ही कोई ऊँचा जात वाला भिखारी को अपने घर में आने नहीं देगा, उसका छुआ पानी नहीं पियेगा. ये ज़रूर किसी दुश्मन का बनाया हुआ बात है. क्यों सुखचांद जी? जवाहरजी प्रधानमंत्री थे, फिर इंदिराजी, हमलोग तो कभी ये बात नहीं सुने और कभी आँख से भी नहीं देखे कि दुसाध और बड़ा जातवाला को कोई बराबर मान दे रहा है.

सुखचांद कभी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर नहीं मारता. अपनी साध्य सामर्थ्य मुताबिक सरल तरीके से स्वाधीनता और मौलिक अधिकार क्या-क्या है, समझाने की कोशिश करता है.
इस बार भकत बोला, सब झूठ बात!
क्यों?
जो जैसा चाहे काम-काज कर सकता है क्या ये स्वाधीनता है?
बिलकुल है.
मुसलमान जो खाता है, उसका व्यवसाय कोई करने देगा क्या नवागढ़ में?
सुखचांद हँसा, फिर बोला, बाकि सब मौलिक अधिकार भी सुन लीजिये.
मैं तो रोज शाम को प्रौढ़ शिक्षा क्लास लेता हूँ. आपलोग भी आइये और दूसरों को भी लाइए. पढ़ना सीखेंगे तो आपलोग खुद ही पढ़ लेंगे.
ऐसा भी होता है क्या? अब इस उमर में?
लिखने-पढ़ने की भी कोई उम्र होती है भला?
अच्छा! और क्या कहें... आगे सुनिए.
खूब ध्यान से मोतिहार और भकत सुनते हैं। भिखारी एकबार भी मुंह नहीं खोलता. सुनता रहता है मौलिक अधिकारों के बारे में और सुखचांद की ओर बहुत आदर से देखता है.
अब मोतिहार बोला, हाँ वो आखरी बात, जिसकी जो संपत्ति है चाहे वो कुछ भी क्यों न हो उससे कोई छिन नहीं सकता--- हाँ ये बहुत अच्छा लिखा है.
इसीलिए तो राजा साहेब को छः लाख रूपये मिले.
छः लाख!
छः लाख की बात भिखारी के मन में कोई भाव नहीं जगा पायी क्योंकि छः लाख के विषय में उसकी कोई धारणा ही नहीं ये कितना होता है. मोतिहार और भकत लेकिन हैरान हो जाते हैं इतने रूपये सुनकर.

सुखचांद एक प्राइमरी स्कूल शिक्षक है रूपये के अंक ले कर उसे भी कोई सरदर्द नहीं, वो बस मौलिक अधिकार समझाना चाहता है.
यही बात तो कह रहा हूँ. राजासाहेब का था उनकी जमीन पर मौलिक अधिकार, सरकार बिना इजाजत लाइन बिछा दी रास्ता काट दी। तब राजा साहेब के मौलिक अधिकार पर ही चोट हुआ.
हाँ-हाँ फिर....
राजा साहेब वयस्क हो कर केस किये रेल विभाग पर और केस जीत गए.
अच्छा! संपत्ति पर मौलिक अधिकार के लिए तो जमीन होना चाहिए है न?
अरे नहीं, भकत जी! देखिये, आपकी सम्पति घर, गाय-भैंस, बर्तन, सामान-असबाब सबकुछ है. मोतिहारजी का भी वही. मेरी संपत्ति ये कपड़ा-लत्ता, खटिया, किताब आदि और भिखारी का संपत्ति उसके बकरा-बकरी। चल- अचल सबकुछ संपत्ति में ही आता है कोई इसे छीने तो इसके लिए उसे क्षतिपूर्ति देनी होगी.
समझा.. बड़ा अच्छा लगा ई सब जान कर.
फिर आईयेगा.
विदा लेते वक़्त मोतिहार बोला, अब शादी कर लीजिये. आपकी जात की एक लड़की गाँव में ही है और खेत, भैंसा, हल, सायकल सब देगा.
ना-ना...
चलते हैं सुखचांद जी.
वो लोग चले गए. इधर भिखारी एक नया विषय जान कर उसके आघात से घायल है.
सुखचांद जी... जो बात अभी आप बोले वो सब सच है। उ मौला अधिकार?
मौलिक अधिकार, भिखारी!
और उ बटाईदार लोग का नारा... उ लोग भी तो यही बोल रहा था।
हाँ भिखारी.
राजासाहेब की जमीन उनकी संपत्ति फिर मेरा बकरा-बकरी मेरा संपत्ति?
बिलकुल!
राजासाहेब की जमीन सरकार ले ली तो बदले में कितना तो रुपया दी , मेरा बकरा सब पुलिस बार-बार उठा के ले जाती है जिसका डर से हम जंगल भाग जाते हैं .... उसका पैसा तो हमको कोई नहीं देता! तो सरकार क्या पुलिस को ये मौलिक अधिकार की बात बताना भूल गयी है?
वो तो जुल्म करते है, भिखारी.
तब राजासाहेब को जो इतना रुपया मिला सुखचांदजी, सिर्फ बड़ा आदमी को ही मिलता है क्या?
दर्दभरी हँसी हँस कर सुखचांद बोले, व्यावहारिक रूप से शायद ऐसा ही होता है, लेकिन संविधान में अच्छी बातें ही लिखी गयी है.
हम का जाने सुखचांद जी का लिखा है.
राजा साहेब को जो मिला उसके लिए उन्हें मुकदमा करना पड़ा. संविधान में ये भी लिखा है मौलिक अधिकार नष्ट होने पर, करनेवाले के नाम तुम मुकदमा कर सकते हो.
मैं? मैं कैसे मुकदमा कर सकता हूँ. इस बारे में तो कुछ नही जानता और पुलिस अगर बकरा उठा ले गयी तो उनके ऊपर कोई दुसाध मुकदमा कर भी नहीं सकता.
सुखचांद बोला, कर सकता है, ये हक़ है.
कैसे? पैसे कहाँ? हिम्मत कहाँ किसी दुसाध की? उस हक़ को मैं नही समझता सुखचांद जी. उससे कुछ काम नहीं होता.
ये भी सच कहा! अब और क्या कहूँ तुमसे......
सुखचांद को विभ्रांत देख भिखारी थोड़ा हँस कर दिलासा देने के भाव से कहता है.. और का कहियेगा आप? धरती पर जो चलता आया है वो ही चलता रहेगा। है कि नही!
ऐसा नहीं भिखारी. जो लिखा है वही ठीक है. वो सब काम में नहीं लाया जाता क्योंकि गलत हमारे बीच ही है। ये तो हमारा ही काम है न?

सुखचांद खुद भी कभी भिखारी का छुआ नहीं खाता, ऐसा सोच भी नहीं सकता. लेकिन उसकी अपनी धारणा है कि वो जात-पात, छुआछुत नहीं मानता क्योंकि ये सब किताब में लिखा है, लिखी हुई बातों पर अटूट विश्वास है उसे और इसी ज़ोर पर वो कहता है कि ये सब मानना गँवारपना है न तो जवाहर जी विश्वास करते थे और न ही इन्दिरा जी मानती थी.

फिर भी तो छुआछुत है और रहेगा ही। देखिए न, ये तो भगवान की सृष्टि है. रामजी किसी को ब्राह्मण बनाये तो किसी को दुसाध, इसी से तो छुआछुत भी चलता है. मैं तो कुछ भी नहीं जानता लेकिन तोहरी मन्दिर के ब्राह्मण हनुमान मिश्र तो अच्छे आदमी हैं, है न? वो तो कभी दुसाध के परछाई पर भी पाँव नहीं रखते क्योंकि उनकी बातचीत तो महादेव विश्वनाथ से होती है, वो तो भगवान के मन की बात जानते हैं.
सुखचांद लाचार हो कर बहस यहीं छोड़ देता है और बोला, और बताओ भिखारी, कैसे थे इतने दिन?
भिखारी उल्लसित हो कर जवाब दिया, बहुत अच्छा था, इतना अच्छा रहने की बात तो कभी सोचा भी नहीं था. और सबसे अच्छा ये हुआ कि बकरा-बकरी कुल दस हो गए.
दस! क्या बोल रहे हो?
दो बकरा जवान है। पन्द्रह-सोलह सेर मांस तो होगा ही। हाट में आठ रुपया सेर बेच देंगे। दो सौ रूपये तो हो ही जायेंगे.
वाह भिखारी तब तो तुम्हारे पास अच्छे पैसे हो जायेंगे।
भिखारी बोला, आशीर्वाद कीजिये... इतने पैसे मिल गए तो मेरे सब दुःख दूर हो जायेंगे.
कैसे?
कैसे नहीं, देखिये इतने पैसे हो गए तो ब्याह करेंगे दोनों मिल कर बकरी पालेंगे. और कमाई होगा तब घर दुआर, बर्तन बासन भी होगा। घर-संसार में जैसा होता है.
तुम्हारा घर कहाँ है?
बिजुपाड़ा पार कर के....
तुम्हारा कोई नहीं है क्या?
नहीं
सुखचांद को भिखारी से बहुत अपनापन लगता है. वो बोला, तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो भिखारी.
चलता हूँ सुखचांदजी
भिखारी घर की ओर चल पड़ा आज जाने क्यों उसका मन बहुत खुश है. सोच रहा था नवागढ़ में पुलिस चौकी नहीं बैठती तो वो भाग कर बाड़ा भी नहीं जाता. भागा तभी तो आज उसके दिन फिर रहे हैं.

रास्ते में आटा, नमक, सुखा कच्चू खरीद लिया. लाला से बोला, अच्छे हैं न लाला जी?
उसकी किसी बात का जवाब नही दिया लाला ने. रामधारी ठेकेदार की बात सुनने में ही व्यस्त रहा. सौदा लेते हुए ही कान में बात पड़ी कि आज ‘सूरमहल’ में पांच हज़ार की आतिशबाजी होगी. भिखारी भी सोच लिया शाम को जल्दी वहां पहुँच जायेगा.

कच्चू की सूखी सब्ज़ी और कड़ी सेंकी रोटी बनाएगा, दो दिन इसी से चल जायेगा. भिखारी सोच रहा था, लँगड़ा अगर एक और लड़की ले आये तो भिखारी को भी एक औरत मिल जायेगी. पहले बकरी चराना होगा फिर शायद जमीन भी खरीद सके. शादी करने से रिश्तेदार, बन्धु, समाज सब मिलेगा। वो लोग भी मदद करेंगे. अकेले- अकेले और कितना रहा जाये? सबका साहचर्य मिलता है तो हिम्मत भी बढ़ती है.
कपड़े धो कर खाना पकाते हुए सूरज डूब गया। बकरा सब गिन कर बस में चढ़ा लिया कि तभी वो लोग आ गए.
राजासाहेब के सिपाही, दो पुलिस.
पुलिस...
भिखारी बेहद डर गया बस के गेट पर ही पीठ टिका कर खड़ा हो गया. ये क्या हुआ? पुलिस चौकी नहीं, पुलिस नहीं इसलिए तो नवागढ़ लौटा था भिखारी. पुलिस?
का भिखारी डर गईल का?
सिपाही गजानन हँसा, शराब की गन्ध आ रही थी। दो बकरा निकाल। राजा साहेब पूरा थाना को न्योता दिए हैं कहाँ मिले इतना गोश्त?
नाय, नाय!! बकरा ना है.
तब बकरी निकाल.
ऐसा न करिये साहेब, गोड़ लागी आपका. वो ही हमारा जीवन है देवता, ना लियो.
भाग साला दुसाध!
गजानन कस कर एक चांटा लगाया भिखारी के गाल पर, नाक की चमड़ी और होंठ फट कर खून निकल आया. भिखारी तब भी चिल्ला रहा था, ओहि पुलिस के डर से भाग गए हम, न लियो सिपाहीजी.
काहे न ली? राजा साहेब बुलाये तभी तो पुलिस आई. तो गोस्त का अब खरीद के खायेगी? तू राजासहेब के मूलक में रहता है न? तू देगा. अब चल भाग.
भिखारी मुसीबत में पागल हो कर बोलने लगा, बकरा-बकरी पर हमनी का हक़ है, जैसे राजा साहेब के हक़ का जमीन छीन गया तो उसी हक़ से उनको रुपया मिला। हम काहे छोड़ें हमनी का हक़?
का? का बोला रे दुसाध?
सिपाही और पुलिस दोनों मिल कर भिखारी को मारे. दक्ष निपुण पेशेवर, प्रशासन अनुमोदित मार. मारते-मारते उनका दम नहीं निकलता. मारते-मारते वो लोग बोलते हैं, बात सुना इसका भाई गजानन? बटाईदार लोग अपनी लड़ाई लड़ते हुए इनको भी हक़-वक सीखा गए. साला पुलिस बकरा नहीं खायेगी तो कौन खायेगा बता? भाई गजानन, ये तो एक और राजा साहेब है नवागढ़ का, राजा साहेब की जमीन और इसके बकरे का हक़ एक बराबर हो गया?

मार-पीट कर भिखारी को अधमरा कर वो लोग चारो बकरा बकरी ले कर निकल गए महाउल्लास में.
भिखारी पशु की तरह पड़ा रोता रहा, रोता ही रहा. दर्द से हिल भी नहीं पा रहा था. लेकिन वो रो रहा था, वंचना की वेदना में, झूठ- सब झूठ है सुखचांदजी की बातें. बकरा-बकरी पर जो उसका अधिकार, सांतवा मौलिक अधिकार है? अधिकार हनन न हो ये संविधान देखती है? सब झूठ, सब झूठ! भिखारी का मौलिक अधिकार बार-बार छिनता है. राजा साहेब को क्षतिपूर्ति मिलती है, भिखारी को क्यों नहीं मिलता? राजासाहेब को क्षतिपूर्ति के छः लाख देने से ही हो जाता है. भिखारी दुसाध का बकरा-बकरी के जीने के मौलिक अधिकार क्षुण्ण होने पर उसे सुरक्षा देने की क्षमता भारत सरकार में नहीं इसलिए भिखारी को क्षतिपूर्ति भी नहीं मिलती क्या?

भिखारी को कानी, लंगड़ा और लँगड़े की औरत मिल कर उठा लाते हैं.
तीन भिखमंगे भिखारी की देखभाल किये, घाव सूखने और उठ कर खड़े होने में दस दिन लग गया. तब भिखारी लँगड़ा से बोला, चल लँगड़ा बछड़ों को भी बेच आते हैं जो दाम मिल जाए!
बीस रूपये में चार बछड़े बेच आया. भिखारी की कमर अब कभी सीधी नहीं होगी,  सर भी मुंडवाना पड़ा ताकि घाव जल्दी सूख जाए... क्षत-विक्षत हुए चेहरे पर से ये  चिन्ह कभी नहीं जायेंगे,  मौलिक अधिकार की रक्षा हेतु पहला और आखरी प्रतिवाद के परिणाम चिह्न स्वरुप!
अब का करेगा भिखारी?
भीख माँगेंगे.
भीख
हाँ, भीख...
उन सबको तीन-तीन रूपये कर के देता है. लाला की दुकान का उधार चुकाया छः रुपया. बकरा बाँधने की रस्सी का दाम मोतिहार के नौकर को दिया दो रुपया. तीन रुपया अपने पास रखा, पेड़ का डाल तोड़ कर लाठी बनाया अब हाट में जा कर एक कटोरी खरीदेगा, भिक्षापात्र!
सुखचांद उसे देख उसके पास आया, घटना की खबर उसे भी मिली थी.
भिखारी!
जा रहा हूँ सुखचांद जी.
कहाँ? भिखारी कहाँ?
जहाँ भीख मिलेगा.
लेकिन तुम्हारे शरीर में तो अभी भी......
ये बात!! का किया जाए महाराज? आप तो हमनी के झूठ बात बता दिए रहे, हमरे लिए तो उ मौलिक अधिकार है ही नहीं सिरिफ राजा साहेब के लिए है.
चले सुखचांद जी.
लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलता गया भिखारी दुसाध परम निर्भयता से. अब पुलिस देख कर डर नहीं लगेगा. बकरा-बकरी, बासन-बर्तन भी अगर दुसाध की संपत्ति है तब भी पुलिस से डरना पड़ता है. जंगल में भागना पड़ता है, दुसाध देखते ही सब छीन लेगी पुलिस. बेसहारा, लाचार, भिखमंगा दुसाध देखने पर पुलिस कुछ नहीं करेगी. भिखारी को अब लगता है ये बात वो पहले क्यों नहीं जानता था? अपनी मातृभूमि पर यदि एक दुसाध राजा साहेब, लालाजी, पुलिस, हनुमान मिश्र सबकी दया ले कर ज़िंदा रहना चाहता है तो एकमात्र उपाय है भिखमंगा बन कर रहना? जो दुसाध बकरी चरा कर भिखारी दुसाध की तरह इंसान बन कर जीना चाहता है वैसे ही दुसाध से तो सब नाराज़ हो जाते हैं.

अब खुद अकेला भी नहीं पाता. कहाँ नहीं है भिखमंगे? कानी, लगड़ा, डोरा .... जहां भी चले जाओ हर जगह मिलेंगे. अब भिखारी अकेला नहीं, एक बहुत बड़े समाज का हिस्सा है.

सुखचांद भिखारी को देखते और सोचते हैं, भिखारी दुसाध सात नम्बर मौलिक अधिकार से भले ही वंचित हुआ, तीन नम्बर अधिकार की रक्षा ज़रूर हुई है. किसी भी व्यवसाय या काम को चुनने का अधिकार. भिखारी भिक्षाटन आजीविका के लिए चुन लिया. वो जन्म-जन्मांतर तक भिखमंगा ही रहे, भारत सरकार ये अवश्य ही सुनिश्चित करेगी. उसे कोई यदि किसी दूसरे आजीविका के लिए प्रेरित करना चाहे तो? भारत का संविधान उसके मौलिक अधिकार का हनन बरदाश्त नहीं करेगी. भारत के किसी भी कोने में ऐसा अन्याय हुआ तो भारत का संविधान वहां पुलिस, रिजर्व बल, सैन्य बल, टास्क फ़ोर्स, जंगी विमान सब वहां उतार देगी।

भिखारी दुसाध लंगड़ाते-लंगड़ाते सड़क के मोड़ पर अदृश्य हो गया. उसे अब और कुछ भी खोने का डर नहीं।












 

Friday 20 January 2017

प्रेमी की डायरी


मेरा एक कवि मित्र है। फेसबुक पर उसकी लम्बी फैन फॉलोविंग लिस्ट भी है, किताबें भी छप रही हैं। उसने एक दिन बताया था- यार! जब दिल टूटा था तो खूब रोया आंसू पोंछ-पोंछ कर हाल-ए-दिल कागज़ पर उतारा  तब पता नहीं था नाकाम मोहब्बत मुझे इतना काम का बना देगी। अब तो शुक्रगुज़ार हूँ उसका कि मुझे छोड़ गयी अब अपने ज़ख्मों को ही कुरेद-कुरेद कर शेर लिखता हूँ। ये दर्द ही अब मुझे मज़ा देता है यार!

आज कुछ ऐसा हुआ कि लगा अपनी ज़िन्दगी की डायरी का वो पन्ना आपके लिए खोल दूँ जिसमें मेरे भी असफल प्रेम से शुरू कर सफल जीवन के सफर का रहस्य छिपा है। कोई नहीं जानता पर मैं गवाह हूँ अगर प्रेम असफल न होता तो मैं कभी व्यवसाय में सफल न होता।
मैं…. मैं शेखर और मेरी बुलबुल.... हाँ ! उसका नाम बुलबुल ही था मेरी प्रेरणा-मेरा असफल प्रेम! कवि मित्र की तरह मेरे जीवन में भी ऐसा ही टर्निंग पॉइंट आएगा सपने में भी नहीं सोचा था। मैं तो लेखक, शायर, कवि कुछ भी नहीं एक मामूली सा मास कम्युनिकेशन में एम्.ए  फिर भी सच्चा प्रेम, असफल जीवन को भी सफल बना गया।
दस साल पहले जब बुलबुल ने मेरा परित्याग किया और एक प्रवासी सॉफ्टवेयर इंजीनियर से शादी कर विदेश चली गयी तब मन के भीतर उमड़ती ज्वाला से पागलों की तरह दर-बदर भटकने लगा। नींद की गोलियां इकठ्ठा कीं, रेल पटरी पर कट जाने की सोचा और भी वो सब करने की व्यर्थ कोशिश की जो इस तरह के केस में पागल प्रेमी करते हैं! अंत में डॉक्टर और मनोचिकित्सक तक की शरण लेनी पड़ी लेकिन कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।
एक दिन मेरा दोस्त सुधाकर मुझे बोला, प्राणायाम करने से मन की सारी गांठ खुल जाती है। अगर तुम ठीक होना चाहते हो तो चलो मेरे साथ, मैं एक सिद्ध योग गुरु को पहचानता हूँ वो ज़रूर तुम्हारी मदद करेंगे। मरता क्या न करता चल पड़ा नए गुरु की खोज में।

गुरुजी व्यस्क पुरुष थे लम्बा कद, तना हुआ शरीर, चमकती त्वचा। उन्हें देखते ही लगा था यहां ज़रूर मेरे भविष्य को राह मिलेगी। ध्यान में बैठते ही चारों ओर बुलबुल ही बुलबुल दिखायी देने लगी मानो प्रोजेक्टर फिट कर दिया गया हो। ऑंखें बन्द करूँ तो बुलबुल, ऑंखें खुली रखूं तो भी बस वही नज़र आती। उस हालत में दीर्घस्वास और अंदर से घुमड़कर निकलता आंसुओं का ज्वार मेरे लिए स्वास नियंत्रण व्यायाम करना कठिन कर दे रहा था लेकिन गुरु जी ने कहा कि जैसे होता है वैसे ही करो!
इसी तरह शुरू हुआ मेरे जीवन का एक नया अध्याय।
व्यायाम ने कुछ ही दिनों में मुझे बुलबुल से थोड़ी दूरी बनाने में कामयाब कर दिया। योग, व्यायाम, प्राणायाम की जटिल दुनिया ने मुझे जैसे आत्मसात कर लिया था। साथ ही थोड़ा जिम का तड़का भी लग गया और यही सब करते-करते दिमाग भी खुलने लगा। मास कम्युनिकेशन की डिग्री ले कर अब इधर-उधर नौकरी की उम्मीद में भटकने से भी कुछ खास हासिल नहीं होने वाला था। सोचा, नौकरी के लिए कहीं भटकने क्यों जाऊँ? इसी लाइन में अगर कुछ किया जाये तो कैसा हो? हाँ, इसी तरह खुद से सवाल-जवाब करते-करते एक दिन मेरे अंदर कुछ कर गुज़रने की आग धधक उठी और मैंने निर्णय ले लिया।
ज़्यादा डिटेल्स में न जा कर शार्ट में ही बताता हूँ एक कमरे के साथ मैंने ध्यान,योग, व्यायाम, प्राणायाम का एक सेंटर खोल लिया। फिर धीरे-धीरे उसे बढ़ा कर जिम भी जोड़ लिया। क्रमवार इसमें ब्यूटी पार्लर और उससे जुड़ी अन्य सुविधाओं और सेवाओं का भी प्रसार किया। इन सबके पीछे कितना खून-पसीना, उत्तेजना, उत्कण्ठा और संघर्ष आदि रहा ये बताने की ज़रूरत नहीं; क्योंकि ये सब उतनी ही मात्रा में था जितना सभी के साथ रहता है।
मेरी इस सक्सेस स्टोरी के पीछे सबसे बड़ा हाथ किसी का है तो वो है मेरी बुलबुल का। उसके परित्याग और उससे पैदा हुआ मेरा पागलपन, विरह, दुःख, यादों की प्रताड़ना ये सब अगर न होता तो मेरे अंदर वो आग भी कभी नहीं धधकती जो आज मुझे इस मुकाम तक ले आयी। तभी तो हर रात सोने से पहले नियमित मैं बुलबुल का ध्यान कर के ही सोता हूँ।
इन दस सालों में हर उम्र की महिला मेरे संपर्क में आयी, पार्लर में कर्मचारी भी महिला हैं, लेकिन कभी किसी भी स्त्री से निकटता की कोई सम्भावना मैंने पनपने ही नहीं दी। दिनभर महिलाओं के साथ ही काम करना पड़े तो एक्स्ट्रा इम्युनिटी की ज़रूरत होती हैं इसलिए हर रात मैं तीन से पाँच मिनट रोज़ बुलबुल का ध्यान करता हूँ। गुरु जी ने भी कहा था बेटा, अपने ब्रह्मचर्य का ध्यान रखना इसलिए भी स्त्री का जीवन में प्रवेश निषेध था। लेकिन आज….
आज दस साल बाद वो मेरे सामने थी मेरे पार्लर के कस्टमर के रूप में। वो जिसे मैंने अपनी सफलता का मन्त्र बना लिया था बुलबुल!
दस सालों में पंद्रह के.जी ओवरवेट और डबल चिन हो गयी है मेरी अभ्यस्त और अनुभवी आँखों ने तुरन्त ताड़ लिया। लेकिन आँखें- वो तो वैसी ही है। मुझसे बात करते हुए भी वैसे ही चमक रही थी जैसे पहले चमका करती थी और मैं उसी चमक में अपना सितारा देखा करता था लेकिन आज बुलबुल की आँखों में मेरा वो सितारा नहीं दिख रहा था, लग रहा था वो सितारा टूट कर शायद मन्नत पूरी कर गया। अब सूनापन ही शेष है।
मानता हूँ प्रेम रूप निर्भर नहीं, प्रेम का गहरा अर्थ और अस्तित्व है लेकिन रूप भी तो इसकी एक आइडेंटिटी है। जैसे बुलबुल की आँखों का वो सितारा अब मेरे लिए नहीं चमकता तो क्या मेरा प्रेम उस चमकते तारे से था जो उसकी आँखों में चमकते थे? आज इतनी बेचैनी क्यों है? पता नही! पर आज रात से मैं क्या करूँगा पाँच मिनट का वो ‘मैडिटेशन फॉर सक्सेस’ क्या अधूरा रह जायेगा? बुलबुल की आँखों में अब वो मेरा वाला चमकता तारा नहीं जो मुझे इतने साल रोज़ दिखता रहा।
क्या मुझे नई प्रेरणा फिर से तलाश करनी होगी? क्या पुराना प्रेम बरसों बाद फिर से सामने आये तो भी पुराना वक़्त नहीं लौटता!
समय कितना निर्दयी है! सब जानते हैं लेकिन मानता कोई नहीं- यही सबसे दुखद विषय है।
बीते समय की बुलबुल पिंजरे से कब की आज़ाद हो चुकी!!