डाइवर की डायरी से....
आज फिर गंगा में इस छोर से उस छोर तक गोता लगा कर खोज ही निकाला उस लाश को. काफी गल चुकी थी, निकालने में परेशानी भी हो रही थी लेकिन पार्टी ने कहा था अच्छे पैसे देगा. लाश बाहर आते ही घरवाले इस तरह पछाड़ खा कर रो रहे थे कि पैसा मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई. आज फिर खाली हाथ ही घर लौटना पड़ा.
गोताखोर की भी कोई कहानी होती है क्या? नहीं, कोई कहानी नहीं होती, लेकिन कितने ही हत्या, आत्महत्या और साजिश की परिणति के हम साक्षी होते हैं. कितने ही केस पुलिस फाइल में दबे रह जाते अगर लाश नहीं मिली तो और कितने ही इंश्योरेंस क्लेम ना हो पाएं अगर हम डेड बॉडी पानी से निकाल कर नही ला पाए तो...
पेशा है अखबार बेचना, लेकिन पार्ट टाइम डिसास्टर मैनेजमेंट ग्रुप में स्वंयसेवी, नाम भोलानाथ. आज फिर से गंगा में डुबकी लगाना है. सच कहता हूँ गोताखोर का काम भी कम जोखिम भरा नहीं, कई बार मृत्यु से दो-चार हाथ कर के ही हम वापस ज़मीन देख पाते है. लेकिन कुछ लोगों को तो जोखिम लेना ही पड़ेगा न; ताकि बहुत से लोग चैन से जी सकें.
गंगा के पानी में जितना आप गहरे उतरते जायेंगे- उतना ही ज्यादा दबाव महसूस करेंगे, कभी-कभी तो नाक से खून भी निकल आता है. एक बार फेसबुक प्रेम में असफल हुई महिला ने ख़ुदकुशी करने के लिए गंगा को ही चुना. उसकी लाश खोजते-खोजते मैं खुद ही लाश हो जा रहा था.
नदी के पानी में जब सूरज की रौशनी पड़ती है तब उसका रंग मटमैला दिखता है, उस समय लाश खोजने में कम दिक्कत होती है; लेकिन गहरे पानी में एकदम अँधेरा होता है, हाथ मार-मार कर अंदाज़ा लगाना पड़ता है कि ये लाश हो सकती है. नदी का पानी रंगभेद भी नहीं करता, हर लाश जो कुछ घंटे पानी में डूबी रही हो सफ़ेद ही दिखाई देती है चाहे व्यक्ति कितना भी काला ही क्यों न रहा हो. स्त्री और पुरुष की लाश पहचानना भी आसान होता है. अगर लाश पुरुष की है तो वो चित्त पड़ा मिलेगा और महिला की लाश हो तो पीठ के बल पड़ी होगी. लेकिन फिर भी इतने समय तक लाश पानी में पड़ी रहने के बाद उसे बाहर ले कर आना कठिन हो जाता है कई बार तो लाश बाहर निकालने के बाद चार दिन तक ठीक से खाना भी नहीं खा पाता. पानी के अंदर लाश इतनी गल जाती है कि खींच कर निकालने की कोशिश में लाश की चमड़ी सहित आंतें हाथ में आ जाती हैं. या फिर देखा जाता है कि लाश के कुछ हिस्से पानी के जीवों ने खा लिए हैं, रस्सी से बाँध कर लाश उठाने के प्रयास में चमड़ी और मांस गल कर गिरते रहते है.
वैसे आप ये मत सोचिये कि हमें हमेशा ही लाश खोजने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, ऐसा नहीं. शीत ऋतु इस काम में बहुत सहायक है, इस मौसम में लाश बहुत जल्दी ही उभर कर सतह के करीब आ जाती है उस समय एक बांस से ठेल कर या रस्सी बाँध कर तुरंत खींच कर ऊपर ले आता हूँ. ग्रीष्म काल बहुत मुश्किलें खड़ी करती है, सतह पर लाश जल्दी नहीं आती और पानी में इतने गहरे डूबी रहती है कि कई बार उसे निकालने में सर्प दंश का शिकार या मछली के काटे जाने का भी डर रहता है. लाश खोजते हुए हाथ कभी-कभी पत्थरों के नीचे भी आ जाता है.
आमतौर पर हम सांप के काटे जाने पर ज्यादा भयभीत होतें है लेकिन गंगा के पानी में इतने जहरीले साँप नही जितनी की काट खाने वाली मछलियां. कुछ ,मछलियाँ तो निशाना साध कर काँटों से वार करती हैं- उनका बस चले तो नाक नोच कर ले जाएं.
आप सोचते होंगे, लाश देर-सवेर मिल ही जाती होंगी. लेकिन ये हमेशा नहीं होता नदी के नीचे इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते है कि एक बार लाश उसमें धंस गयी तो शायद कभी हाथ न आएगी.
एक बार एक परिवार अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमने आया था. दोनों बच्चे घाट पर ही पानी से खेल रहे थे. अचानक बड़े बच्चे का पांव फिसला और वो पानी में बह गया मैंने बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिला, उसकी माँ पछाड़ खा कर रो रही थी लेकिन मैं उसके बेटे को जिंदा तो क्या उसे यकीन दिलाने के लिए कि उसका बच्चा अब नहीं रहा, उसकी लाश तक नहीं दे सका.
ओह! एक बात का ज़िक्र करना तो भूल ही गया था, डाइवर्स का काम दो तरह का होता है.... एक लाइव और दूसरा रिकॉर्डिंग. चौंक गए!! ( तो सुनिए.
मान लीजिये आप घाट पर या बीच पर हैं, अचानक आपके सामने ही कोई कूद पड़ा तो आपके पास और कोई चारा नहीं उसे बचाने के लिए तुरंत कूदना ही पड़ेगा ताकि समय पर बचाया जा सके, ये हुआ लाइव वर्क और रिकॉर्डिंग मतलब पुलिस जब खबर दे, कहीं पर कोई दुर्घटना घटी है तब वहाँ सारे इंतजाम के साथ जा कर नदी में डुबकी लगानी पड़ती है और ये सर्च कितनी देर में खत्म होगी कहा भी नहीं जा सकता. तो हुआ न ये रिकॉर्डिंग!
एक बात और बताता हूँ- इतने साल से ये काम करते- करते अब तो किनारे बैठे हुए देख कर बता सकता हूँ कि कोई अपने-आप गिर गया या डाइव लगाया. वक्त रहते नजर पड़ जाए तो तुरंत समझ आ जाता है सामने वाला यूँ ही खड़ा है या ईरादा आत्महत्या का है.
बड़ी नदियों की धार बहुत तेज़ होती है और कहीं-कहीं करंट भी होता है, इसलिए तैरना जानते भी हों तो भी सावधानी रखनी चाहिए.
आज फिर गंगा में इस छोर से उस छोर तक गोता लगा कर खोज ही निकाला उस लाश को. काफी गल चुकी थी, निकालने में परेशानी भी हो रही थी लेकिन पार्टी ने कहा था अच्छे पैसे देगा. लाश बाहर आते ही घरवाले इस तरह पछाड़ खा कर रो रहे थे कि पैसा मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई. आज फिर खाली हाथ ही घर लौटना पड़ा.
गोताखोर की भी कोई कहानी होती है क्या? नहीं, कोई कहानी नहीं होती, लेकिन कितने ही हत्या, आत्महत्या और साजिश की परिणति के हम साक्षी होते हैं. कितने ही केस पुलिस फाइल में दबे रह जाते अगर लाश नहीं मिली तो और कितने ही इंश्योरेंस क्लेम ना हो पाएं अगर हम डेड बॉडी पानी से निकाल कर नही ला पाए तो...
पेशा है अखबार बेचना, लेकिन पार्ट टाइम डिसास्टर मैनेजमेंट ग्रुप में स्वंयसेवी, नाम भोलानाथ. आज फिर से गंगा में डुबकी लगाना है. सच कहता हूँ गोताखोर का काम भी कम जोखिम भरा नहीं, कई बार मृत्यु से दो-चार हाथ कर के ही हम वापस ज़मीन देख पाते है. लेकिन कुछ लोगों को तो जोखिम लेना ही पड़ेगा न; ताकि बहुत से लोग चैन से जी सकें.
गंगा के पानी में जितना आप गहरे उतरते जायेंगे- उतना ही ज्यादा दबाव महसूस करेंगे, कभी-कभी तो नाक से खून भी निकल आता है. एक बार फेसबुक प्रेम में असफल हुई महिला ने ख़ुदकुशी करने के लिए गंगा को ही चुना. उसकी लाश खोजते-खोजते मैं खुद ही लाश हो जा रहा था.
नदी के पानी में जब सूरज की रौशनी पड़ती है तब उसका रंग मटमैला दिखता है, उस समय लाश खोजने में कम दिक्कत होती है; लेकिन गहरे पानी में एकदम अँधेरा होता है, हाथ मार-मार कर अंदाज़ा लगाना पड़ता है कि ये लाश हो सकती है. नदी का पानी रंगभेद भी नहीं करता, हर लाश जो कुछ घंटे पानी में डूबी रही हो सफ़ेद ही दिखाई देती है चाहे व्यक्ति कितना भी काला ही क्यों न रहा हो. स्त्री और पुरुष की लाश पहचानना भी आसान होता है. अगर लाश पुरुष की है तो वो चित्त पड़ा मिलेगा और महिला की लाश हो तो पीठ के बल पड़ी होगी. लेकिन फिर भी इतने समय तक लाश पानी में पड़ी रहने के बाद उसे बाहर ले कर आना कठिन हो जाता है कई बार तो लाश बाहर निकालने के बाद चार दिन तक ठीक से खाना भी नहीं खा पाता. पानी के अंदर लाश इतनी गल जाती है कि खींच कर निकालने की कोशिश में लाश की चमड़ी सहित आंतें हाथ में आ जाती हैं. या फिर देखा जाता है कि लाश के कुछ हिस्से पानी के जीवों ने खा लिए हैं, रस्सी से बाँध कर लाश उठाने के प्रयास में चमड़ी और मांस गल कर गिरते रहते है.
वैसे आप ये मत सोचिये कि हमें हमेशा ही लाश खोजने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, ऐसा नहीं. शीत ऋतु इस काम में बहुत सहायक है, इस मौसम में लाश बहुत जल्दी ही उभर कर सतह के करीब आ जाती है उस समय एक बांस से ठेल कर या रस्सी बाँध कर तुरंत खींच कर ऊपर ले आता हूँ. ग्रीष्म काल बहुत मुश्किलें खड़ी करती है, सतह पर लाश जल्दी नहीं आती और पानी में इतने गहरे डूबी रहती है कि कई बार उसे निकालने में सर्प दंश का शिकार या मछली के काटे जाने का भी डर रहता है. लाश खोजते हुए हाथ कभी-कभी पत्थरों के नीचे भी आ जाता है.
आमतौर पर हम सांप के काटे जाने पर ज्यादा भयभीत होतें है लेकिन गंगा के पानी में इतने जहरीले साँप नही जितनी की काट खाने वाली मछलियां. कुछ ,मछलियाँ तो निशाना साध कर काँटों से वार करती हैं- उनका बस चले तो नाक नोच कर ले जाएं.
आप सोचते होंगे, लाश देर-सवेर मिल ही जाती होंगी. लेकिन ये हमेशा नहीं होता नदी के नीचे इतने बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते है कि एक बार लाश उसमें धंस गयी तो शायद कभी हाथ न आएगी.
एक बार एक परिवार अपने दो छोटे बच्चों के साथ घुमने आया था. दोनों बच्चे घाट पर ही पानी से खेल रहे थे. अचानक बड़े बच्चे का पांव फिसला और वो पानी में बह गया मैंने बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिला, उसकी माँ पछाड़ खा कर रो रही थी लेकिन मैं उसके बेटे को जिंदा तो क्या उसे यकीन दिलाने के लिए कि उसका बच्चा अब नहीं रहा, उसकी लाश तक नहीं दे सका.
ओह! एक बात का ज़िक्र करना तो भूल ही गया था, डाइवर्स का काम दो तरह का होता है.... एक लाइव और दूसरा रिकॉर्डिंग. चौंक गए!! ( तो सुनिए.
मान लीजिये आप घाट पर या बीच पर हैं, अचानक आपके सामने ही कोई कूद पड़ा तो आपके पास और कोई चारा नहीं उसे बचाने के लिए तुरंत कूदना ही पड़ेगा ताकि समय पर बचाया जा सके, ये हुआ लाइव वर्क और रिकॉर्डिंग मतलब पुलिस जब खबर दे, कहीं पर कोई दुर्घटना घटी है तब वहाँ सारे इंतजाम के साथ जा कर नदी में डुबकी लगानी पड़ती है और ये सर्च कितनी देर में खत्म होगी कहा भी नहीं जा सकता. तो हुआ न ये रिकॉर्डिंग!
एक बात और बताता हूँ- इतने साल से ये काम करते- करते अब तो किनारे बैठे हुए देख कर बता सकता हूँ कि कोई अपने-आप गिर गया या डाइव लगाया. वक्त रहते नजर पड़ जाए तो तुरंत समझ आ जाता है सामने वाला यूँ ही खड़ा है या ईरादा आत्महत्या का है.
बड़ी नदियों की धार बहुत तेज़ होती है और कहीं-कहीं करंट भी होता है, इसलिए तैरना जानते भी हों तो भी सावधानी रखनी चाहिए.
एक नए पहलू से नया नजरिया...
ReplyDeleteशुक्रिया
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Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "बस काम तमाम हो गया - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद!!
Deleteअनजान था इन सब बातों से, नए पेशे से परिचय कराने के लिए धन्यवाद !सुन्दर रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteधन्यवाद!
Deleteअच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteधन्यवाद!
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