Thursday, 30 June 2016

और फिर एक दिन.....

फोटो साभार गूगल


इस बार जनवरी की कुछ छुट्टियाँ एक के बाद एक ऐसे पड़ रही है कि चाहें तो हमसब एक साथ एक छोटा सा हॉलिडे टूर कर के आ ही सकते हैं।' शाम को बड़े दिन की एक घरेलू पार्टी में ये बात सबके सामने आदित्य ने रखी। 
घरेलू पार्टी यानी एकदम ही घरेलू- बाहर का कोई नही, बस डॉली दीदी और राहुल जीजाजी, साथ में उनका आठ साल का बेटा मन्नू, आदित्य और उसकी नयी दुल्हन रागिनी; इनके अलावा डॉली और आदित्य के पापा सूर्यशेखर। सूर्यशेखर ने पहले उनके साथ इस पार्टी में शामिल होने पर अपनी आपत्ति जताई थी लेकिन बेटा और दामाद मिलकर उन्हें ज़बरदस्ती ऊपर छत पर ले आये। आपके बिना पार्टी जम ही नहीं सकती पापा, चलना तो पड़ेगा ही।' दोनों ने यही कहा। दस साल हो गए उन्हें रिटायर्ड हुए लेकिन डेढ़ साल पहले पत्नी की आकस्मिक मृत्यु के बाद से ही सूर्यशेखर खुद को सबसे दूर एकाकी जीवन की ओर ठेले जा रहे है। सिर्फ मन्नू ही ऐसा है जिसके आते ही उनके चेहरे पर ख़ुशी की एक लहर दौड़ जाती है। बाकी समय जैसे एक उदासी की चादर से खुद को ढ़के रहते हैं। 
रागिनी को इस घर में आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं, सूर्यशेखर की अपनी बहू से भी काफी अच्छी बनती है। रागिनी बहुत छोटी उम्र में ही अपने पिता को खो चुकी थी इस घर में आने के बाद दोनों एक दूसरे के लिए ससुर-बहू से ज्यादा पिता-पुत्री के  रिश्ते में ढ़ल गये। 

आदित्य से रागिनी की शादी को अभी सिर्फ छह महीने ही हुए है, JNU में पढ़ते हुए अचानक ही आदित्य और रागिनी की शादी हो गयी। रागिनी दिल्ली में ही बड़ी हुई है, उसके पिता वहीं नौकरी करते थे। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद रागिनी की माँ ने अपने पिता के पास कोलकाता फिर लौट कर ना जाने का निर्णय लिया और दिल्ली में ही एक नौकरी तलाश कर वहीँ रह गयीं। माँ के रहते हुए भी रागिनी को कभी माँ का साथ नहीं मिल पाता था, आया ही उसे खिलाती-सुलाती थी। माँ के साथ के लिए बहुत मन दुखी होता लेकिन माँ अपने काम की व्यस्तता के कारण कभी उसे वक्त ही नहीं दे पाती। इसी तरह दिन बीतते गए और रागिनी कॉलेज में आ गयी। 
यहाँ सोहैल नाम के एक मुस्लिम लड़के के प्रेम में रागिनी डूब रही है ये खबर मिलते ही माँ खुद पे नियंत्रण नहीं रख सकी, इतनी मजबूत और दृढनिश्चयी माँ एकदम से टूट गयी। लड़का मुस्लिम है इसका डर नहीं बल्कि डर रागिनी के लिए था। प्रेम और शादी एक चीज़ नहीं होती। शादी के बाद अगर लड़की दूसरी संस्कृति और परिवेश अपना नहीं पायी तो... तो क्या होगा? 
पति की मृत्यु के बाद बेटी के लिए ही सबको छोड़ कर यहीं दिल्ली में ही रहने का निर्णय किया था, खुद को मजबूत कर पैसा कमाने निकल पड़ी ताकि रागिनी को कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। कभी शर्मिंदा न होना पड़े आज उसी ने..... 
इतने दिनों बाद सब कुछ खोते देख अपना संतुलन नही रख पा रही थी रागिनी की माँ। किसी हिस्टीरिया रोगिणी की तरह उनका व्यवहार हो गया था, अपना सर पीट-पीट कर खुद के शापित होने की बात बोल-बोल कर रोती और रागिनी के पाँव पर अपना सर रख देती। 

माँ का ऐसा हाहाकार और रोना देख रागिनी बहुत डर गयी थी, सात दिन लग गए उसे खुद को नए हालात से समझौता कराने में, फिर एक दिन माँ के ऑफिस में फोन कर उसने बर्फ से भी ठन्डी आवाज़ में अपना निर्णय सुना दिया। 
कहा, ‘माँ मैंने सोहैल को ना कर दिया है। 
माँ के कलेजे में जैसे हथौड़े की आवाज़ गूंजने लगी। 
उन्होंने पूछा- 'और सोहैल?’ 
सोहैल बोला, वो सारी ज़िन्दगी मेरे लिए इंतजार करेगा। 
फोन के उस पार से भी माँ रागिनी के निःशब्द रोने की आवाज़ साफ़ सुन सकती थी लेकिन उनके अपने डर की आवाज़ ने किसी और आवाज़ को दिल पर हावी होने नहीं दिया। 

इसके बाद माँ ने और देर करना ठीक न समझा। एक अच्छा परिवार देख कर जो दिल्ली में नही कोलकाता में रहता है, के इंजिनियर लड़के आदित्य के साथ शादी कर दी। 
आदित्य बहुत ही अच्छा लड़का है, एक लड़की जैसे गुण अपने पति में चाहती है वो सब गुण उसमें मौजूद हैं, हंसमुख, खुले मन और विचारों का है। लाख खोजने पर भी रागिनी को उसमें ऐसा कोई दोष नहीं मिला जिसे ले कर वो कह सके कि आदित्य में कोई कमी है, एक दिन फोन कर के रागिनी ने माँ को बताया, ‘आदित्य वाकई बहुत अच्छा लड़का है 
सुन कर कर माँ का मन शांत हुआ कि उन्होंने जल्दबाजी में कोई गलती नहीं की। सिर्फ आदित्य ही नहीं दीदी-जीजाजी, पापा सभी ने बहुत कम समय में ही रागिनी को अपना लिया और बहुत प्यार भी करते हैं। पास ही रहने के कारण अक्सर उनका घर आना-जाना लगा रहता है या रागिनी आदित्य कभी उनके घर चले जाते हैं। कुल मिला कर जीवन आनंदमय ही लग रहा था। 

आज भी ऐसा ही एक दिन था जब बड़े दिन की छुट्टी मनाने सब एक साथ एकत्र हुए हैं और खाने -पीने के साथ इधर-उधर की नाना बातें होने लगीं। सभी इस बातचीत में हिस्सा ले रहे थे बस सूर्यशेखर ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे। ऐसे में ही आदित्य ने अगले छुट्टी पर कहीं बाहर घुमने जाने की बात कही। इसके पहले कि कोई कुछ कहे सूर्यशेखर एकदम से बोल उठे- बनारस 

थोड़ी देर के लिए सब अवाक् हो कर चुप से हो गए, एक कम बात करने वाला व्यक्ति अचानक ही अगर अपना मत दे तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है। 
रागिनी फ्राई काजू उनकी ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘वाह ये आईडिया तो बहुत ही अच्छा रहेगा पापा, अबतक बनारस के बारे में सिर्फ पढ़ा और सुना ही है, कई बार बनारस के ऊपर से गुजरना भी हुआ लेकिन कभी बनारस देखना नहीं हुआ। 
उसके बाद डॉली की ओर घूम कर बोली, ‘क्या दीदी जाएँगी न?’ 
डॉली राहुल की तरफ देख कर बोली, ‘आप छुट्टी मैनेज कर लेंगे न?’ 
राहुल बोला, ‘ बनारस हमलोग जा रहे हैं। पापा की जब इच्छा हुई है तो उनको घुमाने ले जाना ही होगा। 
सूर्यशेखर बोले, ‘ अरे नहीं नहीं। मैंने तो बस ऐसे ही एक नाम बोल दिया, ज़रूरी नही कि मैंने नाम लिया तो वहीँ जाना होगा। आपलोग अपनी सुविधा से जो ठीक समझें तय कीजिये, मुझे कोई आपत्ति नहीं। 
राहुल बोला, किसी को कोई दिक्कत नही, रात के ट्रेन से बनारस जायेंगे और चार दिन घुमने के लिए बनारस सबसे बेहतर जगह होगी। 
सब तय हो गया। ट्रेन की टिकट भी हो गयी। अब बस बनारस निकलने का इंतजार। 


बनारस पहुँच कर सबसे पहले दशाश्वमेध घाट के पास ही एक होटल में जो कमरे बुक थे वहां पहुँच कर फ्रेश हो लिए, होटल के ऊपर ही उसका छोटा सा रेस्तरां भी है। वहाँ से गंगा घाट कितना साफ़ और सुंदर दिखता है लेकिन इस मौसम में ज्यादातर भाग कोहरे से ढका ही रहता है। इस बार ठंड भी खूब पड़ी है, सुना है पिछले बीस सालों में इस बार सबसे ज्यादा ठण्ड है। खानेपीने की कोई समस्या नहीं होगी। ये देख कर सब निश्चिन्त हो गए, और निकल पड़े अपने पहले पड़ाव की ओर। बाबा विश्वनाथ के दर्शन के बाद दशाश्वमेध घाट से नौका विहार करते हुए मणिकर्णिका घाट, उसके बाद हरिश्चंद्र घाट, बीच गंगा में इस तरह ठंडी हवा के थपेड़ों के साथ एक प्राचीन शहर के उन घाटों को देखना जिनका पुराणों, कहानियों-किवदंतियों में उल्लेख है, एक विचित्र सी अनुभूति हो रही थी। ऐसी अनुभूति व्यक्ति सुनकर नहीं खुद यहाँ खड़े हो कर ही कर सकता है। फिर शाम को गंगा आरती के मनोरम दृश्य और संगीत का आनंद- जैसे सफर की सारी थकान गायब ही हो गयी थी। 
दूसरे दिन एक इनोवा भाड़े पर ले कर घुमने निकल पड़े- सारनाथ, रामनगर दुर्ग, संकटमोचन मंदिर आदि। 
आज बनारस में तीसरा दिन। तय हुआ कि विन्ध्याचल मंदिर और चुनार फोर्ट देख आया जाये। सूर्यशेखर आज जाने से मना कर दिए। थकान के कारण वो और यात्रा करने से डर रहे थे, इतनी ठण्ड और लम्बी यात्रा के कारण कहीं उनकी तबियत न बिगड़ जाये इस डर से फिर किसी ने उनपर जोर भी नही दिया। बल्कि होटल में ही रह कर आराम करना सबको सही लगा। उन्हें तरह-तरह की हिदायतें दे कर सब निकल पड़े विन्ध्याचल यात्रा के लिए। 

सूर्यशेखर जैसे इसी समय के इंतजार में थे। बच्चों के निकलते ही वो भी स्नान आदि कर के होटल से निकल पड़े। 
तीन-चार महीने पहले ही अचानक एक दिन रास्ते में ही मुलाकात हो गयी थी बचपन के एक मित्र प्रदीप से। गाँव के स्कूल में एक साथ ही पढ़ते थे जैसे ही स्कूल छुटा प्रदीप का साथ भी छुट गया। सूर्यशेखर आगे की पढाई के लिए चले आये थे कोलकाता शहर में। बड़े शहर और ऊँची शिक्षा के मायाजाल में जितनी तरह से फंसा जाता है उन सब तरह से जकड़े गए थे सूर्यशेखर। माँ-पिताजी की मृत्यु के बाद फिर कभी भी गाँव से कोई रिश्ता नहीं रहा। 
बहुत दिनों बाद प्रदीप को देख कर भी पहचानने में कोई परेशानी नहीं हुई। बिलकुल वैसा ही था बस शरीर पर बढती उम्र के कुछ निशान ही पड़े थे। बड़े प्यार से प्रदीप को अपने घर ले आये थे। वो अभी भी गाँव में ही रह रहा था, वहीँ पर कोल्डस्टोरेज खोल कर काफी अच्छे पैसे बना लिए हैं। कितने दिनों बाद बचपन के दो साथी मिले, बचपन की बातें जैसे ख़त्म ही नहीं हो रही थी। ऐसे ही बातों ही बातों में गोपा के बारे में पता चला। 

हाँ गोपा। सिर्फ दो अक्षरों का एक शब्द लेकिन सुनते ही जैसे कई दिनों से प्यासी धरती पर मानो बारिश की फुहार पड़ी और उसकी सौंधी खुशबू के साथ बचपन की उन यादों ने उसकी चेतना पर ही काबू कर लिया। 
गोपा की शादी बगल के गाँव में ही हुई थी। बस इतनी ही खबर थी उसके पास, इतने दिनों बाद गोपा के बारे में प्रदीप से सुनकर मन बेचैन हो उठा था सूर्यशेखर का। करीब साल भर पहले ही प्रदीप बनारस घुमने आया था, यहीं पर उसकी मुलाकात हुई विधवा गोपा से। 
बनारस में ही बंगालीटोला में रह रही है, उसके बेटे- बेटियों ने उसकी देखभाल से इनकार कर दिया था। बहुत ही कष्ट में उसके दिन गुज़र रहे है। 
ये सब जानकर सूर्यशेखर का मन दुखी हो गया था, तब से ही उनके मन में बार-बार बनारस जाने का ख्याल आता। बस एक बार गोपा से मिल कर उसे देख आने की तीव्र इच्छा होती। सूर्यशेखर के पास रुपये-पैसों का कोई अभाव नहीं था, किसी तरह अगर गोपा की थोड़ी मदद कर सकता। इसीलिए जब उस दिन आदित्य ने घुमने जाने की बात कही तो अनायास ही सूर्यशेखर के मुंह से बनारस का नाम निकल गया। 
होटल से निकल कर बंगालीटोला जाने का रास्ता पूछने पर पता चला नौका से उस पार जा कर थोड़ा पैदल चलने के बाद ही उस जगह पहुंचा जा सकता है। दशाश्वमेध घाट से नौका पर बैठने के बाद जैसे-जैसे नौका आगे बढे सूर्यशेखर की धड़कन भी तेज़ होती जा रही थी। जाड़े के दिन हैं इसलिए सुबह बादल और कोहरे से ढ़की लग रही थी। गंगा की ठंडी हवा ने गाँव के वो दिन याद दिला दिए जब संक्रांति के समय सूर्यशेखर की माँ खीर-पुड़ी और लड्डू बनाती थी, गोपा स्कूल मास्टर नरेन्द्र की बेटी थी उसकी माँ का देहांत हो चूका था। कोई उसके घर खीर-पुड़ी नही बनाता था इसलिए सूर्यशेखर अपने हिस्से से बचा कर उसे चुपके से दे आता। 
आज अचानक नये चावल, गुड़ और मीठी खुशबू से सूर्यशेखर घिर गया था। मन में सवाल उठने लगे, गोपा सुर्यशेखर को पहचान पायेगी न? सूर्यशेखर गोपा को पहचान तो लेगा न? सोचते हुए उन्हें खुद ही हंसी आ गयी। उसकी वो ठुड्डी और उस पर तिल। क्या कभी भुलाया जा सकता है! 

ये यात्रा जैसे हवा के साथ बहे चले जाने की तरह का लग रहा है। सारे जीवन में कभी भी तो गोपा की याद नही आई? आदित्य और डॉली की माँ के साथ मज़े में ही तो जीवन के दिन गुज़र गए। कभी किसी क्षण के लिए भी तो कहा नही जा सकता कि सूर्यशेखर कभी वैवाहिक जीवन में सुखी नहीं थे। लेकिन उस दिन अचानक प्रदीप के साथ हुई एक मुलाकात ने ही जैसे उन्हें खिंच कर एक नये चोर भंवर में डाल दिया। हो सकता है और दूसरों की तरह सूर्यशेखर भी उम्र के इस दौर में आ कर अपनी जड़ों की ओर लौटना चाह रहे थे। गंगा की लहरों में बहते-बहते शायद वो फिर से लौटना चाहते हैं बचपन के उन सरल सहज दिनों में। 
उनकी तंद्रा टूटी जब नाव वाले ने कहा, ‘बाबू, आपका घाट आ गया। 
नौका से उतर कर सीढ़ी से ऊपर चढ़ना बहुत तकलीफदेह है, लेकिन फिर भी सूर्यशेखर आज रुके नहीं ऊपर पहुँच कर इस गली-उस गली पूछ -पूछ कर आखिर पहुँच ही गए बंगालीटोला। 
प्रदीप ने यहीं का पता बताया था- बंगालीटोला में एक विधवा आश्रम है भगवती भवन। यहीं रहती है गोपा। 
एक ऊँची चारदीवारी से घिरा हुआ है भगवती भवन। सामने पुराने ज़माने का विशाल लकड़ी से बना दरवाज़ा। उस दरवाज़े से प्रवेश के लिए बहुत छोटी सी एक जगह है, वहां खड़े होते ही अन्दर का विशाल आँगन दिखाई देता है। घुसने गया ही था कि एक बाधा खड़ी हो गयी। एक बड़ी-बड़ी मूंछोवाला आदमी रास्ता रोक कर पूछा, ‘क्या चाहिए?’ 
ये क्या भगवती भवन है?’ काफी नर्वस आवाज़ में ही सूर्यशेखर ने पूछा। 
क्यों, बाहर लिखा है दिखता नही?’ 
सूर्यशेखर और क्या कहे कुछ नहीं सूझ रहा था उन्हें, अपने बच्चों से छुप कर ये कहाँ चला आया! बार बार यही बात मन में आ रही थी। अगर उन्हें ये बात पता चल गयी तो? कोई ज़रूरत नहीं गोपा के बारे में पता करने की, सोचते हुए सूर्यशेखर लौटने को मुड़े। 
उस व्यक्ति ने इस बार बदले सुर में बात करना शुरू किया। 
किसी से मिलने आये हैं क्या?’ 
सूर्यशेखर सर हिला कर बोले, ‘हाँ, लेकिन मैं चला जाता हूँ। 
मूंछोंवाला व्यक्ति तुरंत बोला, ‘अरे, मैंने आपको चले जाने को तो नहीं कहा। क्या करूँ? ये औरतों का आश्रम है, थोड़ा कड़क हो कर बात करना ही पड़ता है समझ ही सकते है बहुत तरह के लोग आते जाते है इधर से। वैसे आप किससे मिलने आये हैं बाबू?’ 
शशिशेखर बोले, ‘गोपा,’ तुरंत ही उनके मुंह से नाम निकला। 
ओह तो आप गोपा से मिलने आये है तो आइये न..... गोपा ओ गोपामुंछोवाला वाला आदमी चिल्ला कर गोपा को आवाज़ देने लगा। 
उस बड़े से आँगन के चारों तरफ कई सारे कमरे बने हुए थे, उन्ही में से एक कमरे से एक सफ़ेद कोरा थान पहनी एक लड़की बाहर निकली, साथ ही और भी कई औरतें बाहर आ गयी। देख कर ही समझ आया यहाँ हरेक उम्र की विधवा औरतें रहती हैं। शायद यूँ नाम से खोजना मुश्किल ही होगा। 
लड़की ने कहा- क्या हुआ गोपाल दादा, बुला रहे थे?’ 
गोपाल दादा ने सूर्यशेखर की ओर इशारा कर के कहा, हाँ देखो तो कोई तुमसे मिलने आया है। कह रहे हैं गोपा से मिलना है। 
लड़की कुछ कहे उसके पहले ही सूर्यशेखर ने कहा , ‘नहीं-नहीं ये वो नहीं जिसे मैं खोज रहा हूँ।मन ही मन सोचा ये तो हो ही नहीं सकती अब तो गोपा की भी उम्र हो गयी है। 
इतनी देर में गोपाल दादा फिर से पुराना रूप धर लिए, कड़क कर बोला, ‘ये नहीं-वो नहीं तो फिर कैसे समझें आपको किससे मिलना है? क्या सारी औरतों को लाइन हाज़िर करवाना चाहते हैं?' लग रहा था बस धक्का मार कर सूर्यशेखर को निकलने की ही देर है। 
सूर्यशेखर को विश्वास था कि प्रदीप ने उससे गोपा के बारे में झूठ नहीं कहा होगा, उसने बताया था कि यही पता है तो यही होगा। ज़रूर कहीं समझने में भूल हो रही है। अचानक ही सूर्यशेखर गोपाल दादा को धक्का मार कर आँगन में घुस गए और वहां उपस्थित महिलाओं से भर्राए आवाज़ में पूछना शुरू किया, ‘ आपलोगों में से कोई गोपा के बारे में कुछ बता सकता है। कृष्णापुर  गाँव की रहनेवाली है। उसकी ठुड्डी पर एक तिल है। उसे बुला दीजिये, कहिये सूर्या आया है मिलने। 
भगवती भवन के निवासी सुबह-सुबह ऐसी घटना के लिए प्रस्तुत नही थे, इतना शोरगुल सुन सभी अपना काम छोड़ आँगन में आ कर खड़े हो गए। गोपाल दादा भी उसे देख कर थोड़ी देर के लिए चुप से खड़े हो गए। चारो ओर एक निस्तब्धता छा गयी बस कुछ पल के लिए। 

एक वृद्धा आगे निकल कर सूर्यशेखर के सामने खड़ी हुई। 
सूर्यशेखर अन्दर ही अन्दर एक भीषण झंझावात से लड़ रहे थे। उनका शरीर काँप रहा है। घबराहट सी हो रही है। मन में ये सवाल हथौड़े की तरह लग रहा कि इतनी दूर आ कर भी क्या गोपा से मिलना नहीं हो सकेगा? क्यों नहीं इतने लोगों के बीच से निकल आ रही गोपा? 
आप कृष्णापुर की सुकन्या की बात तो नहीं कर रहे?’ उस वृद्धा ने सूर्यशेखर से कहा। 
हाँ हाँ वही’, जाने कैसे उसका ये नाम भूल ही गया था बस गोपा ही याद रह गयी थी। ठीक ही तो सब लोग तो उसे सुकन्या नाम से ही जानेंगे। सूर्यशेखर ने मन ही मन कहा। 
कहाँ, कहाँ है सुकन्या?’ 
वो तो पिछले जाड़े में निमोनिया ग्रस्त हो कर गुज़र गयी। 

चुनारगढ़ घुमने के बाद मिर्ज़ापुर रुक कर सभी एक रेस्तरां में लंच कर रहे थे। इसके बाद विंध्यवासिनी मंदिर की ओर निकलना है। तभी मोबाइल बजने लगा। 
किसी गोपाल नाम के व्यक्ति ने पापा के मोबाइल से आदित्य को फोन किया और बताया कि उनके पिताजी किसी भगवती भवन नाम के विधवा आश्रम में गोपा नाम की किसी महिला से मिलने आये थे। वहाँ अचानक सर चकराने से गिर पड़े और सर में चोट आई है, दो स्टिच पड़ी है फ़िलहाल पास ही के एक अस्पताल में हैं। घबराने की बात नहीं, सीरियस कुछ नहीं हुआ है। 
सूर्यशेखर से बात करने के बाद आदित्य निश्चिन्त हुआ और बार बार गोपाल का धन्यवाद किया। गोपाल ने बताया कि वो खुद उनके पिता को उनके होटल के कमरे में पहुंचा आएगा वो लोग चिंता न करें। 
उन्होंने विन्ध्याचल जाना कैंसिल कर सीधे बनारस का रास्ता पकड़ लिया। सूर्यशेखर ने सुबह से कुछ भी खाया नहीं था। डॉली ऊपर के रेस्तरां में जा कर चिकन सूप बनवा कर ले आई। सभी सूर्यशेखर के पास खड़े थे, उनका हाल-चाल पूछ रहे थे और जितना हो सके स्वाभाविक दिखने की चेष्टा भी कर रहे थे। किसी ने भी भगवती भवन और गोपा के बारे में कोई सवाल नहीं किया। रागिनी रास्ते में क्या हुआ इन सबके बारे में बात कर रही थी, सूर्यशेखर किसी की कोई बात सुन रहें है या नहीं कुछ पता नहीं चल रहा था। वो अपने-आप में ही गुमसुम से थे। और उसी हालत में किसी की ओर न देखते हुए कहना शुरू किया। 

गोपा के साथ मैं एक ही स्कूल में पढता था, उसके पिता हमारे स्कूल में ही टीचर थे। आठवीं तक हम एक साथ ही पढ़े उसके बाद पिताजी की मृत्यु होते ही माँ वहाँ का सब कुछ छोड़ मुझे साथ ले सीधे कोलकाता मामा घर चली आई। फिर उसके बाद कभी गाँव जाना नहीं हुआ। गोपा से भी कभी मुलाकात नहीं हुई। कॉलेज में पढ़ते हुए सुना था की गोपा की शादी हो गयी है। इतने साल बाद बचपन के दोस्त प्रदीप से मुलाकात हुई तो उससे पता चला गोपा यहाँ है। उसके हालात भी ठीक नहीं, सुन कर बहुत दुःख हुआ था। सोचा था किसी के हाथ रुपये भेज दूँगा। लेकिन उस दिन तुमलोग छुट्टी का प्लान बनाने लगे तो अचानक ही मेरे मुंह से बनारस का नाम निकल गया। शायद मन की तीव्र इच्छा ने ही शब्द रूप लिया था। लेकिन गोपा मर जाएगी मुझसे मिले बिना इस तरह चली जाएगी ये नही सोच पाया था। 

सभी चुपचाप उनकी बातें सुन रहे थे। उनके चुप होने पर डॉली बोली, ‘ये बात तो आप हमें भी बता सकते थे। हम सब मिल कर वहां जाते। 
आदित्य डॉली की बात आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘फिर इस तरह आपका एक्सीडेंट भी नहीं होता। 
इतनी देर में सूर्यशेखर के चेहरे पर एक धुंधली सी हंसी आ कर होंठों के किनारे छुप गयी। थोड़ा हंसी मिश्रित संकोच के साथ बोले, ‘तुमलोगों से मैं अपने उस पहले प्यार की बात कहता भी तो कैसे कहता। बस इसीलिए..... 
इतनी देर से राहुल चुप था वो बोला, पापा अब तो समय कितना बदल चूका है आप जानते हैं, मेरी कॉलेज की दोस्त अभी भी हमारे घर आती है और आपकी बेटी उसे बैठा कर खिलाती भी और उससे गप्पें भी मारती है। 
डॉली नकली गुस्सा दिखा कर बोली, ऊँह, खिलाऊं नहीं तो क्या करूँ आते ही बस झूठी तारीफ के पुल  बांधने लगती है, डॉली ये कितना टेस्टी बनाती हो, वो कितना अच्छा बनती हो। असल में मिलने तो आती है अपने पुराने सखा से। 
डॉली के इस अंदाज़ से कहने पर सभी हंसने लगे। माहौल भी हल्का हो चूका था। 
अब जाने की तैयारी करने में सब जुट गए लेकिन फिर बनारस आने का प्लान भी चलने लगा विन्ध्याचल देखना जो बाकी रह गया... ापा की गोपा के कारण। 

किसी ने ध्यान नही दिया, चुपचाप कब रागिनी खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गयी। कांच के उस पार गंगा का घाट सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता था, दिख नहीं रहा था घना हो आया था कोहरा। रागिनी भी कहां गंगा घाट देख रही थी वो तो उसके भी पार दूर कहीं और देख रही थी। दिमाग में कई सवालो की कड़ियाँ एक दूसरे से उलझी जा रही थी। 
सोहैल... क्या वो कभी..... इस तरह किसी दिन मेरे लिए.... 
दश्वामेध घाट पर संध्या आरती की घोषणा हो रही थी और आरती के गीत उसके कानों में तैरने लगे और उसकी सोच को भी विराम लग गया। 
रागिनी बुदबुदा उठी, ‘नहीं सोहैल नहीं, तुम मत आना, मैं ठीक हूँ.....

Sunday, 26 June 2016

कहानी : रसायन



चित्र गूगल से प्राप्त

कई दिनों से के मीठी सी गंध नाक से नहीं जा रही. बिलकुल नहीं समझ आ रहा की आखिर ये गंध कहाँ से आ रही है? मेरी आँखों से, कान से या नाभि से या की शरीर के उन अंगों से जिनके आकर्षण में दुनियाँ बंधी है. मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा, खाने को दिल नहीं कर रहा, किसी से बात करने को भी नही और यहाँ तक की पढाई करने को भी मन नहीं कर रहा.
एक वैक्यूम सा बन गया है मेरे चारो तरफ. जैसे की एक पानी भरा बैलून जिसके पार कोई आवाज़ मुझ तक नहीं पहुँच रही पिछले तीन दिनों से.
हाँ! करीब तीन दिन हो गये मैंने कुछ नहीं खाया है, सारे दिन इस खोपड़ी के भीतर कुछ खलबली सी हो रही महसूस होता है. एक मृत शरीर की तरह दोनों बांहे फैला कर पलंग के बीच में पड़ी हुई हूँ.
शरीर विज्ञान और गणित के जाल में उलझ कर महसूस हो रहा शरीर विज्ञान मेरे गणित पर हावी हो रहा है.
चित्र गूगल से प्राप्त 

गणित हमेशा से मेरा प्रिय विषय था.. न विषय नही प्रिय खेल था. गणित मेरे प्राण थे, इसके सिवा दुसरे किसी चीज़ में मेरा मन कभी नहीं लगा. कहानी, नाटक, कविता मुझे हमेशा ही वाहियात लगे. समझ नहीं आता था की लोग इतना सुर लगा-लगा कर गाते क्यों है? लेकिन माँ कहाँ समझती थी इन बातों को ज़बरदस्ती हर विधा में पारंगत करने का भूत सवार था उन पर , जबरदस्ती मुझे गाना सीखने भेज दिया करती. हर चीज़ सीखने या जानने की इतनी ज़रूरत भी क्यों है ये भी मेरी समझ में कभी नहीं आया. इन सबके बीच मुझे चाचू की बात सबसे अच्छी लगती थी, वो अक्सर कहते ‘गणित के अलावा कुछ भी करना मतलब वेस्ट ऑफ़ टाइम.’ सुन कर मैं खुश होती, मन में कहीं ये वाक्य घर कर गया था. चाचू गणित के सवाल मुझसे कराते थे इसलिए वो मुझे माँ पापा से भी ज्यादा प्यारे थे.

मेरे चाचू स्कूल में मैथ्स टीचर थे. बचपन से ही वो मुझे खेलते,खाते,घूमते हमेशा ही जबानी गणित कराते. पिता पुत्र के उम्र का अंतर निकालना, क्रय विक्रय,सूद ये सब हमदोनो खेल-खेल में ज़ुबानी हल कर लेते थे. मेरी तरह इतनी तेज़ी से अंकों के खेल का जुबानी हल निकालने में कोई और जोड़ीदार नहीं था. उन्होंने ही मुझे अपने आस-पास की चीजों के ज्यामितिक विन्यास को पहचानना सिखाया था. लेकिन एक दिन अचानक ही स्कूल से लौटते हुए एक ट्रक के धक्के से वो सड़क पर लहूलुहान हो कर गिर पड़े. मैं रोते-रोते पापा का हाथ पकड़ उन्हें देखने गयी थी उनके सर के पास खून से बना वो वृत्त मैं अभी तक नहीं भूली. इतने हिसाब मिलाने के बावजूद चाचू गति के गणित को ठीक मिला नहीं पाए. मैंने उनके कान में रोते हुए कहा था, आप ये गणित नहीं मिला पाए लेकिन मैं ज़रूर मिलाऊँगी, देखना! एक दिन गति के गणित को पकड़ कर उससे टाइम मशीन बनाउंगी और आपको वापस ला कर रहूंगी.

मेरे चाचू मेरे गणित के अंको में ही रह गये. जब भी मैं गणित ले कर बैठती मुझे उन अंकों में वो ही नजर आते. मेरी सहेलियां जब प्रेमपत्र लिखती और अगल बगल के लड़कों की बातें करती मुझे अच्छा नहीं लगता था. उस समय मुझे कुछ हुआ और माँ ने मुझे बताया की ऐसा हर लड़की को होता है लेकिन अब किसी भी लड़के से ज्यादा मिलना जुलना नहीं. माँ की बात सुनकर मेरा मन खीज उठता बहुत गुस्सा आता माँ पर... खामखाह मैं क्यों किसी लड़के से ज्यादा मिलने जुलने जाउंगी!
चित्र गूगल से प्राप्त 

लेकिन वही हुआ, और उसका कारण भी गणित ही था. मुझे हर वो व्यक्ति अच्छा लगता जिसे  गणित आता हो. उसकी हर बात हर आचरण यहाँ तक की उबासी लेना भी अच्छा लगता, वो व्यक्ति मेरे लिए ईश्वर हो जाता था.
क्लास की पढाई मेरे लिए कोई मुश्किल चीज़ नहीं थी. मैंने सेलेबस को आधार मान कर पढाई करने में कभी विश्वास ही नही किया. गणित के नये नये सवाल हल करना ही मुझे अधिक पसंद था. क्लास में हमेशा मुझे ९९ अंक मिला उससे एक अंक भी कम कभी नहीं. एक नंबर कम मुझे इसलिए मिलते थे क्योंकि मैं जानबूझ कर एक अंक के सवाल को बिना हल किये छोड़ दिया करती थी. क्योंकि चाचू मुझे सिखाये थे इस पृथ्वी में शत प्रतिशत भाग कभी मिलाया नहीं जा सकता. दुनियां में आज तक कोई नहीं मिला पाया है. गणित में सौ में सौ नम्बर गलत है.
माँ-पापा मुझे और, और ज्यादा जीनियस बनाने की कोशिश में गणित पढ़ाने के लिए घर में एक ट्यूटर रख दिए. मुझसे रोज़ नाना प्रकार के गणित हल करवाते पियूष सर. सचमुच बहुत अच्छा गणित जानते थे वो, कितना भी कठिन सवाल क्यों न हो ऐसे हल करते जैसे चुटकी बजाते हों. मुझे भी खूब मज़ा आता था. सवाल हल करने का मज़ा गुणात्मक पद्धति से बढ़ रही थी. हमारे बीच एक इंटरेस्टिंग खेल शुरू हुआ, कौन किसे कठिन से कठिन सवाल दे कर हराएगा. सर कितनी कोशिश के बाद भी मुझे हरा नहीं पाते थे. और मेरी बुद्धिमता देख उनकी आँखे चमक उठती थी. मेरे दोनों हाथों को पकड़ एक दिन उन्होंने कहा था, ‘ना! कुछ तो जादू है तुम्हारे इन हाथों में. उसके बाद मेरी सारी उँगलियों को कट कट की आवाज़ के साथ बजा कर बोलते , ‘देखों कैसे सारी उँगलियाँ बज गयी, खूब दिमाग है खोपड़ी में!’ उसके बाद से गणित बनाते बनाते मेरे हाथों से खेलना उनकी आदत सी हो गयी थी.

धीरे धीरे उनकी हिम्मत बढ़ने लगी थी, अब उनके हाथ मेरे हाथों के अतिरिक्त इधर उधर भी बढ़ने लगे थे. मुझे बहुत बुरा नहीं लगता था, बताया न.... मैं उनके गणित जानने के कारण मुग्ध थी. क्रमश: गणित हल करने में अब उनका मन नहीं रहा था, कमरे में घुसते ही कॉपी खोलने से पहले ही उसके हाथों की छटपटाहट शुरू हो जाती थी. कितने, कितने सारे मज़ेदार सवालों के उत्तर मैं बना कर रखती लेकिन उस तरफ देखने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बल्कि मेरी आँखे कितनी सुंदर है, मेरे बाल कैसे है, मेरी हंसी कैसी है ये सब बाते मेरे कानों में भिनभिनाहट की तरह आती रहती. मुझे अब उससे चिढ होने लगी थी. एक दिन जब उसके हाथ मेरे फ्रॉक के बटन पर गए तो उसके हाथ पर मैंने काट लिया था. और जोर से माँ को आवाज़ लगायी, ‘माँ... माँ इधर आना.’ वो मेरे सामने हाथ जोड़ कर अनुनय-विनय करने लगा की मैं माँ से कुछ न कहूँ, लेकिन मैंने उसकी तरफ रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया. माँ कमरे में आई तो मैंने कहा, ‘माँ सर मुझे परेशान कर रहे हैं अब मैं उनके पास पढाई नहीं करुँगी.’ वो कुछ नहीं बोले उसी समय चुपचाप सर नीचा कर के घर से निकल कर चले गए. पियूष सर बहुत अच्छा गणित सिखाते थे, पर अब कभी उनसे सीखना नहीं हो सकेगा.
चित्र गूगल से प्राप्त


स्वाभाविक था ओनर्स क्लास में मैं ही सबसे तेज़ छात्रा थी. लेकिन मैट्रिक और बारहवीं के कुल अंक और प्रतिशत में बहुतों से बहुत पीछे थी क्योंकि गणित छोड़ कर बाकी सारे विषयों में मेरा मन ही नहीं था सब में अंक कम आये थे. साहित्य में तो एक एकदम डब्बा. मुझसे ज्यादा अंक पाए लड़के लड़कियां मुझे दया की दृष्टि से ही देखते थे,लेकिन ज्यादा दिन नहीं लगा इस करुणा  भरी दृष्टि को सम्मान में बदलते. बदलने को बाध्य कर दिया था मैंने, बहुत जल्द ही क्लास के बहुत से सहपाठी मुझसे गणित के सवाल समझने में मदद लेने लगे थे. क्लास का सबसे ढक्कन लड़का था उदय. सब जानते थे इस किसी भी तरह उदय के पास होने के कोई चांस नहीं, उसने मुझसे मदद मांगी मैंने भी उसे पास करने को चुनौती की तरह लिया.

सुबह शाम उससे गणित के सवाल हल करवाती, मेरा टारगेट ही हो गया था क्लास के दूसरों लड़कों से उसे ज्यादा नम्बर लाना है. बहुत तेज़ी से उसने भी प्रोग्रेस दिखाना शुरू किया. कई लोग आश्चर्य में थे बहुतों से बहुत ज्यादा नम्बर ले कर ओनर्स पास किया था उदय और मैं हमेशा की तरह फर्स्ट क्लास फर्स्ट. अपने रिजल्ट से जितनी ख़ुशी नही थी उससे कहीं ज्यादा उदय के रिजल्ट से खुश थी.

एक दिन आ कर उसने बताया आगे की पढाई के लिए वो अब एडमिशन नहीं लेगा, मैं चौंक उठी थी , ‘ क्यों क्या हुआ, हमने तो कितने प्लानिंग किये थे एक साथ एम एस सी करेंगे फिर देश के सबसे बड़े प्रतिष्ठान में अनुसन्धान करेंगे!’ वो कंधे उचका कर बोला, ‘तो करो न तुम्हे कौन रोक रहा है. मुद्दे की बात ये है की मैं और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, तुम्हे सबसे बचा कर रखने के ज़िम्मेदारी भी तो लेनी है.’
मैं उसकी बातों का सर पैर कुछ भी नहीं समझ पा रही थी, इसलिए अवाक् उसकी ओर तकती रही.
वो बोला बैंकिंग परीक्षाओं में बैठूँगा, तुम इतने दिनों में जिस तरह मैथ्स का फंडा समझाया है और स्ट्रोंग कर दिया है मैं ज़रूर पास हो जाऊंगा. नौकरी पक्की हो जाएगी उसके बाद हम शादी कर लेंगे फिर तुम जहाँ चाहो वहां पढना मैं उसी जगह अपनी पोस्टिंग ले लूँगा. मेरा टारगेट फुलफिल. एक नौकरी मिले यही तो चाहिए ज्यादा पढना-लिखाई अब मुझे अच्छा बोर लगता है.

अंदर ही अंदर कसमसा कर रह गयी थी मैं, गणित से प्यार न कर के उदय ने मुझसे प्यार कर लिया. उसके प्रति अब मन में कोई उत्साह नहीं रहा और एक दिन निर्दयी बन कर उसके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर दिया.

एम एस सी खत्म कर मैंने एक इतिहास के अध्यापक से शादी कर ली, विषय अलग थे इसलिए कभी हमारे बीच मेधा को ले कर तनातनी की नौबत नहीं आएगी इस बात के लिए मैं निश्चिन्त हो गयी थी. महत्वकांक्षी नहीं थे मेरे पति. उन्हें बस रोज़गार करना और थोडा थोडा कर के धन जमा करना था अपने भविष्य के लिए. हमारे शादी की शर्त ही यही थी कि मैं शादी कर के उसी वर्ष तीन साल के लिए अनुसन्धान कार्य के लिए चली जाउंगी प्रवास पर और इसी बीच वो अपने भाई की नौकरी बहन की शादी जैसे घरलू दायित्वों का पालन कर लेंगे.

मैं चली आई अनुसन्धान के लिए यहाँ मुझे कमरा शेयर कर के रहना था एक दक्षिण भारतीय लड़की सी. मालती के साथ. वो बायोलॉजिकल साइंस की छात्रा थी. रेशम कीड़े पर उसका अनुसन्धान था. मादा रेशम किट के शरीर के मध्य भाग के निचले हिस्से में एक बिंदु जितना छोटा अंश है जिसमे से एक रसायन निकलता है उसके तीव्र गंध से आकर्षित होते हैं नर किट. इसे फेरोमन कहते हैं. इसी तरह का कोई रसायन क्या मानव शरीर से भी निकलता है जिससे विपरीत लिंगी आकर्षित होते हैं, अनुसन्धान के निष्कर्ष तक पहुचने में मालती खुद भी तार तार हुई जा रही थी.पुरे विश्व में कई जगह इस विषय पर अनुसन्धान हो रहे हैं.

उसके साथ मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी थी, सुंदर चंचल लड़की थी मालती. रोज़ के जींस टीशर्ट बदल कर जब वो रंग बिरंगी साड़ी और मैचिंग गहने पहन कर निकलती तो लगता था जैसे तितली उड़ी जा रही है. काफी रात गये लौटती थी, पूछने पर हंस कर कहती रेशम कीड़े पर काम करती हूँ न इसलिए कभी कभी अपने खोल उतार कर पंख फैला कर उड़ने की भी इच्छा होती है.

मेरा काम तो जैसे आगे बढ़ ही नहीं रहा था, हर दिन कोई न होर बहाना कर के मरे गाइड मुझे लौटा देते. मैं किसी भी तरीके से अपनी बात उनके सामने नहीं रख पा रही थी वो मेरी सुनते ही नहीं थे. लड़ाई करते करते धीरे  धीरे थकने लगी थी. मेरे पति भी अब अधीर हो उठे थे मेरे लौटने की बात पर, एक अवसाद मुझे घेरने लगा था. धीरे धीरे शंकित होने लगी थी की शायद पी एच डी कभी पूरी नहीं हो पायेगी. मेरे बाद शुरू कर के भी मालती की थीसिस जमा हो गयी थी. अच्छे जर्नल्स और अख़बारों में भी उसके आर्टिकल छपने लगे थे फर्स्ट या सेकंड ऑथर के नाम से. ये हमारे जैसे अनुसंधानकर्ताओं के लिए स्वप्न है क्योंकि बरसों तक सा और उनके अनुगामी शिष्यों के नाम के नीचे ही मेरी तरह के छोटे अनसंधानकर्ताओं के नाम झूलते रहते है जिस पर किसी की नज़र भी नहीं जाती. हर जगह ये बात उठ रही थी की इस बार भारत सरकार नये अनुसन्धानकर्ता का पुरस्कार मालती को ही देने जा रही है.
मेरी थीसिस पेपर इस बार भी वापस आ गये. मेरे सर बोले ‘चिंता मत करो, थोड़े करेक्शन के साथ फिर से ये पेपर्स भेजे जायेंगे. मैं सब व्यवस्था कर दूँगा. अरे मेरे ऊपर भरोसा रखो, बोल कर मेरी पीठ के खुले भाग पर उन्होंने हाथ रखा.’


घुटनों में मुंह छुपा कर कमरे में अँधेरा कर के मैं बैठी थी, मालती अन्दर आयी. मुझे देख कर बोली, ‘इस तरह मुंह छुपा कर बैठे रहने से कभी थीसिस पूरा नहीं होगा. ऊपर चड़ना है तो सीधी चढ़नी ही पड़ेगी, सिर्फ लड़कियों को ही नहीं लड़कों को भी कई परेशानियों से गुज़ारना पड़ता है. ताकत के आगे झुकना ही पड़ता है. वो तुम्हे प्रयोग करे इसके पहले तुम अपनी क्षमता का प्रयोग कर लो. छिपकली से ले कर बाघ तक सभी कैसे अपने शिकार पर झपट पड़ते हैं देखी हो न..... ईगो, स्वाभिमान इन सबको ताक पर रखना होगा अभी.

मालती की बार सुनकर कई दिनों तक खुद को समझाती रही, कोई एक रास्ता मुझे अब चुन ही लेना होगा! सर के कहने पर उस दिन मैं राज़ी हो गयी एक सेमीनार में जाने के लिए.कुछ घंटों की ही बात थी, शाम तक लौट ही आना था.
सेमिनार के बाद सर शाम को गाड़ी से पहुंचा देने के लिए साथ ही आये थे. कार की सामनेवाली सिट पर ड्राईवर और उसका एक सहयोगी बैठा था. उन दोनो को अनदेखा कर अचानक सर झपट कर मुझे पकड़ लिए और उनका चेहरा मेरे चेहरे पर था. शराब की एक तेज़ गंध मेरे नाक से होते हुए सर में चढ़ गयी. मैंने दोनों हाथ से ठेल कर उनके भरी शरीर को खुद पर से हटाया. और ड्राईवर को कहा यही गाड़ी रोको मैं खुद चली जाउंगी. पता नहीं कैसे ड्राईवर ने मेरी बात मान ली और रुक गया. मैं नीचे उतर कर शाम के धुंधलके में पैदल घसीटती हुई खुद को हॉस्टल तक पहुँच गयी.
मालती कमरा छोड़ कर जा चुकी है कुछ दिनों में वो और भी दूर चली जाएगी. आज वो होती तो अच्छा होता. उसकी बकबक से कमरा भर उठता था. आज एक सन्नाटा छाया हुआ है, ये सन्नाटा जैसे मुझे खाने को आ रहा है. एक तेज़ गंध मानों मुझे पागल किये दे रही है.
मुझे उलटी महसूस हो रही है, हाँ! यही गंध, यही गंध ही शायद फोरामन है. ना! सर के मुंह से नहीं आ रही थी. ये गंध मेरे शरीर से आ रही है. यही गंध शायद सम्मोहन का काम कर रही है हर पुरुष पर. और उसी तेज़ गंध के कारण दब जा रहे है मेरे गणित के प्राण.
मालती को एक चिट्ठी लिखना है. ‘मालती मेरी पी एच डी पूरी नहीं हो पाई.सपना अधुरा ही रह गया. तुम और सफल हो बहुत नाम कमाओ. एक ऐसा कृत्रिम फोरामन विकसित करना जिसके गंध में विष हो. मेरे तुम्हारे हम सबके लिए.’  

समाप्त