Thursday, 11 August 2016

डाइवर की डायरी से....


आज फिर गंगा में इस छोर से उस छोर तक गोता लगा कर खोज ही निकाला उस लाश को. काफी गल चुकी थी, निकालने में परेशानी भी हो रही थी लेकिन पार्टी ने कहा था अच्छे पैसे देगा. लाश बाहर आते ही घरवाले इस तरह पछाड़ खा कर रो रहे थे कि पैसा मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई. आज फिर खाली हाथ ही घर लौटना पड़ा.

गोताखोर की भी कोई कहानी होती है क्या? नहीं, कोई कहानी नहीं होती, लेकिन कितने ही हत्या, आत्महत्या और साजिश की परिणति के हम साक्षी होते हैं. कितने ही केस पुलिस फाइल में दबे रह जाते अगर लाश नहीं मिली तो और कितने ही इंश्योरेंस क्लेम ना हो पाएं अगर हम डेड बॉडी पानी से निकाल कर नही ला पाए तो...

पेशा है अखबार बेचना, लेकिन पार्ट टाइम डिसास्टर मैनेजमेंट ग्रुप में स्वंयसेवी, नाम भोलानाथ. आज फिर से गंगा में डुबकी लगाना है. सच कहता हूँ गोताखोर का काम भी कम जोखिम भरा नहीं, कई बार मृत्यु से दो-चार हाथ कर के ही हम वापस ज़मीन देख पाते है. लेकिन कुछ लोगों को तो जोखिम लेना ही पड़ेगा न; ताकि बहुत से लोग चैन से जी सकें.

गंगा के पानी में जितना आप गहरे उतरते जायेंगे- उतना ही ज्यादा दबाव महसूस करेंगे, कभी-कभी तो नाक से खून भी निकल आता है. एक बार फेसबुक प्रेम में असफल हुई महिला ने ख़ुदकुशी करने के लिए गंगा को ही चुना. उसकी लाश खोजते-खोजते मैं खुद ही लाश हो जा रहा था.
नदी के पानी में जब सूरज की रौशनी पड़ती है तब उसका रंग मटमैला दिखता है, उस समय लाश खोजने में कम दिक्कत होती है; लेकिन गहरे पानी में एकदम अँधेरा होता है, हाथ मार-मार कर अंदाज़ा लगाना पड़ता है कि ये लाश हो सकती है. नदी का पानी रंगभेद भी नहीं करता, हर लाश जो कुछ घंटे पानी में डूबी रही हो सफ़ेद ही दिखाई देती है चाहे व्यक्ति कितना भी काला ही क्यों न रहा हो. स्त्री और पुरुष की लाश पहचानना भी आसान होता है. अगर लाश पुरुष की है तो वो चित्त पड़ा मिलेगा और महिला की लाश हो तो पीठ के बल पड़ी होगी. लेकिन फिर भी इतने समय तक लाश पानी में पड़ी रहने के बाद उसे बाहर ले कर आना कठिन हो जाता है कई बार तो लाश बाहर निकालने के बाद चार दिन तक ठीक से खाना भी नहीं खा पाता. पानी के अंदर लाश इतनी गल जाती है कि खींच कर निकालने की कोशिश में लाश की चमड़ी सहित आंतें हाथ में आ जाती हैं. या फिर देखा जाता है कि लाश के कुछ हिस्से पानी के जीवों ने खा लिए हैं, रस्सी से बाँध कर लाश उठाने के प्रयास में चमड़ी और मांस गल कर गिरते रहते है.

वैसे आप ये मत सोचिये कि हमें हमेशा ही लाश खोजने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, ऐसा नहीं. शीत ऋतु इस काम में बहुत सहायक है, इस मौसम में लाश बहुत जल्दी ही उभर कर सतह  के करीब आ जाती है उस समय एक बांस से ठेल कर या रस्सी बाँध कर तुरंत खींच कर ऊपर ले आता हूँ. ग्रीष्म काल बहुत मुश्किलें खड़ी करती है, सतह पर लाश जल्दी नहीं आती और पानी में इतने गहरे डूबी रहती है कि कई बार उसे निकालने में सर्प दंश का शिकार या मछली के काटे जाने का भी डर रहता है. लाश खोजते हुए हाथ कभी-कभी पत्थरों के नीचे भी आ जाता है.


आमतौर पर हम सांप के काटे जाने पर ज्यादा भयभीत होतें है लेकिन गंगा के पानी में इतने जहरीले साँप नही जितनी की काट खाने वाली मछलियां. कुछ ,मछलियाँ तो निशाना साध कर काँटों से वार करती हैं- उनका बस चले तो नाक नोच कर ले जाएं.

आप सोचते होंगे, लाश देर-सवेर मिल ही जाती होंगी. लेकिन ये हमेशा नहीं होता नदी के नीचे इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते है कि एक बार लाश उसमें धंस गयी तो शायद कभी हाथ न आएगी.
एक बार एक परिवार अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमने आया था. दोनों बच्चे घाट पर ही पानी से खेल रहे थे. अचानक बड़े बच्चे का पांव फिसला और वो पानी में बह गया मैंने बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिला, उसकी माँ पछाड़ खा कर रो रही थी लेकिन मैं उसके बेटे को जिंदा तो क्या उसे यकीन दिलाने के लिए कि उसका बच्चा अब नहीं रहा, उसकी लाश तक नहीं दे सका.

ओह! एक बात का ज़िक्र करना तो भूल ही गया था, डाइवर्स का काम दो तरह का होता है.... एक लाइव और दूसरा रिकॉर्डिंग. चौंक गए!!  ( तो सुनिए.
मान लीजिये आप घाट पर या बीच पर हैं, अचानक आपके सामने ही कोई कूद पड़ा तो आपके पास और कोई चारा नहीं उसे बचाने के लिए तुरंत कूदना ही पड़ेगा ताकि समय पर बचाया जा सके, ये हुआ लाइव वर्क और रिकॉर्डिंग मतलब पुलिस जब खबर दे, कहीं पर कोई दुर्घटना घटी है तब वहाँ सारे इंतजाम के साथ जा कर नदी में डुबकी लगानी पड़ती है और ये सर्च कितनी देर में खत्म होगी कहा भी नहीं जा सकता. तो हुआ न ये रिकॉर्डिंग!
 एक बात और बताता हूँ- इतने साल से ये काम करते- करते अब तो किनारे बैठे हुए देख कर बता सकता हूँ कि कोई अपने-आप गिर गया या डाइव लगाया. वक्त रहते नजर पड़ जाए तो तुरंत समझ आ जाता है सामने वाला यूँ ही खड़ा है या ईरादा आत्महत्या का है.

बड़ी नदियों की धार बहुत तेज़ होती है और कहीं-कहीं करंट भी होता है, इसलिए तैरना जानते भी हों तो भी सावधानी रखनी चाहिए.

Tuesday, 2 August 2016

कहानी : इच्छापुरण , लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर



 चित्र साभार गूगल 

सुबलचन्द्र के बेटे का नाम सुशीलचन्द्र है. लेकिन हमेशा नाम के अनुरूप व्यक्ति भी हो ऐसा कतई ज़रूरी नहीं. तभी तो सुबलचन्द्र दुर्बल थे और उनका बेटा सुशीलचन्द्र बिलकुल भी शांत नही बल्कि बहुत चंचल था.

उनका बेटा सुशील पुरे मोहल्ले को परेशान कर रखता था इसलिए कभी-कभी पिता, पुत्र को नियंत्रण में रखने के लिए भाग कर आते लेकिन पिता के पैर में गठिया का दर्द और बेटा भागता था हिरन जैसा. नतीजा थप्पड़, लात, मार कुटाई कुछ भी सही जगह पर नहीं पड़ता था. लेकिन सुशीलचन्द्र जिस दिन पकड़ में आता उस दिन उसके पिता के हाथों से बचा पाना किसी के सामर्थ्य में नहीं रहता.

आज शनिवार के दिन स्कूल में दो बजे ही छुट्टी हो जाती है लेकिन आज सुशील का किसी भी तरह स्कूल जाने का मन नही हो रहा था. इसके बहुत सारे कारण थे. पहले तो आज स्कूल में भूगोल की परीक्षा है दूसरे, मोहल्ले के बोस निवास में आज पटाखे फोड़ने का कार्यक्रम तय है. सुबह से ही वहाँ धूमधाम चल रही है. सुशील की इच्छा है आज सारा दिन वहीँ बिताये.

बहुत सोचने के बाद सुशील स्कूल जाने के समय अपने बिस्तर पर जा कर लेट गया. उसके पिता ने आकर पूछा- ‘क्या रे, इस समय बिस्तर पर पड़ा है, आज स्कूल नही जाना क्या?’
सुशील बोला, ‘मेरे पेट में मरोड़ उठ रहे है, आज मैं स्कूल नहीं जा पाऊंगा.’
पिता सुबल उसके झूठ को समझ गये, मन-ही-मन बोले, ‘रुक! आज तेरा कुछ उपाय करना ही होगा.’ सुशील से बोले, ‘पेट में मरोड़ उठ रहे है?’ फिर तो आज कहीं जाने की ज़रूरत नहीं. बोस निवास में पटाखे देखने हरि को अकेले ही भेज देता हूँ, तुम यहाँ चुपचाप पड़े रहो मैं अभी तुम्हारे लिए पाचक तैयार कर के लाता हूँ.’

सुशील के कमरे से निकल कर बाहर सांकल लगा दिया और बहुत कड़वा सा एक पाचक तैयार करने चले गये. सुशील तो अब भारी मुश्किल में पड़ गया. लेमनचूस खाना उसे जितना ही अच्छा लगता था उतना ही बुरा पाचक खाने में लगता था उसे तो अब मुसीबत नजर आने लगी थी. उधर बोस निवास जाने के लिए तो कल रात से ही उसका मन छटपटा रहा था, लेकिन....

सुबलचन्द्र जब एक बड़े से कटोरे में कड़वा पाचक ले कर कमरे में आये तो सुशील तुरंत बिस्तर से उतर गया और बोला, ‘मेरा पेट दर्द एकदम ठीक हो गया है. मैं आज स्कूल जाऊंगा.’

पिता बोलें, ‘न ना! आज जाने की ज़रूरत नहीं.तुम पाचक खा कर चुपचाप सोये रहो.’ ये बोल कर सुबलचन्द्र जबरदस्ती सुशील को पाचक खिला कर बाहर से कमरे में ताला लगा कर चले गये.

सुशील बिस्तर पर पड़े रोते-रोते सारा दिन केवल मन-ही-मन यही कहता रहा, ‘काश, मैं अगर बाबा के जितनी उम्र का होता तो कितना अच्छा होता जो मेरे इच्छा होती वही करता और कोई मुझे ऐसे कमरे में बंद कर के नहीं जा पाता.’

उसके पिता सुबल चन्द्र बाहर अकेले बठे बैठे सोच रहे थे, ‘मेरे माता पिता मुझे बहुत ज्यादा ही प्यार दुलार देते थे इसलिए मैं अच्छी तरह पढाई लिखाई कुछ भी नहीं कर पाया. काश, यदि फिर से बचपन मिल जाता तो फिर कुछ भी हो जाए पहले की तरह समय बर्बाद नही कर के , मन लगा कर पढाई करता.’

इच्छापूरण देव उस समय उनके घर के सामने से जा रहे थे. वो पिता और पुत्र के मन की इच्छा जान कर सोचने लगे. ‘अच्छा कुछ दिन इन लोगों की इच्छा पूरी कर के देखा जाये.’

ये सोच कर वो पिता से बोले, ‘तुम्हारी इच्छा पूरी होगी. कल होते ही तुम तुम्हारे बेटे की उम्र प्राप्त करोगे.’ बेटे से जा कर बोले, ‘कल होते ही तुम तुम्हरे पिता के उम्र के हो जाओगे.’ सुन कर दोनों ही बहुत खुश हो गए.

वृद्ध सुबलचन्द्र रात में ठीक से सो नहीं पाते थे भोर के वक्त थोड़ी नींद आ जाती थी. लेकिन आज पता नहीं क्या हुआ उन्हें भोर होते ही एकदम कूद कर बिस्तर से नीचे उतर आये . उन्होंने देखा कि वो बहुत छोटे हो गये है. उनके दांत जो गिर गये थे सब अपनी जगह पर आ गये हैं, दाढ़ी मूंछ सब गायब. रात में जो धोती और कुरता पहन कर सोये थे वो इतना बड़ा हो गया है की उसकी आस्तीन झूल कर ज़मीन छू रही थी. कुरते का गला छाती तक उठ आया है और धोती इतनी बड़ी की ज़मीन पर ठीक से पाँव रख कर चल भी नहीं पा रहे.
हमारे सुशील बाबू रोज उठते ही दुरात्मा की तरह दौड़ते फिरते है, लेकिन आज उनकी नींद ही नहीं टूट रही; जब अपने पिता सुबल चन्द्र के चिल्लाने की आवाज़ से उसकी नींद खुली तो देखा उसके पहने हुए कपड़े इस तरह छोटे हो कर चिपक गये हैं की उसके चीथड़े हो कर शरीर से अलग हो जायेंगे. पूरा शरीर बढ़ गया है, काले सफ़ेद दाढ़ी-मूंछ के कारण आधा चेहरा दिखाई ही नहीं देता; उसके सर पर कितने बाल थे लेकिन आज हाथ फेर कर देख रहा सामने से गंजा हो गया जो की दिन के उजाले में चमक रहा है. आज सुशील चन्द्र कई बार उठने के प्रयास में इस तरफ उस तरफ करते हुए बार बार सो जा रहा है लेकिन अंत में अपने पिता के इतनी चीख पुकार के मारे उसे उठना ही पड़ा.

दोनों के ही मन की इच्छा पूरी हुई लेकिन बहुत मुश्किलें भी खड़ी हो गयी. पहले ही बताया था कि सुशील चन्द्र की इच्छाएँ थी यदि अपने पिता की उम्र का हो जायेगा तो स्वाधीन होगा, पेड़ पर चढ़ कर तालाब में कूदेगा, कच्चे आम खायेगा, चिड़ियों के बच्चे पकड़ेगा, पूरी दुनियां घुमेगा- फिरेगा और जब इच्छा होगी घर में आ कर जो इच्छा हो वही खायेगा कोई उसे कुछ नहीं कहेगा. लेकिन आश्चर्य! उस दिन सवेरे से उसे पेड़ पर चढ़ने की इच्छा ही नहीं हुई, पानी देख कर कूदने की इच्छा तो दूर उसे लग रहा था की अगर कूदा तो उसे बुखार आ जायेगा. वो चुपचाप बरामदे में एक चटाई बिछा कर बैठ सोचने लगा.

एकबार मन में आया खेल-कूद एकदम से छोड़ देना ठीक नहीं होता, एक बार कोशिश कर के ही देखा जाये. ये सोच कर पास ही एक आमड़ा पेड़ था उसी पर चढ़ने की कोशिश करने लगा. कल तक जिस पेड़ पर वो गिलहरी की तरह झटपट चढ़ जा रहा था आज इस बूढ़े शरीर के साथ किसी भी तरह संभव नहीं हो रहा था. पेड़ की एक नाजुक डाल पर शरीर का भार देते ही वो डाल भारी शरीर का भार वहन ना कर पायी और टूट कर ज़मीन पर गिर गयी, साथ में बूढा सुशील चन्द्र भी धड़ाम से गिर पड़ा. पास के सड़क पर लोग जा रहे थे उन्होंने जब एक बूढ़े को बच्चे की तरह पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करते देखा तो हँसते हँसते बेहाल हो गये. सुशील शर्म से सर नीचा किये हुए फिर से उसी चटाई पर आ कर बैठ गया. नौकर से बोला, ‘सुनो, बाज़ार से एक रूपये  का लेमनचूस खरीद लाओ.’

लेमनचूस का सुशील चन्द्र को विशेष लोभ था. स्कूल के पास के दूकान में वो रंग बिरंगे लेमनचूस सजाया हुआ देखता; दो-चार पैसे जो भी मिलते उसी से लेमनचूस खाता था. सोचता था जब पिता के जितना बड़ा हो जायेगा तब पॉकेट भर भर कर लेमनचूस खरीदेगा और जी भर कर खायेगा. आज नौकर एक रुपये में ढेर सारा लेमनचूस खरीद कर ला दिया उसी में से एक उठा कर उसने अपने दन्त विहीन मुंह में डाल कर चूसने लगा लेकिन बूढ़े मुंह में बच्चों की पसंद का लोजेंस स्वाद मुताबिक नहीं बल्कि बेस्वाद लग रहा था. एक बार सोचा ; ये सब छोटे हो गये बाबा को खिलाया जाये, लेकिन दुसरे ही पल सोचा, ‘ ना! देना ठीक नहीं होगा, ये सब खा कर तबियत ख़राब हो जाएगी.

कल तक जो लड़के छोटे सुशील चन्द्र के साथ कबड्डी खेलने आते थे आज वो बूढ़े सुशील चन्द्र को देख छिटक कर दूर चले गये.

सुशील सोचा करता था पिता की तरह आज़ाद होने पर वो सारा दिन अपने लड़के-दोस्तों के साथ डू-डू आवाज़ करते हुए कबड्डी खेलता रहेगा. लेकिन आज राखाल, गोपाल, निवारण,अक्षय, हरीश को देख कर मन-ही
-मन खीज उठा, सोचा, अभी चुपचाप यहाँ बैठा हूँ  अभी लड़के आयेंगे और अचानक ही हुडदंग मचाने लगेंगे.

पहले ही बताया है, सुबलचन्द्र अपने बरामदे में बैठ कर रोज़ सोचा करते थे मैं जब छोटा था शैतानी कर-कर के केवल समय ही बर्बाद किया है, अगर बचपन दुबारा मिल जाये तो एक बार शांत और अच्छे बच्चे की तरह सारा दिन कमरे का दरवाज़ा बंद कर के सिर्फ पढाई-लिखाई करूँगा.यहाँ तक कि शाम को दादीमाँ के पास कहानी सुनने भी नहीं जाऊंगा, रात दस-ग्यारह बजे तक प्रदीप जला कर पढाई पूरी करूँगा.

लेकिन बचपन वापस पा कर वो किसी भी तरह स्कूल जाने को तैयार नही. सुशील तंग हो कर बोलता, ‘बाबा स्कूल नहीं जायेंगे क्या?’ सुबलचन्द्र मुंह नीचे कर सर खुजाते हुए धीरे-धीरे कहते, आज मेरे पेट में मरोड़ उठ रहे हैं, आज स्कूल नही जा सकूँगा. सुशील चन्द्र नाराज़ हो कर बोला, जायेंगे कैसे नहीं? स्कूल जाते समय मेरा भी इस तरह खूब पेट दर्द हुआ है, मैं ये सब खूब जानता हूँ.’

छोटा सुशील नित नये उपाय निकाल कर स्कूल से अनुपस्थित रहता था कि इस वक्त सुबल चन्द्र का उसे झांसा देने का कोई भी उपाय व्यर्थ था.सुशील ज़बरदस्ती छोटे पिता को स्कूल भेजने लगा. स्कूल से लौट कर छोटा पिता खेलने-कूदने और उधम मचाने लग जाता लेकिन, उसी समय वृद्ध सुशील चन्द्र एक रामायण की किताब ले कर सस्वर पाठ करना आरम्भ कर देते. सुबल चन्द्र के उधम मचाने के कारण वृद्ध पुत्र के पढने में व्यवधान उत्पन्न होता था इसलिए छोटे पिता को नियंत्रण में रखने के लिए उसे एक स्लेट पकड़ा देता जिसमें बहुत कठिन-कठिन गणित के सवाल होते. इतने कठिन सवालों में से एक ही हल करने में छोटे पिता का एक घंटा निकल जाता. शाम को बूढ़े सुशीलचन्द्र के कमरे में और कई बूढ़े मिल कर शतरंज खेला करते. उस समय सुबलचन्द्र को ठंडा रखने के लिए सुशीलचन्द्र ने एक मास्टर रख दिया, मास्टर रात दस बजे तक उसे पढ़ाता रहता.

भोजन के विषय में सुशील बड़ा कडक था ,क्योंकि उसके पिता सुबलचन्द्र जब वृद्ध थे उन्हें अपना खाना ठीक से हजम नहीं होता था, थोडा सा भी ज्यादा खा ले तो खट्टे डकार आने लगते थे —ये बात सुशील चन्द्र को अच्छी तरह याद थी इसीलिए वो अपने पिता को कैसे भी अधिक खाने नहीं देता था. इधर सुबलचन्द्र के छोटे हो जाने के बाद से पेट में जैसे आग लगी रहती हमेशा ही भूख लगती जैसे पत्थर भी खाये तो हजम हो जाये ऐसी स्थिति हो गयी थी. सुशील उन्हें इतना कम खाने देता कि भूख के मारे वो छ्टपट करते. अंत में सूख कर उनके शरीर की हड्डियाँ बाहर दिखने लगी. सुशील सोचा, ज़रूर कोई गंभीर बीमारी हुई है इसलिए वो तरह-तरह की दवाइयां खिलाने लगा.

बूढ़े सुशील को भी रोज़ मुश्किलें आने लगीं. वो अपने पहले की आदत अनुसार जो भी करने जाता उसे सह्य नहीं हो रहा था. पहले मोहल्ले में कहीं भी नाटक-नौटंकी की खबर सुनता तो घर से भाग कर ठीक पहुँच जाता था, चाहे जाड़ा-बरसात कुछ भी हो. आज का सुशील ऐसा करते हुए सर्दी लग कर खांसी शरीर दर्द के साथ तीन सप्ताह के लिए बिस्तर पकड लिया. हमेशा से ही वो तालाब में नहाता है लेकिन आज भी वही करने से हाथ-पाँव में गठिया का दर्द और सुजन उभर आया, जिसकी चिकत्सा करने में छह महीने लग गये. उसके बाद से ही वो गर्म पानी से ही नहाता है और पिता सुबलचन्द्र को भी तालाब में नहाने जाने नहीं देता. पुरानी आदत मुताबिक भूल कर जब भी पलंग से कूद कर उतरने जाता तो हाथ पैर की हड्डियाँ टनटना जाती है. मुंह में एक पूरा पान ठूंस का उसे ध्यान आता है कि उसे दांत नहीं हैं, चबाने में बहुत ही कष्ट है. बाल सवांरने के लिए कंघी सर पर चलाते ही याद आता है कि सर पर तो बाल ही नहीं. जब कभी ये भूल जाता है कि वो अपने पिता की उम्र का हो गया है और पहले की तरह शैतानी करते हुए बूढी आनंदी बुआ की मटकी पर पत्थर मारने लगता तो लोग बूढ़े को बच्चों की तरह शरारत करते देख मारो-मारो, चिल्ला कर मारने दौड़ते. तब वो खुद ही संकोच में पड़ कर चुपचाप घर में घुस जाता.

सुबल चन्द्र भी कभी-कभी भूल जाता कि वो अब बूढ़ा से छोकरा हो गया है और जा कर वहां बैठ जाता जहाँ और बूढ़े लोग ताश-पासा खेल रहे होते और बूढों की तरह ही बातें करता तो वहाँ लोग उसे भगाने लगते कहते, ‘ जाओ-जाओ जा कर खेलो यहाँ बैठ कर बड़ों के बीच बड़ा बनने को चेष्टा मत करो.’ अचानक भूल कर मास्टर से भी बोल पड़ता, ‘ज़रा तम्बाकू दो तो, तलब लगी है’ सुन कर मास्टर जी उसे एक पाँव पर बेंच पर खड़ा कर देते. इसी तरह एक दिन नाई को बोला, ‘कितने दिन हो गये तू मेरी दाढ़ी बनाने नहीं आया?’नाई भी उसकी ओर देख कर जवाब दिया, ‘आऊंगा और 10 साल बीतने दो फिर आऊंगा.’ फिर कभी-कभी आदत मुताबिक जा कर अपने बेटे सुशील को पिटता तो सुशील उनसे कहता, ‘पढाई लिखाई कर के यही शिक्षा मिली है, एक रत्ती लड़का और बड़ों पर हाथ उठाना?’ वैसे आस-पास लोग जमा हो जाते और कोई थप्पड़ तो कोई डांट तो कोई समझाने लगता.

तब सुबल एकनिष्ठ हो कर प्रार्थना करने लगता, आहा! अगर मैं अपने बेटे सुशील की तरह बुढा हो जाऊं और आजाद रहूँ तो कितना ही अच्छा हो!’
इधर सुशील भी मन ही मन हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता, ‘ हे देवता, मुझे मेरे पिता की तरह छोटा कर दो कितना अच्छा होगा मैं पहले की तरह ही खेल-कूद, घूमना-फिरना कर सकूँगा!’
पिता जी जिस तरह शैतानी करने लगे हैं उन्हें अब और मैं संभाल नही सकता. पहले ही तो अच्छा था.

तब इच्छापूरण देव आ कर बोले, ‘कैसा लग रहा है, तुम दोनों की इच्छा पूरी हुई न! शौक मिटा या नहीं?’
दोनों ही साष्टांग हो कर देवता से बोले, ‘दुहाई हो! हम जैसे थे हमें फिर से वैसा ही बना दीजिये. सब शौक मिट गये.

देवता बोले, ‘ठीक है कल सुबह नींद से जागने पर तुम दोनों पूर्ववत हो जाओगे.’

दुसरे दिन सुबल चन्द्र फिर से बूढ़े और सुशील फिर से बच्चा बन गया. दोनों को लगा जैसे कोई सपना देख कर अभी नींद से जागे हों.
सुबल चन्द्र आवाज़ भारी कर के आवाज़ लगाये, ‘सुशील, व्याकरण याद नहीं करना है.’
सुशील सर खुजाते हुए मुंह नीचा कर के बोला, ‘पिताजी, मेरी व्याकरण की किताब खो गयी है.’