मूल कहानी : मौल अधिकार ओ भिखारी दुसाद (बांग्ला)
लेखिका : महाश्वेता देवी
रचनावली : महाश्वेता देवीर छोटो गोल्पो संकलन
ये स्थान है नवागढ़ के सीमान्त और बस-पथ के ऊपर. नवागढ़ एक छोटा-मोटा स्टेट या एक बड़ी ज़मींदारी थी. वहाँ के जमींदार को ‘राजा’ का ख़िताब मिला था और उस जमींदार की उम्र स्वाधीनता वर्ष में थी मात्र एक साल, फिर भी वो राजा साहेब ही पुकारे जाते थे. रजवाड़ी खत्म होने के बाद भी राजा साहेब सम्बलहीन नहीं हुए थे, राज्य हस्तांतरण के दौरान बहुप्रचलित नियम के अंतर्गत बीस-पचीस देवी-देवताओं के नाम से खास ज़मीन अलग की गयी थी जो उन्ही के अधीन हुई. फिर भी राजा साहेब पर चरम अन्याय घटित हो ही गया, राज्य सरकार एक पाप कर बैठी. बस और रेल पथ योजना के तहत राज्य और केंद्र सरकार ने वो ख़ास ज़मीन अधिग्रहण कर ली.
राजा साहेब की किशोरावस्था में ये घटना होती है, तब राजमाता और उनका काबिल वकील इस दुःख से विह्वल हो कर रांची, पटना के वकीलों से परामर्श करते हैं साथ ही राजा साहेब की गुज़र-बसर की व्यवस्था के प्रयास में आबादी-जंगल-कटाई-ठेकेदारी और टिम्बर कारखाना, लॉरी-ट्रांसपोर्ट व्यवसाय की नींव रखी जाती है फिर शुरू होती है अन्याय के विरुद्ध कानूनी लड़ाई.
लगता है, राजा साहेब का छह सालों से चल रहा विरोध रंग लाया है, आज नवागढ़ में धूम मची है, प्राथमिक विद्यालय, राजमाता ट्रांसपोर्ट की छुट्टी है. राजा साहेब के आवास “सुर निवास” से नाना मिष्ठान की थालियाँ रंगीन कागज़ से ढ़क कर टेहरी कचहरी, मंदिर आदि जगहों पर सौगात भेजी जा रही है.
बहुत दिनों बाद आज नवागढ़ के लोग स्वच्छंद अनुभव कर रहे हैं राजा साहेब ने घोषणा की है ख़ुशी मनाओ, धूम मचाओ घर-घर दीप जलाओ –- अपने अपने खर्चे पर. खुशी का वैसा रूप न होने पर भी आज लोग हल्का महसूस कर रहे है.
पिछले आठ सालों से राजा के आदमियों और बटाईदारों के बीच भीषण तनातनी दिखायी देती आयी है. पहले राजा के आदमी उन्हें पिटते हैं फिर पुलिस आती है जो बटाईदार, नेता-अगवाई करने वाला लगता, उसे पुलिस उठा कर ले जाती लेकिन पिछले दस महीनों से कुछ बदल सा गया है, पहले यहाँ पुलिस पहरे पर नहीं बिठायी जाती थी, अब पुलिस बैठ गयी है.
ऐसा ही होता आ रहा है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी है ये घटनाएं भी उतनी ही पुरानी हैं. इस बीच बटाईदारों की संख्या भी बढ़ी है और खेत-बट्टा अधिकार विषय में उनकी चेतना भी बढ़ी है. उनकी इस चेतना के पीछे किसी तीसरी शक्ति का ही हाथ है ये पुलिस का संदेह है... “तीसरी शक्ति है बाकि कोई एक दल-संगठन नहीं.... कौनो कमनिस, कौनो आदिबासी स्वार्थ संरक्षक, कौनो उग्रपंथ, जौनो रहे साला सबे इ गरीब किसानों का ही मदद देत है.”
इसी में सब गड़बड़ लगता है, तीन महीने पहले बटाईदारों ने जो लड़ाई की उसमे वो लोग एक कपड़े पर लिखे थे – “मेहनत की फसल के आधा बट्टा पर, हमलोगों का मौलिक अधिकार है”
उस कपड़े को दोनों छोर से बाँध उसे हाथ में ले कर जुलूस में घूम रहे थे.
लिखी हुई बातें बहुत ही आपत्तिजनक थीं. बटाईदार, ये बटाईदार किसान राजा साहेब से कहेंगे श्रमोत्पादित फसल पर उनका न्यायिक अधिकार है? ये तो ठीक नहीं, और उनमें से लिखना कौन जानता है? किसने लिखा ये सब?
राजा साहब खुद को घोर वंचना का शिकार मान रहे. अन्याय! अन्याय हुआ है उनके साथ. वो शोषित, अत्याचारित हैं. सरकार ने उनकी ज़मीन ले कर बस और रेल पथ बना दिया जिसकी वजह से ही आज उनकी राजमाता ट्रांसपोर्ट की लॉरी से उसी रास्ते पर लकड़ी-कोयला,अनाज- उनके कुली ढ़ो रहे है. रेलगाड़ी वैगन से उनके कारखाने में चिरी हुई लकड़ियाँ जाती है , ये कितनी ओछी बात है. अभी इस अन्याय का प्रतिकार हुआ ही था कि अब इन बटाईदारों ने सरकारी श्रम-विभाग के नियमानुसार फसल में हिस्सा चाहिए का नारा लगाना शुरू कर दिया!
इस बार बटाईदारों ने राजा साहेब के आदमियों को फसल उठाने नहीं दिया, कहा ... मारो सालों को! और मारते-मारते मथुरा सिंह को जख्मी कर दिया तब चन्दनमल के हाथों से बन्दूक छिन कर खुद राजा साहेब को गोली चलानी पड़ी और उनके दल के बहुत से लोग मारे गये.
ये तो होता है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी ,उतनी ही पुरानी ये घटनाएँ भी है.
यहाँ बच्चों को सुलाते हुए दादी परीकथा की तरह ये कहानी सुनाती है.... उसके बाद आये राजा साहेब, बोले... का बुधिया, इ का खचड़ाई है रे? तोहार दादा बोले, का खचड़ाई, फसल दिया करो और अपना हत्यारा सिपाही लोगन को जाने बोलो. उसके बाद राजा साहेब की गोली चली. मार दिए तोहार दादा के, फट गईल कलेजा और खून निकला ऐसे जैसे भादो म गंगा जी में पानी.
यही होता है, होता ही रहा है. ज़मीन के धनी मालिक और खेत मजदूर किसानों की कहानी में ऐसा ही होता है. कोई इस कहानी को बदल नहीं सकता.
लेकिन इस बार कहानी में थोड़ा फर्क था. मारते- मारते, मार खाते-खाते भी स्लोगन दे रहे थे;
“मेहनत की फसल पर
आधा बट्टा पर
हमलोगों का
मौलिक अधिकार है...”
ऐसी घटना नवागढ़ की माटी के जीवनकाल में कभी नहीं घटी थी, फलस्वरूप पुलिस बैठा दी गयी. दुखिया की लाश चालान हो गयी, जख्मी लोग अस्पताल में भर्ती कर दिये गए. शांतिभंग और क़ानून उल्लंघन का केस बटाईदारों के नाम हो गया. अचानक ही एक और नया काण्ड घट गया; बटाईदार यूनियन ने भी अदालत में केस लड़ने की अर्जी दाखिल कर दी.
इन सब कारणों से नवागढ़ तीन महीने तक पुलिस पहरा के दबाव में रहा. इसी बीच राजा साहेब को उनके ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार मिला, घुटन भरी हवा मानो कुछ हल्की हुई. क्या हुआ इस केस में अब चारों ओर यही चर्चा है.
इन सबके बीच भिखारी दुसाध हो कर भी नहीं है , कोई उसे नहीं पूछ रहा. पूछने जैसा कुछ है भी नहीं अत्यंत ही भीरु और निरीह है. घूम-घूम कर बकरी चराना ही उसका काम है. ये मवेशी ही उसके जीने का एकमात्र सहारा हैं. इनकी देखभाल और खाना भी अत्यंत साधारण है. बकरियां हर तरह के पत्ते और घास खा लेती हैं. साल में एकाधिक बार और एकाधिक बच्चे भी पैदा करती हैं. कोई और होता तो इन्ही मवेशियों से अपनी किस्मत संवार लेता लेकिन भिखारी दुसाध की किस्मत! उसकी बकरी परिवार की परिकल्पना – दो बकरी एक बकरा, नहीं तो एक बकरी दो बकरा—इससे ज्यादा बढ़ती ही नहीं.
क्या करे! भिखारी की किस्मत —-- जंगल में चराने जाये तो सियार, लकड़बग्घा ले जाये. बाज़ार में बेचने जाये तो कोई सही दाम ही न दे. भिखारी लोगों के बीच से ऐसे चला जाता है मानों अपने अवांछित अस्तित्व पर वो खुद ही लज्जित हो.
कभी-कभी भिखारी को अपने मवेशी उठा कर भागते हुए जंगल की तरफ जाते भी देखा जाता है. चेहरे पर डर की गहरी छाप. आतंक से उसकी जीभ सूख जाती है, होठों के कोने में झाग जम जाता है. पहले-पहल लोग उसकी हालत देख अवाक् रह जाते थे.
का हुआ रे, भिखारी?
पुलिस आई - पुलिस
तो इससे तुझे का?
बकरा उठा ले जायेगा उ लोग.
पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता है. मवेशी के दुश्मनों के बीच ही जंगल में लकड़ी काट झोपड़ा तैयार कर के उन्हें अंदर रख खुद उसके मुहाने पर बैठा डर से काँपता रहता.
सम्पत्ति के नाम पर और तो कुछ भी नहीं है उसके पास, न घर न ज़मीन-जायदाद न बीवी-बच्चे बस यही जो कुछ बकरी है. पहनने को एक टुकड़ा धोती और दिन भर मवेशी के पीछे भागना यही उसका काम. ये भी कुछ बुरा नहीं इसमें भी वो सपने देखता है --- अगर उसके पास दस-पंद्रह बकरियां हो जाये तो वो उन्हें सुमाडी हाट में बेच आएगा बहुत अच्छे दाम पर सिर्फ एक गाभिन बकरी रख लेगा. उसके बाद एक बड़ी धोती और एक गमछा साथ में एक कंघी खरीदेगा. दुसाध टोला में खोज कर एक अच्छी विधवा, बड़ी उम्र की औरत से शादी भी करेगा दोनों मिल कर मवेशी पालेंगे तब उनकी संख्या और बढ़ेगी. फिर उसका भी एक जमीन और घर होगा.
लेकिन भिखारी का ये सपना कभी पूरा नहीं होता. बाड़ा गाँव में दुसाध लोग अच्छे ही थे, पता नहीं क्या हुआ बाड़ा के गणेशी सिंह के साथ, उन्होंने उसे मार डाला. पुलिस वहाँ बैठा दी गयी, वो लोग भिखारी और दूसरे दुसाधों के बकरा-बकरी उठा कर ले जाने लगे.
भिखारी कितना रोया गिड़गिड़ाया लेकिन पुलिस कुछ नहीं समझती. अंत में राका दुसाध ने कहा अपनी गाभिन बकरी को ले कर दूर भाग जा, नाडा गाँव में कोई गड़बड़ नहीं है वहाँ मैदान में चराना और बरगद के नीचे रहना.
भिखारी बरगद के नीचे झोपड़ी बना कर रहने लगा. नाडा के मालिक राजपूत हैं, सब हट्टे –कट्टे मांस खाने वाले लेकिन वो लोग कभी भिखारी से छिन कर नहीं खाते जब भी बकरा चाहिए पैसे दे कर खरीदते है. आठ रुपया दस रुपया .... लेकिन सबका किस्मत में सुख कहाँ!
फिर एक दिन वहाँ का राजपूत होली के दिन गाना गाने आई एक औरत को गोली मार दिया. बस! पुलिस आ कर बैठ गयी. पुलिस आते ही राजपूत लोग बोला भिखारी के पास से एक बकरा ले आओ. तीन दिन तीन बकरा देने के बाद भिखारी वहाँ से भाग गया.
सबके लिए ये दुनिया बहुत बड़ी न भी हो लेकिन भिखारी के लिए बहुत ही छोटी हो गयी थी. नाडा के बाद डांगा गाँव रहने चला आया. डांगा के शिव मंदिर के पुजारी हनुमान मिश्र को प्रणाम कर आया था.
क्या रूप-रंग!! मानो देह से रौशनी फूट रही हो. हाँ तो ऐसा देखने में कैसे न होई? देउता दूध पीते हैं, दूध में स्नान करते है, रोजे महादेव से बात करते है.
भिखारी वहाँ के जंगल में दुसाध टोली में बहुत खुश था सभी उसको अपना लिए थे, कहते थे यहीं रुक जाओ, शादी भी करा देंगे लेकिन ....
देउता के पास एक दिन दरोगा आया. सात दिन वहीं रह गया, भिखारी के देउता बोले, भिखारी दुसाध! दरोगा को बकरा खाने दो.
ये तो बचने जा रहा था देउता.
क्या? पुलिस दरोगा देव-देवता के स्थान के बाद ही होता है, उसे खिलाने में पैसे की बात करेगा?
बकरा भेंट चढ़ा कर डांगा गाँव भी छोड़ दिया भिखारी दुसाध.
डांगा गाँव के दुसाध लोग दुखी हो रहे थे लेकिन क्या करे भिखारी? उसका तो खेत मजदूरी का काम नहीं है. ये बकरी ही उसकी आजीविका है. पालना, बेचना, फिर पालना और फिर बेचना. पर पुलिस उसकी एक मात्र आजीविका का साधन बार-बार नष्ट कर देती है.
यहाँ के लोग, भिखारी गरीब है इसलिए कभी उसे छोटा नही समझे अपना साथी माना, अपने साथ खिलाया-पिलाया.
सब छोड़ कर अंत में आना पड़ा नवागढ़. यहाँ के प्राइमरी स्कूल मास्टर सुखचाँदजी बहुत अच्छे आदमी है. स्कूल के पास वाले बरगद के पास बैठ कर भिखारी से बहुत बातें करते है. उनकी उमर भी कम है, गाँव की रीती-निति नहीं समझते इसलिए कहते है, रात में तो बड़ा-बुढ़ा को पढना सिखाते हैं तुम उसी में चले आना.
का किया जाये महाराज़? भिखारी को आप पढना सिखायेंगे बस!! भागो भिखारी नवागढ़ से. राजा साहेब भगाएगा, पुलिस चला आयेगा, लाला जी सौदा नहीं बेचेगा, कुआँ से पानी नहीं मिलेगा.
सुखचाँद बोले कैसे?
कैसे नहीं? एक टौर्च देख कर हम पूछल रही, उकर दाम केतना हो, ए लालाजी? त लाला, कितना गुस्सा हो गईल. कहत रहीं, का भिखारी! दुसाध हो कर तू, छोटा काम करनेवाला, अभी का टोर्च जलाएगा?
नवागढ़ में भिखारी का एक नया घर बना है, राजा साहेब के वकील कबाड़ हुए बस, लॉरी लोहा लक्कड़ के दाम बेच देते हैं. जब तक न बेचे तब तक वही घर है और उसके पडोसी हैं कुछ भिखमंगे. वहीं पर बड़े-बड़े घास भी उग आये हैं जो भिखारी की बकरियों के लिए पर्याप्त है.
जंगल में बैठ कर यही सब सोचता रहता है, सोचता और सोचता ही रहता है. पुलिस लालाजी की दूकान नहीं लुटता, ग्वाला की गाय नहीं छीनता. जिसके पास जो है उसे रहने देता है फिर उसकी बकरियां क्यों छिन लेते हैं! इसके अलावा तो उसके पास और कुछ भी नहीं है.
अपने मवेशियों को जंगल के उस झोपड़ी में राम जी से प्रार्थना कर उनके हवाले रख कर कांपते ह्रदय से नवागढ़ अपने नये डेरा में पहुँच जाता है. ऐसे समय में लंगड़ा, कानी और कुष्ठरोगी लड़का सब उसकी बहुत मदद करते है, उसे बता देते हैं पुलिस यहाँ है तो भाग जाओ.
राम जी जब कृपा करते हैं तब उसके मवेशी सही सलामत मिलते हैं, जब राम जी उसकी अर्जी भूल जाते हैं तब कभी लकड़बग्घा ले जाता है तो कभी सांप काट लेता है. कभी-कभी तीन-तीन महीने नवागढ़ में पुलिस रह जाती है तब भिखारी रोज़ ही जंगल और नवागढ़ आना-जाना करता है.
इस बार तीन महीने तक पुलिस यहाँ रह गयी, भिखारी तो जंगलवासी ही हो गया था, एक दिन जंगल के किनारे-किनारे चलते हुए पहुँच गया बाड़ा गाँव की ओर. वहाँ जंगल में उसे बांका दुसाध मिला, उसने भिखारी की बहुत मदद की. तीन-चार और दुसाध लड़कों के साथ जंगल में घुस कर एक बहुत मजबूत झोपड़ा बना दिया और भिखारी से बोला यहीं रह जाओ, यहाँ उस नाले से पानी भी मिल जायेगा.
खाऊंगा क्या?
पैसे दो, खरीद लाता हूँ.
ये लो.
कुछ दिन बाद बांका बोला, कितने दिन रहना हो क्या पता! उस बकरे को बेच दो।
कहाँ?
हाट में.
भिखारी बोला, लेकिन मैं कभी वहां गया नही.
विश्वास कर सको तो मुझे दो.
बकरा बेच कर बांका उसके हाथ में साठ रूपये पकड़ा दिया। इतने रूपये देख भिखारी खुद को राजा समझने लगा. इन्ही तीन महीनों के बीच उसकी बकरी एक और बच्चा देती है. भिखारी उसे भी बेच कर अपनी खुराकी के इंतज़ाम का पैसा बांका के हाथ देता है.
बांका बोलता है अभी तो पुलिस नहीं है, बीच-बीच में टोली में आ कर सबसे मिल जाया करो.
बाडा टोली में ही एक दिन कनू दुसाध बोला नवागढ़ से पुलिस चौकी उठ रही है.
सुन कर भिखारी सोचा अभी ही चले जाना अच्छा है. बकरी परिवार अभी कुल आठ है—दो बकरी, दो बकरा, बछड़ा चार.
बांका बोला, चले जाने दो, उसके बाद तुम जाना.
पुलिस चली गयी, चौकी उठ गयी। भिखारी भी नवागढ़ के लिए रवाना हो गया. बहुत खुश था अपने बस वाले डेरा में लौटते हुए, उसे देख कर उसके भिखमंगे पड़ोसी भी खूब खुश हुए.
कानी उसकी जगह पर झाड़ू मार कर साफ कर देती है. एक आँख से सब देखने के बाद बोली, देख ले भिखारी सब है न?
हाँ,हाँ! सब है. घास की बनी चट्टी, गली-टूटी बोतल, टिन का पीपा.
खबर है भिखारी!
क्या?
दोरा भाग गया.
कहाँ?
सुमादि। वहां हाट में बैठने पर ज़्यादा पैसा मिलेगा और लँगड़ा क्या किया मालूम? डालि को भगा कर एक दूसरी लड़की लाया है।
और तू?
मुझे कौन लेगा बोल? एक आँख से दिखता नहीं, दोनों आँखे अंधी होतीं तो पैसा मिलता और इतनी बूढ़ी भी नही हुई अभी.
इसलिए इंसान की तरह मेहनत कर के नहीं खा सकती?
कम मेहनत करती हूँ? भीख मांगने तोहरी तक पैदल चल के जाती हूँ, कम मेहनत है क्या?
बाप रे! कितना सारा बकरा-बकरी रे भिखारी!
हाँ कल ही जा कर हाट में बेच आऊंगा.
नवागढ़ की और ... खबर है रे भिखारी!
क्या?
राजा साहेब को क्या तो मिला है सरकार की तरफ से. खूब हुल्लड़ और खुशहाली मना रहा सब. आज रात में पटाखा भी फोड़ेगा.
तुमलोगों का तो मज़ा हो गया.
नहीं, नहीं! ये लोग झूठे पत्तल पर कुछ नहीं छोड़ेंगे कि हमलोग कुछ खा सकें. खाने मिला था तोहरी के बैजनाथ लाल की माँ जब मरी थी. इतना-इतना पूड़ी कचौड़ी.
अरे कहाँ जा रहा भिखारी?
एकबार सुखचांद जी से मिल आएं.
सुखचांद जी भिखारी दुसाध जात और बकरी चराता है इसलिए घृणा नहीं करते. नवागढ़ में आने के बाद से किसी ने भी भिखारी से नही पूछा, भिखारी! कहाँ था इतने दिन? वो जो यहां रहता भी है ये भी कभी किसी की नज़रों में नही आया.
का किया जाये महाराज? ये तो होता ही है, होते ही रहता है. बकरे का मांस और दूध वो भी बहुत सस्ते दाम पर चाहिए तब भिखारी की ज़रूरत होती है. लेकिन इसका मतलब उसे किसी गिनती में रखा जाये ... नहीं, ऐसा क्या कभी होता है! ये कहानी बहुत पुरानी, नवागढ़ के माटी से भी पुरानी.
सुखचाँद जी का स्कूल आज बन्द है. सुखचांद बरगद के नीचे बैठ कर ग्वाल मोतिहार और भकत को बहुत मन से कुछ समझा रहे हैं. नवागढ़ के ग्वालों के पास बहुत धन है. सुखचांद की उम्र कम है समझाने बताने का उत्साह बहुत ज़्यादा.
आओ, आओ भिखारी, कब आये?
आज भोरे सुखचांद जी.
रामजी जैसे रखे। आप ठीक है न?
हाँ भिखारी। बैठो-बैठो.
भिखारी थोड़ा हँस कर, उन सब से दूर जा हाथ जोड़ कर बैठ गया. ग्वालों के पैर में नगड़ा, कान में पीतल की रिंग, हाथ में लाठी, सर पर पगड़ी, उन्हें देखने से ही डर लगता है भिखारी को.
मोतिहार भिखारी के आगमन से बेपरवाह बोला, ना, ना सुखचांद जी, फिर से बताइये.
शुरू से?
हाँ हाँ!
बताया तो....
फिर भी समझ नहीं आया. राजा साहेब की ख़ास ज़मीन पर से रेल लाइन बिछाई गयी, बस के लिए सड़क बनी, ये तो होता ही है। क्या भकत! सरकार क्या आसमान पर लाइन खींच रेल और बस के लिए रास्ता बनाएगी, ऐसा कहीं होता है?
हाँ मोतिहार, एकदम ठीक!
तो फिर राजा साहेब इसके लिए मामला क्यों किये? यही बात समझ नहीं आ रही.
सुखचांद बोला,क्यों नहीं करेगा? देखो, वो ज़मीन किसकी थी? राजा साहेब की थी?
हाँ, तो! अरे कितनी, कितनी सारी जमीन है उनकी.
उस जमीन पर राजा साहेब का हक़ था?
हाँ
अपनी संपत्ति पर जो हक़ है, इसके नाम से भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार है. मौलिक अधिकार सात प्रकार के हैं और भारतीय संविधान का कर्तव्य है प्रत्येक नागरिक की मौलिक अधिकार की रक्षा करना.
का ताज्जुब? “मौलिक अधिकार” कोनो बुरा बात न है जी? ठीक बात है?
कैसे हो ई बुरा बात, ई ख्याल आपका दिमाग में कैसे आई मोतिहार जी?
मोतिहार बोला, तब बटाईदार लोग चिल्ला रहा था”मौलिक अधिकार” ,उसी से ही न पुलिस आयी?
नहीं, नहीं वो तो कानून-सुशासन का बात आ गया था न इसलिए पुलिस आयी.
मौलिक अधिकार कैसा होता है?
सुखचांद खूब खुश हुआ क्योंकि उसे अपनी विद्या बुद्धी ज़ाहिर करने का मौका मिला. उँगलियों पर गिनते हुए बोलना शुरू किया. पहला हुआ, समानता का अधिकार. जिसमें जात-पात, धर्म कोई कारण नहीं देखा जायेगा सब समान है. इन कारणों से किसी पर अन्याय नही हो सकता.
ये बात लिखा है?
एकदम!
मोतिहार अपने ज्ञात सत्य के ज़ोर पर बोला, ये ज़रूर किसी अँगरेज़ का लिखा होगा. जात-पात धर्म का फरक नही रहेगा? हम और भिखारी दुसाध एक बराबर?
एकदम। संविधान में लिखा है.
फिर भी ये झूठ है, ये तो आँखों के सामने ही दिख रहा है हमेशा ही. जात के कारण ही कोई ऊँचा जात वाला भिखारी को अपने घर में आने नहीं देगा, उसका छुआ पानी नहीं पियेगा. ये ज़रूर किसी दुश्मन का बनाया हुआ बात है. क्यों सुखचांद जी? जवाहरजी प्रधानमंत्री थे, फिर इंदिराजी, हमलोग तो कभी ये बात नहीं सुने और कभी आँख से भी नहीं देखे कि दुसाध और बड़ा जातवाला को कोई बराबर मान दे रहा है.
सुखचांद कभी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर नहीं मारता. अपनी साध्य सामर्थ्य मुताबिक सरल तरीके से स्वाधीनता और मौलिक अधिकार क्या-क्या है, समझाने की कोशिश करता है.
इस बार भकत बोला, सब झूठ बात!
क्यों?
जो जैसा चाहे काम-काज कर सकता है क्या ये स्वाधीनता है?
बिलकुल है.
मुसलमान जो खाता है, उसका व्यवसाय कोई करने देगा क्या नवागढ़ में?
सुखचांद हँसा, फिर बोला, बाकि सब मौलिक अधिकार भी सुन लीजिये.
मैं तो रोज शाम को प्रौढ़ शिक्षा क्लास लेता हूँ. आपलोग भी आइये और दूसरों को भी लाइए. पढ़ना सीखेंगे तो आपलोग खुद ही पढ़ लेंगे.
ऐसा भी होता है क्या? अब इस उमर में?
लिखने-पढ़ने की भी कोई उम्र होती है भला?
अच्छा! और क्या कहें... आगे सुनिए.
खूब ध्यान से मोतिहार और भकत सुनते हैं। भिखारी एकबार भी मुंह नहीं खोलता. सुनता रहता है मौलिक अधिकारों के बारे में और सुखचांद की ओर बहुत आदर से देखता है.
अब मोतिहार बोला, हाँ वो आखरी बात, जिसकी जो संपत्ति है चाहे वो कुछ भी क्यों न हो उससे कोई छिन नहीं सकता--- हाँ ये बहुत अच्छा लिखा है.
इसीलिए तो राजा साहेब को छः लाख रूपये मिले.
छः लाख!
छः लाख की बात भिखारी के मन में कोई भाव नहीं जगा पायी क्योंकि छः लाख के विषय में उसकी कोई धारणा ही नहीं ये कितना होता है. मोतिहार और भकत लेकिन हैरान हो जाते हैं इतने रूपये सुनकर.
सुखचांद एक प्राइमरी स्कूल शिक्षक है रूपये के अंक ले कर उसे भी कोई सरदर्द नहीं, वो बस मौलिक अधिकार समझाना चाहता है.
यही बात तो कह रहा हूँ. राजासाहेब का था उनकी जमीन पर मौलिक अधिकार, सरकार बिना इजाजत लाइन बिछा दी रास्ता काट दी। तब राजा साहेब के मौलिक अधिकार पर ही चोट हुआ.
हाँ-हाँ फिर....
राजा साहेब वयस्क हो कर केस किये रेल विभाग पर और केस जीत गए.
अच्छा! संपत्ति पर मौलिक अधिकार के लिए तो जमीन होना चाहिए है न?
अरे नहीं, भकत जी! देखिये, आपकी सम्पति घर, गाय-भैंस, बर्तन, सामान-असबाब सबकुछ है. मोतिहारजी का भी वही. मेरी संपत्ति ये कपड़ा-लत्ता, खटिया, किताब आदि और भिखारी का संपत्ति उसके बकरा-बकरी। चल- अचल सबकुछ संपत्ति में ही आता है कोई इसे छीने तो इसके लिए उसे क्षतिपूर्ति देनी होगी.
समझा.. बड़ा अच्छा लगा ई सब जान कर.
फिर आईयेगा.
विदा लेते वक़्त मोतिहार बोला, अब शादी कर लीजिये. आपकी जात की एक लड़की गाँव में ही है और खेत, भैंसा, हल, सायकल सब देगा.
ना-ना...
चलते हैं सुखचांद जी.
वो लोग चले गए. इधर भिखारी एक नया विषय जान कर उसके आघात से घायल है.
सुखचांद जी... जो बात अभी आप बोले वो सब सच है। उ मौला अधिकार?
मौलिक अधिकार, भिखारी!
और उ बटाईदार लोग का नारा... उ लोग भी तो यही बोल रहा था।
हाँ भिखारी.
राजासाहेब की जमीन उनकी संपत्ति फिर मेरा बकरा-बकरी मेरा संपत्ति?
बिलकुल!
राजासाहेब की जमीन सरकार ले ली तो बदले में कितना तो रुपया दी , मेरा बकरा सब पुलिस बार-बार उठा के ले जाती है जिसका डर से हम जंगल भाग जाते हैं .... उसका पैसा तो हमको कोई नहीं देता! तो सरकार क्या पुलिस को ये मौलिक अधिकार की बात बताना भूल गयी है?
वो तो जुल्म करते है, भिखारी.
तब राजासाहेब को जो इतना रुपया मिला सुखचांदजी, सिर्फ बड़ा आदमी को ही मिलता है क्या?
दर्दभरी हँसी हँस कर सुखचांद बोले, व्यावहारिक रूप से शायद ऐसा ही होता है, लेकिन संविधान में अच्छी बातें ही लिखी गयी है.
हम का जाने सुखचांद जी का लिखा है.
राजा साहेब को जो मिला उसके लिए उन्हें मुकदमा करना पड़ा. संविधान में ये भी लिखा है मौलिक अधिकार नष्ट होने पर, करनेवाले के नाम तुम मुकदमा कर सकते हो.
मैं? मैं कैसे मुकदमा कर सकता हूँ. इस बारे में तो कुछ नही जानता और पुलिस अगर बकरा उठा ले गयी तो उनके ऊपर कोई दुसाध मुकदमा कर भी नहीं सकता.
सुखचांद बोला, कर सकता है, ये हक़ है.
कैसे? पैसे कहाँ? हिम्मत कहाँ किसी दुसाध की? उस हक़ को मैं नही समझता सुखचांद जी. उससे कुछ काम नहीं होता.
ये भी सच कहा! अब और क्या कहूँ तुमसे......
सुखचांद को विभ्रांत देख भिखारी थोड़ा हँस कर दिलासा देने के भाव से कहता है.. और का कहियेगा आप? धरती पर जो चलता आया है वो ही चलता रहेगा। है कि नही!
ऐसा नहीं भिखारी. जो लिखा है वही ठीक है. वो सब काम में नहीं लाया जाता क्योंकि गलत हमारे बीच ही है। ये तो हमारा ही काम है न?
सुखचांद खुद भी कभी भिखारी का छुआ नहीं खाता, ऐसा सोच भी नहीं सकता. लेकिन उसकी अपनी धारणा है कि वो जात-पात, छुआछुत नहीं मानता क्योंकि ये सब किताब में लिखा है, लिखी हुई बातों पर अटूट विश्वास है उसे और इसी ज़ोर पर वो कहता है कि ये सब मानना गँवारपना है न तो जवाहर जी विश्वास करते थे और न ही इन्दिरा जी मानती थी.
फिर भी तो छुआछुत है और रहेगा ही। देखिए न, ये तो भगवान की सृष्टि है. रामजी किसी को ब्राह्मण बनाये तो किसी को दुसाध, इसी से तो छुआछुत भी चलता है. मैं तो कुछ भी नहीं जानता लेकिन तोहरी मन्दिर के ब्राह्मण हनुमान मिश्र तो अच्छे आदमी हैं, है न? वो तो कभी दुसाध के परछाई पर भी पाँव नहीं रखते क्योंकि उनकी बातचीत तो महादेव विश्वनाथ से होती है, वो तो भगवान के मन की बात जानते हैं.
सुखचांद लाचार हो कर बहस यहीं छोड़ देता है और बोला, और बताओ भिखारी, कैसे थे इतने दिन?
भिखारी उल्लसित हो कर जवाब दिया, बहुत अच्छा था, इतना अच्छा रहने की बात तो कभी सोचा भी नहीं था. और सबसे अच्छा ये हुआ कि बकरा-बकरी कुल दस हो गए.
दस! क्या बोल रहे हो?
दो बकरा जवान है। पन्द्रह-सोलह सेर मांस तो होगा ही। हाट में आठ रुपया सेर बेच देंगे। दो सौ रूपये तो हो ही जायेंगे.
वाह भिखारी तब तो तुम्हारे पास अच्छे पैसे हो जायेंगे।
भिखारी बोला, आशीर्वाद कीजिये... इतने पैसे मिल गए तो मेरे सब दुःख दूर हो जायेंगे.
कैसे?
कैसे नहीं, देखिये इतने पैसे हो गए तो ब्याह करेंगे दोनों मिल कर बकरी पालेंगे. और कमाई होगा तब घर दुआर, बर्तन बासन भी होगा। घर-संसार में जैसा होता है.
तुम्हारा घर कहाँ है?
बिजुपाड़ा पार कर के....
तुम्हारा कोई नहीं है क्या?
नहीं
सुखचांद को भिखारी से बहुत अपनापन लगता है. वो बोला, तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो भिखारी.
चलता हूँ सुखचांदजी
भिखारी घर की ओर चल पड़ा आज जाने क्यों उसका मन बहुत खुश है. सोच रहा था नवागढ़ में पुलिस चौकी नहीं बैठती तो वो भाग कर बाड़ा भी नहीं जाता. भागा तभी तो आज उसके दिन फिर रहे हैं.
रास्ते में आटा, नमक, सुखा कच्चू खरीद लिया. लाला से बोला, अच्छे हैं न लाला जी?
उसकी किसी बात का जवाब नही दिया लाला ने. रामधारी ठेकेदार की बात सुनने में ही व्यस्त रहा. सौदा लेते हुए ही कान में बात पड़ी कि आज ‘सूरमहल’ में पांच हज़ार की आतिशबाजी होगी. भिखारी भी सोच लिया शाम को जल्दी वहां पहुँच जायेगा.
कच्चू की सूखी सब्ज़ी और कड़ी सेंकी रोटी बनाएगा, दो दिन इसी से चल जायेगा. भिखारी सोच रहा था, लँगड़ा अगर एक और लड़की ले आये तो भिखारी को भी एक औरत मिल जायेगी. पहले बकरी चराना होगा फिर शायद जमीन भी खरीद सके. शादी करने से रिश्तेदार, बन्धु, समाज सब मिलेगा। वो लोग भी मदद करेंगे. अकेले- अकेले और कितना रहा जाये? सबका साहचर्य मिलता है तो हिम्मत भी बढ़ती है.
कपड़े धो कर खाना पकाते हुए सूरज डूब गया। बकरा सब गिन कर बस में चढ़ा लिया कि तभी वो लोग आ गए.
राजासाहेब के सिपाही, दो पुलिस.
पुलिस...
भिखारी बेहद डर गया बस के गेट पर ही पीठ टिका कर खड़ा हो गया. ये क्या हुआ? पुलिस चौकी नहीं, पुलिस नहीं इसलिए तो नवागढ़ लौटा था भिखारी. पुलिस?
का भिखारी डर गईल का?
सिपाही गजानन हँसा, शराब की गन्ध आ रही थी। दो बकरा निकाल। राजा साहेब पूरा थाना को न्योता दिए हैं कहाँ मिले इतना गोश्त?
नाय, नाय!! बकरा ना है.
तब बकरी निकाल.
ऐसा न करिये साहेब, गोड़ लागी आपका. वो ही हमारा जीवन है देवता, ना लियो.
भाग साला दुसाध!
गजानन कस कर एक चांटा लगाया भिखारी के गाल पर, नाक की चमड़ी और होंठ फट कर खून निकल आया. भिखारी तब भी चिल्ला रहा था, ओहि पुलिस के डर से भाग गए हम, न लियो सिपाहीजी.
काहे न ली? राजा साहेब बुलाये तभी तो पुलिस आई. तो गोस्त का अब खरीद के खायेगी? तू राजासहेब के मूलक में रहता है न? तू देगा. अब चल भाग.
भिखारी मुसीबत में पागल हो कर बोलने लगा, बकरा-बकरी पर हमनी का हक़ है, जैसे राजा साहेब के हक़ का जमीन छीन गया तो उसी हक़ से उनको रुपया मिला। हम काहे छोड़ें हमनी का हक़?
का? का बोला रे दुसाध?
सिपाही और पुलिस दोनों मिल कर भिखारी को मारे. दक्ष निपुण पेशेवर, प्रशासन अनुमोदित मार. मारते-मारते उनका दम नहीं निकलता. मारते-मारते वो लोग बोलते हैं, बात सुना इसका भाई गजानन? बटाईदार लोग अपनी लड़ाई लड़ते हुए इनको भी हक़-वक सीखा गए. साला पुलिस बकरा नहीं खायेगी तो कौन खायेगा बता? भाई गजानन, ये तो एक और राजा साहेब है नवागढ़ का, राजा साहेब की जमीन और इसके बकरे का हक़ एक बराबर हो गया?
मार-पीट कर भिखारी को अधमरा कर वो लोग चारो बकरा बकरी ले कर निकल गए महाउल्लास में.
भिखारी पशु की तरह पड़ा रोता रहा, रोता ही रहा. दर्द से हिल भी नहीं पा रहा था. लेकिन वो रो रहा था, वंचना की वेदना में, झूठ- सब झूठ है सुखचांदजी की बातें. बकरा-बकरी पर जो उसका अधिकार, सांतवा मौलिक अधिकार है? अधिकार हनन न हो ये संविधान देखती है? सब झूठ, सब झूठ! भिखारी का मौलिक अधिकार बार-बार छिनता है. राजा साहेब को क्षतिपूर्ति मिलती है, भिखारी को क्यों नहीं मिलता? राजासाहेब को क्षतिपूर्ति के छः लाख देने से ही हो जाता है. भिखारी दुसाध का बकरा-बकरी के जीने के मौलिक अधिकार क्षुण्ण होने पर उसे सुरक्षा देने की क्षमता भारत सरकार में नहीं इसलिए भिखारी को क्षतिपूर्ति भी नहीं मिलती क्या?
भिखारी को कानी, लंगड़ा और लँगड़े की औरत मिल कर उठा लाते हैं.
तीन भिखमंगे भिखारी की देखभाल किये, घाव सूखने और उठ कर खड़े होने में दस दिन लग गया. तब भिखारी लँगड़ा से बोला, चल लँगड़ा बछड़ों को भी बेच आते हैं जो दाम मिल जाए!
बीस रूपये में चार बछड़े बेच आया. भिखारी की कमर अब कभी सीधी नहीं होगी, सर भी मुंडवाना पड़ा ताकि घाव जल्दी सूख जाए... क्षत-विक्षत हुए चेहरे पर से ये चिन्ह कभी नहीं जायेंगे, मौलिक अधिकार की रक्षा हेतु पहला और आखरी प्रतिवाद के परिणाम चिह्न स्वरुप!
अब का करेगा भिखारी?
भीख माँगेंगे.
भीख
हाँ, भीख...
उन सबको तीन-तीन रूपये कर के देता है. लाला की दुकान का उधार चुकाया छः रुपया. बकरा बाँधने की रस्सी का दाम मोतिहार के नौकर को दिया दो रुपया. तीन रुपया अपने पास रखा, पेड़ का डाल तोड़ कर लाठी बनाया अब हाट में जा कर एक कटोरी खरीदेगा, भिक्षापात्र!
सुखचांद उसे देख उसके पास आया, घटना की खबर उसे भी मिली थी.
भिखारी!
जा रहा हूँ सुखचांद जी.
कहाँ? भिखारी कहाँ?
जहाँ भीख मिलेगा.
लेकिन तुम्हारे शरीर में तो अभी भी......
ये बात!! का किया जाए महाराज? आप तो हमनी के झूठ बात बता दिए रहे, हमरे लिए तो उ मौलिक अधिकार है ही नहीं सिरिफ राजा साहेब के लिए है.
चले सुखचांद जी.
लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलता गया भिखारी दुसाध परम निर्भयता से. अब पुलिस देख कर डर नहीं लगेगा. बकरा-बकरी, बासन-बर्तन भी अगर दुसाध की संपत्ति है तब भी पुलिस से डरना पड़ता है. जंगल में भागना पड़ता है, दुसाध देखते ही सब छीन लेगी पुलिस. बेसहारा, लाचार, भिखमंगा दुसाध देखने पर पुलिस कुछ नहीं करेगी. भिखारी को अब लगता है ये बात वो पहले क्यों नहीं जानता था? अपनी मातृभूमि पर यदि एक दुसाध राजा साहेब, लालाजी, पुलिस, हनुमान मिश्र सबकी दया ले कर ज़िंदा रहना चाहता है तो एकमात्र उपाय है भिखमंगा बन कर रहना? जो दुसाध बकरी चरा कर भिखारी दुसाध की तरह इंसान बन कर जीना चाहता है वैसे ही दुसाध से तो सब नाराज़ हो जाते हैं.
अब खुद अकेला भी नहीं पाता. कहाँ नहीं है भिखमंगे? कानी, लगड़ा, डोरा .... जहां भी चले जाओ हर जगह मिलेंगे. अब भिखारी अकेला नहीं, एक बहुत बड़े समाज का हिस्सा है.
सुखचांद भिखारी को देखते और सोचते हैं, भिखारी दुसाध सात नम्बर मौलिक अधिकार से भले ही वंचित हुआ, तीन नम्बर अधिकार की रक्षा ज़रूर हुई है. किसी भी व्यवसाय या काम को चुनने का अधिकार. भिखारी भिक्षाटन आजीविका के लिए चुन लिया. वो जन्म-जन्मांतर तक भिखमंगा ही रहे, भारत सरकार ये अवश्य ही सुनिश्चित करेगी. उसे कोई यदि किसी दूसरे आजीविका के लिए प्रेरित करना चाहे तो? भारत का संविधान उसके मौलिक अधिकार का हनन बरदाश्त नहीं करेगी. भारत के किसी भी कोने में ऐसा अन्याय हुआ तो भारत का संविधान वहां पुलिस, रिजर्व बल, सैन्य बल, टास्क फ़ोर्स, जंगी विमान सब वहां उतार देगी।
भिखारी दुसाध लंगड़ाते-लंगड़ाते सड़क के मोड़ पर अदृश्य हो गया. उसे अब और कुछ भी खोने का डर नहीं।
लेखिका : महाश्वेता देवी
रचनावली : महाश्वेता देवीर छोटो गोल्पो संकलन
ये स्थान है नवागढ़ के सीमान्त और बस-पथ के ऊपर. नवागढ़ एक छोटा-मोटा स्टेट या एक बड़ी ज़मींदारी थी. वहाँ के जमींदार को ‘राजा’ का ख़िताब मिला था और उस जमींदार की उम्र स्वाधीनता वर्ष में थी मात्र एक साल, फिर भी वो राजा साहेब ही पुकारे जाते थे. रजवाड़ी खत्म होने के बाद भी राजा साहेब सम्बलहीन नहीं हुए थे, राज्य हस्तांतरण के दौरान बहुप्रचलित नियम के अंतर्गत बीस-पचीस देवी-देवताओं के नाम से खास ज़मीन अलग की गयी थी जो उन्ही के अधीन हुई. फिर भी राजा साहेब पर चरम अन्याय घटित हो ही गया, राज्य सरकार एक पाप कर बैठी. बस और रेल पथ योजना के तहत राज्य और केंद्र सरकार ने वो ख़ास ज़मीन अधिग्रहण कर ली.
राजा साहेब की किशोरावस्था में ये घटना होती है, तब राजमाता और उनका काबिल वकील इस दुःख से विह्वल हो कर रांची, पटना के वकीलों से परामर्श करते हैं साथ ही राजा साहेब की गुज़र-बसर की व्यवस्था के प्रयास में आबादी-जंगल-कटाई-ठेकेदारी और टिम्बर कारखाना, लॉरी-ट्रांसपोर्ट व्यवसाय की नींव रखी जाती है फिर शुरू होती है अन्याय के विरुद्ध कानूनी लड़ाई.
लगता है, राजा साहेब का छह सालों से चल रहा विरोध रंग लाया है, आज नवागढ़ में धूम मची है, प्राथमिक विद्यालय, राजमाता ट्रांसपोर्ट की छुट्टी है. राजा साहेब के आवास “सुर निवास” से नाना मिष्ठान की थालियाँ रंगीन कागज़ से ढ़क कर टेहरी कचहरी, मंदिर आदि जगहों पर सौगात भेजी जा रही है.
बहुत दिनों बाद आज नवागढ़ के लोग स्वच्छंद अनुभव कर रहे हैं राजा साहेब ने घोषणा की है ख़ुशी मनाओ, धूम मचाओ घर-घर दीप जलाओ –- अपने अपने खर्चे पर. खुशी का वैसा रूप न होने पर भी आज लोग हल्का महसूस कर रहे है.
पिछले आठ सालों से राजा के आदमियों और बटाईदारों के बीच भीषण तनातनी दिखायी देती आयी है. पहले राजा के आदमी उन्हें पिटते हैं फिर पुलिस आती है जो बटाईदार, नेता-अगवाई करने वाला लगता, उसे पुलिस उठा कर ले जाती लेकिन पिछले दस महीनों से कुछ बदल सा गया है, पहले यहाँ पुलिस पहरे पर नहीं बिठायी जाती थी, अब पुलिस बैठ गयी है.
ऐसा ही होता आ रहा है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी है ये घटनाएं भी उतनी ही पुरानी हैं. इस बीच बटाईदारों की संख्या भी बढ़ी है और खेत-बट्टा अधिकार विषय में उनकी चेतना भी बढ़ी है. उनकी इस चेतना के पीछे किसी तीसरी शक्ति का ही हाथ है ये पुलिस का संदेह है... “तीसरी शक्ति है बाकि कोई एक दल-संगठन नहीं.... कौनो कमनिस, कौनो आदिबासी स्वार्थ संरक्षक, कौनो उग्रपंथ, जौनो रहे साला सबे इ गरीब किसानों का ही मदद देत है.”
इसी में सब गड़बड़ लगता है, तीन महीने पहले बटाईदारों ने जो लड़ाई की उसमे वो लोग एक कपड़े पर लिखे थे – “मेहनत की फसल के आधा बट्टा पर, हमलोगों का मौलिक अधिकार है”
उस कपड़े को दोनों छोर से बाँध उसे हाथ में ले कर जुलूस में घूम रहे थे.
लिखी हुई बातें बहुत ही आपत्तिजनक थीं. बटाईदार, ये बटाईदार किसान राजा साहेब से कहेंगे श्रमोत्पादित फसल पर उनका न्यायिक अधिकार है? ये तो ठीक नहीं, और उनमें से लिखना कौन जानता है? किसने लिखा ये सब?
राजा साहब खुद को घोर वंचना का शिकार मान रहे. अन्याय! अन्याय हुआ है उनके साथ. वो शोषित, अत्याचारित हैं. सरकार ने उनकी ज़मीन ले कर बस और रेल पथ बना दिया जिसकी वजह से ही आज उनकी राजमाता ट्रांसपोर्ट की लॉरी से उसी रास्ते पर लकड़ी-कोयला,अनाज- उनके कुली ढ़ो रहे है. रेलगाड़ी वैगन से उनके कारखाने में चिरी हुई लकड़ियाँ जाती है , ये कितनी ओछी बात है. अभी इस अन्याय का प्रतिकार हुआ ही था कि अब इन बटाईदारों ने सरकारी श्रम-विभाग के नियमानुसार फसल में हिस्सा चाहिए का नारा लगाना शुरू कर दिया!
इस बार बटाईदारों ने राजा साहेब के आदमियों को फसल उठाने नहीं दिया, कहा ... मारो सालों को! और मारते-मारते मथुरा सिंह को जख्मी कर दिया तब चन्दनमल के हाथों से बन्दूक छिन कर खुद राजा साहेब को गोली चलानी पड़ी और उनके दल के बहुत से लोग मारे गये.
ये तो होता है, होता ही रहता है. नवागढ़ की मिट्टी जितनी पुरानी ,उतनी ही पुरानी ये घटनाएँ भी है.
यहाँ बच्चों को सुलाते हुए दादी परीकथा की तरह ये कहानी सुनाती है.... उसके बाद आये राजा साहेब, बोले... का बुधिया, इ का खचड़ाई है रे? तोहार दादा बोले, का खचड़ाई, फसल दिया करो और अपना हत्यारा सिपाही लोगन को जाने बोलो. उसके बाद राजा साहेब की गोली चली. मार दिए तोहार दादा के, फट गईल कलेजा और खून निकला ऐसे जैसे भादो म गंगा जी में पानी.
यही होता है, होता ही रहा है. ज़मीन के धनी मालिक और खेत मजदूर किसानों की कहानी में ऐसा ही होता है. कोई इस कहानी को बदल नहीं सकता.
लेकिन इस बार कहानी में थोड़ा फर्क था. मारते- मारते, मार खाते-खाते भी स्लोगन दे रहे थे;
“मेहनत की फसल पर
आधा बट्टा पर
हमलोगों का
मौलिक अधिकार है...”
ऐसी घटना नवागढ़ की माटी के जीवनकाल में कभी नहीं घटी थी, फलस्वरूप पुलिस बैठा दी गयी. दुखिया की लाश चालान हो गयी, जख्मी लोग अस्पताल में भर्ती कर दिये गए. शांतिभंग और क़ानून उल्लंघन का केस बटाईदारों के नाम हो गया. अचानक ही एक और नया काण्ड घट गया; बटाईदार यूनियन ने भी अदालत में केस लड़ने की अर्जी दाखिल कर दी.
इन सब कारणों से नवागढ़ तीन महीने तक पुलिस पहरा के दबाव में रहा. इसी बीच राजा साहेब को उनके ऊपर हुए अन्याय का प्रतिकार मिला, घुटन भरी हवा मानो कुछ हल्की हुई. क्या हुआ इस केस में अब चारों ओर यही चर्चा है.
इन सबके बीच भिखारी दुसाध हो कर भी नहीं है , कोई उसे नहीं पूछ रहा. पूछने जैसा कुछ है भी नहीं अत्यंत ही भीरु और निरीह है. घूम-घूम कर बकरी चराना ही उसका काम है. ये मवेशी ही उसके जीने का एकमात्र सहारा हैं. इनकी देखभाल और खाना भी अत्यंत साधारण है. बकरियां हर तरह के पत्ते और घास खा लेती हैं. साल में एकाधिक बार और एकाधिक बच्चे भी पैदा करती हैं. कोई और होता तो इन्ही मवेशियों से अपनी किस्मत संवार लेता लेकिन भिखारी दुसाध की किस्मत! उसकी बकरी परिवार की परिकल्पना – दो बकरी एक बकरा, नहीं तो एक बकरी दो बकरा—इससे ज्यादा बढ़ती ही नहीं.
क्या करे! भिखारी की किस्मत —-- जंगल में चराने जाये तो सियार, लकड़बग्घा ले जाये. बाज़ार में बेचने जाये तो कोई सही दाम ही न दे. भिखारी लोगों के बीच से ऐसे चला जाता है मानों अपने अवांछित अस्तित्व पर वो खुद ही लज्जित हो.
कभी-कभी भिखारी को अपने मवेशी उठा कर भागते हुए जंगल की तरफ जाते भी देखा जाता है. चेहरे पर डर की गहरी छाप. आतंक से उसकी जीभ सूख जाती है, होठों के कोने में झाग जम जाता है. पहले-पहल लोग उसकी हालत देख अवाक् रह जाते थे.
का हुआ रे, भिखारी?
पुलिस आई - पुलिस
तो इससे तुझे का?
बकरा उठा ले जायेगा उ लोग.
पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता है. मवेशी के दुश्मनों के बीच ही जंगल में लकड़ी काट झोपड़ा तैयार कर के उन्हें अंदर रख खुद उसके मुहाने पर बैठा डर से काँपता रहता.
सम्पत्ति के नाम पर और तो कुछ भी नहीं है उसके पास, न घर न ज़मीन-जायदाद न बीवी-बच्चे बस यही जो कुछ बकरी है. पहनने को एक टुकड़ा धोती और दिन भर मवेशी के पीछे भागना यही उसका काम. ये भी कुछ बुरा नहीं इसमें भी वो सपने देखता है --- अगर उसके पास दस-पंद्रह बकरियां हो जाये तो वो उन्हें सुमाडी हाट में बेच आएगा बहुत अच्छे दाम पर सिर्फ एक गाभिन बकरी रख लेगा. उसके बाद एक बड़ी धोती और एक गमछा साथ में एक कंघी खरीदेगा. दुसाध टोला में खोज कर एक अच्छी विधवा, बड़ी उम्र की औरत से शादी भी करेगा दोनों मिल कर मवेशी पालेंगे तब उनकी संख्या और बढ़ेगी. फिर उसका भी एक जमीन और घर होगा.
लेकिन भिखारी का ये सपना कभी पूरा नहीं होता. बाड़ा गाँव में दुसाध लोग अच्छे ही थे, पता नहीं क्या हुआ बाड़ा के गणेशी सिंह के साथ, उन्होंने उसे मार डाला. पुलिस वहाँ बैठा दी गयी, वो लोग भिखारी और दूसरे दुसाधों के बकरा-बकरी उठा कर ले जाने लगे.
भिखारी कितना रोया गिड़गिड़ाया लेकिन पुलिस कुछ नहीं समझती. अंत में राका दुसाध ने कहा अपनी गाभिन बकरी को ले कर दूर भाग जा, नाडा गाँव में कोई गड़बड़ नहीं है वहाँ मैदान में चराना और बरगद के नीचे रहना.
भिखारी बरगद के नीचे झोपड़ी बना कर रहने लगा. नाडा के मालिक राजपूत हैं, सब हट्टे –कट्टे मांस खाने वाले लेकिन वो लोग कभी भिखारी से छिन कर नहीं खाते जब भी बकरा चाहिए पैसे दे कर खरीदते है. आठ रुपया दस रुपया .... लेकिन सबका किस्मत में सुख कहाँ!
फिर एक दिन वहाँ का राजपूत होली के दिन गाना गाने आई एक औरत को गोली मार दिया. बस! पुलिस आ कर बैठ गयी. पुलिस आते ही राजपूत लोग बोला भिखारी के पास से एक बकरा ले आओ. तीन दिन तीन बकरा देने के बाद भिखारी वहाँ से भाग गया.
सबके लिए ये दुनिया बहुत बड़ी न भी हो लेकिन भिखारी के लिए बहुत ही छोटी हो गयी थी. नाडा के बाद डांगा गाँव रहने चला आया. डांगा के शिव मंदिर के पुजारी हनुमान मिश्र को प्रणाम कर आया था.
क्या रूप-रंग!! मानो देह से रौशनी फूट रही हो. हाँ तो ऐसा देखने में कैसे न होई? देउता दूध पीते हैं, दूध में स्नान करते है, रोजे महादेव से बात करते है.
भिखारी वहाँ के जंगल में दुसाध टोली में बहुत खुश था सभी उसको अपना लिए थे, कहते थे यहीं रुक जाओ, शादी भी करा देंगे लेकिन ....
देउता के पास एक दिन दरोगा आया. सात दिन वहीं रह गया, भिखारी के देउता बोले, भिखारी दुसाध! दरोगा को बकरा खाने दो.
ये तो बचने जा रहा था देउता.
क्या? पुलिस दरोगा देव-देवता के स्थान के बाद ही होता है, उसे खिलाने में पैसे की बात करेगा?
बकरा भेंट चढ़ा कर डांगा गाँव भी छोड़ दिया भिखारी दुसाध.
डांगा गाँव के दुसाध लोग दुखी हो रहे थे लेकिन क्या करे भिखारी? उसका तो खेत मजदूरी का काम नहीं है. ये बकरी ही उसकी आजीविका है. पालना, बेचना, फिर पालना और फिर बेचना. पर पुलिस उसकी एक मात्र आजीविका का साधन बार-बार नष्ट कर देती है.
यहाँ के लोग, भिखारी गरीब है इसलिए कभी उसे छोटा नही समझे अपना साथी माना, अपने साथ खिलाया-पिलाया.
सब छोड़ कर अंत में आना पड़ा नवागढ़. यहाँ के प्राइमरी स्कूल मास्टर सुखचाँदजी बहुत अच्छे आदमी है. स्कूल के पास वाले बरगद के पास बैठ कर भिखारी से बहुत बातें करते है. उनकी उमर भी कम है, गाँव की रीती-निति नहीं समझते इसलिए कहते है, रात में तो बड़ा-बुढ़ा को पढना सिखाते हैं तुम उसी में चले आना.
का किया जाये महाराज़? भिखारी को आप पढना सिखायेंगे बस!! भागो भिखारी नवागढ़ से. राजा साहेब भगाएगा, पुलिस चला आयेगा, लाला जी सौदा नहीं बेचेगा, कुआँ से पानी नहीं मिलेगा.
सुखचाँद बोले कैसे?
कैसे नहीं? एक टौर्च देख कर हम पूछल रही, उकर दाम केतना हो, ए लालाजी? त लाला, कितना गुस्सा हो गईल. कहत रहीं, का भिखारी! दुसाध हो कर तू, छोटा काम करनेवाला, अभी का टोर्च जलाएगा?
नवागढ़ में भिखारी का एक नया घर बना है, राजा साहेब के वकील कबाड़ हुए बस, लॉरी लोहा लक्कड़ के दाम बेच देते हैं. जब तक न बेचे तब तक वही घर है और उसके पडोसी हैं कुछ भिखमंगे. वहीं पर बड़े-बड़े घास भी उग आये हैं जो भिखारी की बकरियों के लिए पर्याप्त है.
जंगल में बैठ कर यही सब सोचता रहता है, सोचता और सोचता ही रहता है. पुलिस लालाजी की दूकान नहीं लुटता, ग्वाला की गाय नहीं छीनता. जिसके पास जो है उसे रहने देता है फिर उसकी बकरियां क्यों छिन लेते हैं! इसके अलावा तो उसके पास और कुछ भी नहीं है.
अपने मवेशियों को जंगल के उस झोपड़ी में राम जी से प्रार्थना कर उनके हवाले रख कर कांपते ह्रदय से नवागढ़ अपने नये डेरा में पहुँच जाता है. ऐसे समय में लंगड़ा, कानी और कुष्ठरोगी लड़का सब उसकी बहुत मदद करते है, उसे बता देते हैं पुलिस यहाँ है तो भाग जाओ.
राम जी जब कृपा करते हैं तब उसके मवेशी सही सलामत मिलते हैं, जब राम जी उसकी अर्जी भूल जाते हैं तब कभी लकड़बग्घा ले जाता है तो कभी सांप काट लेता है. कभी-कभी तीन-तीन महीने नवागढ़ में पुलिस रह जाती है तब भिखारी रोज़ ही जंगल और नवागढ़ आना-जाना करता है.
इस बार तीन महीने तक पुलिस यहाँ रह गयी, भिखारी तो जंगलवासी ही हो गया था, एक दिन जंगल के किनारे-किनारे चलते हुए पहुँच गया बाड़ा गाँव की ओर. वहाँ जंगल में उसे बांका दुसाध मिला, उसने भिखारी की बहुत मदद की. तीन-चार और दुसाध लड़कों के साथ जंगल में घुस कर एक बहुत मजबूत झोपड़ा बना दिया और भिखारी से बोला यहीं रह जाओ, यहाँ उस नाले से पानी भी मिल जायेगा.
खाऊंगा क्या?
पैसे दो, खरीद लाता हूँ.
ये लो.
कुछ दिन बाद बांका बोला, कितने दिन रहना हो क्या पता! उस बकरे को बेच दो।
कहाँ?
हाट में.
भिखारी बोला, लेकिन मैं कभी वहां गया नही.
विश्वास कर सको तो मुझे दो.
बकरा बेच कर बांका उसके हाथ में साठ रूपये पकड़ा दिया। इतने रूपये देख भिखारी खुद को राजा समझने लगा. इन्ही तीन महीनों के बीच उसकी बकरी एक और बच्चा देती है. भिखारी उसे भी बेच कर अपनी खुराकी के इंतज़ाम का पैसा बांका के हाथ देता है.
बांका बोलता है अभी तो पुलिस नहीं है, बीच-बीच में टोली में आ कर सबसे मिल जाया करो.
बाडा टोली में ही एक दिन कनू दुसाध बोला नवागढ़ से पुलिस चौकी उठ रही है.
सुन कर भिखारी सोचा अभी ही चले जाना अच्छा है. बकरी परिवार अभी कुल आठ है—दो बकरी, दो बकरा, बछड़ा चार.
बांका बोला, चले जाने दो, उसके बाद तुम जाना.
पुलिस चली गयी, चौकी उठ गयी। भिखारी भी नवागढ़ के लिए रवाना हो गया. बहुत खुश था अपने बस वाले डेरा में लौटते हुए, उसे देख कर उसके भिखमंगे पड़ोसी भी खूब खुश हुए.
कानी उसकी जगह पर झाड़ू मार कर साफ कर देती है. एक आँख से सब देखने के बाद बोली, देख ले भिखारी सब है न?
हाँ,हाँ! सब है. घास की बनी चट्टी, गली-टूटी बोतल, टिन का पीपा.
खबर है भिखारी!
क्या?
दोरा भाग गया.
कहाँ?
सुमादि। वहां हाट में बैठने पर ज़्यादा पैसा मिलेगा और लँगड़ा क्या किया मालूम? डालि को भगा कर एक दूसरी लड़की लाया है।
और तू?
मुझे कौन लेगा बोल? एक आँख से दिखता नहीं, दोनों आँखे अंधी होतीं तो पैसा मिलता और इतनी बूढ़ी भी नही हुई अभी.
इसलिए इंसान की तरह मेहनत कर के नहीं खा सकती?
कम मेहनत करती हूँ? भीख मांगने तोहरी तक पैदल चल के जाती हूँ, कम मेहनत है क्या?
बाप रे! कितना सारा बकरा-बकरी रे भिखारी!
हाँ कल ही जा कर हाट में बेच आऊंगा.
नवागढ़ की और ... खबर है रे भिखारी!
क्या?
राजा साहेब को क्या तो मिला है सरकार की तरफ से. खूब हुल्लड़ और खुशहाली मना रहा सब. आज रात में पटाखा भी फोड़ेगा.
तुमलोगों का तो मज़ा हो गया.
नहीं, नहीं! ये लोग झूठे पत्तल पर कुछ नहीं छोड़ेंगे कि हमलोग कुछ खा सकें. खाने मिला था तोहरी के बैजनाथ लाल की माँ जब मरी थी. इतना-इतना पूड़ी कचौड़ी.
अरे कहाँ जा रहा भिखारी?
एकबार सुखचांद जी से मिल आएं.
सुखचांद जी भिखारी दुसाध जात और बकरी चराता है इसलिए घृणा नहीं करते. नवागढ़ में आने के बाद से किसी ने भी भिखारी से नही पूछा, भिखारी! कहाँ था इतने दिन? वो जो यहां रहता भी है ये भी कभी किसी की नज़रों में नही आया.
का किया जाये महाराज? ये तो होता ही है, होते ही रहता है. बकरे का मांस और दूध वो भी बहुत सस्ते दाम पर चाहिए तब भिखारी की ज़रूरत होती है. लेकिन इसका मतलब उसे किसी गिनती में रखा जाये ... नहीं, ऐसा क्या कभी होता है! ये कहानी बहुत पुरानी, नवागढ़ के माटी से भी पुरानी.
सुखचाँद जी का स्कूल आज बन्द है. सुखचांद बरगद के नीचे बैठ कर ग्वाल मोतिहार और भकत को बहुत मन से कुछ समझा रहे हैं. नवागढ़ के ग्वालों के पास बहुत धन है. सुखचांद की उम्र कम है समझाने बताने का उत्साह बहुत ज़्यादा.
आओ, आओ भिखारी, कब आये?
आज भोरे सुखचांद जी.
रामजी जैसे रखे। आप ठीक है न?
हाँ भिखारी। बैठो-बैठो.
भिखारी थोड़ा हँस कर, उन सब से दूर जा हाथ जोड़ कर बैठ गया. ग्वालों के पैर में नगड़ा, कान में पीतल की रिंग, हाथ में लाठी, सर पर पगड़ी, उन्हें देखने से ही डर लगता है भिखारी को.
मोतिहार भिखारी के आगमन से बेपरवाह बोला, ना, ना सुखचांद जी, फिर से बताइये.
शुरू से?
हाँ हाँ!
बताया तो....
फिर भी समझ नहीं आया. राजा साहेब की ख़ास ज़मीन पर से रेल लाइन बिछाई गयी, बस के लिए सड़क बनी, ये तो होता ही है। क्या भकत! सरकार क्या आसमान पर लाइन खींच रेल और बस के लिए रास्ता बनाएगी, ऐसा कहीं होता है?
हाँ मोतिहार, एकदम ठीक!
तो फिर राजा साहेब इसके लिए मामला क्यों किये? यही बात समझ नहीं आ रही.
सुखचांद बोला,क्यों नहीं करेगा? देखो, वो ज़मीन किसकी थी? राजा साहेब की थी?
हाँ, तो! अरे कितनी, कितनी सारी जमीन है उनकी.
उस जमीन पर राजा साहेब का हक़ था?
हाँ
अपनी संपत्ति पर जो हक़ है, इसके नाम से भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार है. मौलिक अधिकार सात प्रकार के हैं और भारतीय संविधान का कर्तव्य है प्रत्येक नागरिक की मौलिक अधिकार की रक्षा करना.
का ताज्जुब? “मौलिक अधिकार” कोनो बुरा बात न है जी? ठीक बात है?
कैसे हो ई बुरा बात, ई ख्याल आपका दिमाग में कैसे आई मोतिहार जी?
मोतिहार बोला, तब बटाईदार लोग चिल्ला रहा था”मौलिक अधिकार” ,उसी से ही न पुलिस आयी?
नहीं, नहीं वो तो कानून-सुशासन का बात आ गया था न इसलिए पुलिस आयी.
मौलिक अधिकार कैसा होता है?
सुखचांद खूब खुश हुआ क्योंकि उसे अपनी विद्या बुद्धी ज़ाहिर करने का मौका मिला. उँगलियों पर गिनते हुए बोलना शुरू किया. पहला हुआ, समानता का अधिकार. जिसमें जात-पात, धर्म कोई कारण नहीं देखा जायेगा सब समान है. इन कारणों से किसी पर अन्याय नही हो सकता.
ये बात लिखा है?
एकदम!
मोतिहार अपने ज्ञात सत्य के ज़ोर पर बोला, ये ज़रूर किसी अँगरेज़ का लिखा होगा. जात-पात धर्म का फरक नही रहेगा? हम और भिखारी दुसाध एक बराबर?
एकदम। संविधान में लिखा है.
फिर भी ये झूठ है, ये तो आँखों के सामने ही दिख रहा है हमेशा ही. जात के कारण ही कोई ऊँचा जात वाला भिखारी को अपने घर में आने नहीं देगा, उसका छुआ पानी नहीं पियेगा. ये ज़रूर किसी दुश्मन का बनाया हुआ बात है. क्यों सुखचांद जी? जवाहरजी प्रधानमंत्री थे, फिर इंदिराजी, हमलोग तो कभी ये बात नहीं सुने और कभी आँख से भी नहीं देखे कि दुसाध और बड़ा जातवाला को कोई बराबर मान दे रहा है.
सुखचांद कभी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर नहीं मारता. अपनी साध्य सामर्थ्य मुताबिक सरल तरीके से स्वाधीनता और मौलिक अधिकार क्या-क्या है, समझाने की कोशिश करता है.
इस बार भकत बोला, सब झूठ बात!
क्यों?
जो जैसा चाहे काम-काज कर सकता है क्या ये स्वाधीनता है?
बिलकुल है.
मुसलमान जो खाता है, उसका व्यवसाय कोई करने देगा क्या नवागढ़ में?
सुखचांद हँसा, फिर बोला, बाकि सब मौलिक अधिकार भी सुन लीजिये.
मैं तो रोज शाम को प्रौढ़ शिक्षा क्लास लेता हूँ. आपलोग भी आइये और दूसरों को भी लाइए. पढ़ना सीखेंगे तो आपलोग खुद ही पढ़ लेंगे.
ऐसा भी होता है क्या? अब इस उमर में?
लिखने-पढ़ने की भी कोई उम्र होती है भला?
अच्छा! और क्या कहें... आगे सुनिए.
खूब ध्यान से मोतिहार और भकत सुनते हैं। भिखारी एकबार भी मुंह नहीं खोलता. सुनता रहता है मौलिक अधिकारों के बारे में और सुखचांद की ओर बहुत आदर से देखता है.
अब मोतिहार बोला, हाँ वो आखरी बात, जिसकी जो संपत्ति है चाहे वो कुछ भी क्यों न हो उससे कोई छिन नहीं सकता--- हाँ ये बहुत अच्छा लिखा है.
इसीलिए तो राजा साहेब को छः लाख रूपये मिले.
छः लाख!
छः लाख की बात भिखारी के मन में कोई भाव नहीं जगा पायी क्योंकि छः लाख के विषय में उसकी कोई धारणा ही नहीं ये कितना होता है. मोतिहार और भकत लेकिन हैरान हो जाते हैं इतने रूपये सुनकर.
सुखचांद एक प्राइमरी स्कूल शिक्षक है रूपये के अंक ले कर उसे भी कोई सरदर्द नहीं, वो बस मौलिक अधिकार समझाना चाहता है.
यही बात तो कह रहा हूँ. राजासाहेब का था उनकी जमीन पर मौलिक अधिकार, सरकार बिना इजाजत लाइन बिछा दी रास्ता काट दी। तब राजा साहेब के मौलिक अधिकार पर ही चोट हुआ.
हाँ-हाँ फिर....
राजा साहेब वयस्क हो कर केस किये रेल विभाग पर और केस जीत गए.
अच्छा! संपत्ति पर मौलिक अधिकार के लिए तो जमीन होना चाहिए है न?
अरे नहीं, भकत जी! देखिये, आपकी सम्पति घर, गाय-भैंस, बर्तन, सामान-असबाब सबकुछ है. मोतिहारजी का भी वही. मेरी संपत्ति ये कपड़ा-लत्ता, खटिया, किताब आदि और भिखारी का संपत्ति उसके बकरा-बकरी। चल- अचल सबकुछ संपत्ति में ही आता है कोई इसे छीने तो इसके लिए उसे क्षतिपूर्ति देनी होगी.
समझा.. बड़ा अच्छा लगा ई सब जान कर.
फिर आईयेगा.
विदा लेते वक़्त मोतिहार बोला, अब शादी कर लीजिये. आपकी जात की एक लड़की गाँव में ही है और खेत, भैंसा, हल, सायकल सब देगा.
ना-ना...
चलते हैं सुखचांद जी.
वो लोग चले गए. इधर भिखारी एक नया विषय जान कर उसके आघात से घायल है.
सुखचांद जी... जो बात अभी आप बोले वो सब सच है। उ मौला अधिकार?
मौलिक अधिकार, भिखारी!
और उ बटाईदार लोग का नारा... उ लोग भी तो यही बोल रहा था।
हाँ भिखारी.
राजासाहेब की जमीन उनकी संपत्ति फिर मेरा बकरा-बकरी मेरा संपत्ति?
बिलकुल!
राजासाहेब की जमीन सरकार ले ली तो बदले में कितना तो रुपया दी , मेरा बकरा सब पुलिस बार-बार उठा के ले जाती है जिसका डर से हम जंगल भाग जाते हैं .... उसका पैसा तो हमको कोई नहीं देता! तो सरकार क्या पुलिस को ये मौलिक अधिकार की बात बताना भूल गयी है?
वो तो जुल्म करते है, भिखारी.
तब राजासाहेब को जो इतना रुपया मिला सुखचांदजी, सिर्फ बड़ा आदमी को ही मिलता है क्या?
दर्दभरी हँसी हँस कर सुखचांद बोले, व्यावहारिक रूप से शायद ऐसा ही होता है, लेकिन संविधान में अच्छी बातें ही लिखी गयी है.
हम का जाने सुखचांद जी का लिखा है.
राजा साहेब को जो मिला उसके लिए उन्हें मुकदमा करना पड़ा. संविधान में ये भी लिखा है मौलिक अधिकार नष्ट होने पर, करनेवाले के नाम तुम मुकदमा कर सकते हो.
मैं? मैं कैसे मुकदमा कर सकता हूँ. इस बारे में तो कुछ नही जानता और पुलिस अगर बकरा उठा ले गयी तो उनके ऊपर कोई दुसाध मुकदमा कर भी नहीं सकता.
सुखचांद बोला, कर सकता है, ये हक़ है.
कैसे? पैसे कहाँ? हिम्मत कहाँ किसी दुसाध की? उस हक़ को मैं नही समझता सुखचांद जी. उससे कुछ काम नहीं होता.
ये भी सच कहा! अब और क्या कहूँ तुमसे......
सुखचांद को विभ्रांत देख भिखारी थोड़ा हँस कर दिलासा देने के भाव से कहता है.. और का कहियेगा आप? धरती पर जो चलता आया है वो ही चलता रहेगा। है कि नही!
ऐसा नहीं भिखारी. जो लिखा है वही ठीक है. वो सब काम में नहीं लाया जाता क्योंकि गलत हमारे बीच ही है। ये तो हमारा ही काम है न?
सुखचांद खुद भी कभी भिखारी का छुआ नहीं खाता, ऐसा सोच भी नहीं सकता. लेकिन उसकी अपनी धारणा है कि वो जात-पात, छुआछुत नहीं मानता क्योंकि ये सब किताब में लिखा है, लिखी हुई बातों पर अटूट विश्वास है उसे और इसी ज़ोर पर वो कहता है कि ये सब मानना गँवारपना है न तो जवाहर जी विश्वास करते थे और न ही इन्दिरा जी मानती थी.
फिर भी तो छुआछुत है और रहेगा ही। देखिए न, ये तो भगवान की सृष्टि है. रामजी किसी को ब्राह्मण बनाये तो किसी को दुसाध, इसी से तो छुआछुत भी चलता है. मैं तो कुछ भी नहीं जानता लेकिन तोहरी मन्दिर के ब्राह्मण हनुमान मिश्र तो अच्छे आदमी हैं, है न? वो तो कभी दुसाध के परछाई पर भी पाँव नहीं रखते क्योंकि उनकी बातचीत तो महादेव विश्वनाथ से होती है, वो तो भगवान के मन की बात जानते हैं.
सुखचांद लाचार हो कर बहस यहीं छोड़ देता है और बोला, और बताओ भिखारी, कैसे थे इतने दिन?
भिखारी उल्लसित हो कर जवाब दिया, बहुत अच्छा था, इतना अच्छा रहने की बात तो कभी सोचा भी नहीं था. और सबसे अच्छा ये हुआ कि बकरा-बकरी कुल दस हो गए.
दस! क्या बोल रहे हो?
दो बकरा जवान है। पन्द्रह-सोलह सेर मांस तो होगा ही। हाट में आठ रुपया सेर बेच देंगे। दो सौ रूपये तो हो ही जायेंगे.
वाह भिखारी तब तो तुम्हारे पास अच्छे पैसे हो जायेंगे।
भिखारी बोला, आशीर्वाद कीजिये... इतने पैसे मिल गए तो मेरे सब दुःख दूर हो जायेंगे.
कैसे?
कैसे नहीं, देखिये इतने पैसे हो गए तो ब्याह करेंगे दोनों मिल कर बकरी पालेंगे. और कमाई होगा तब घर दुआर, बर्तन बासन भी होगा। घर-संसार में जैसा होता है.
तुम्हारा घर कहाँ है?
बिजुपाड़ा पार कर के....
तुम्हारा कोई नहीं है क्या?
नहीं
सुखचांद को भिखारी से बहुत अपनापन लगता है. वो बोला, तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो भिखारी.
चलता हूँ सुखचांदजी
भिखारी घर की ओर चल पड़ा आज जाने क्यों उसका मन बहुत खुश है. सोच रहा था नवागढ़ में पुलिस चौकी नहीं बैठती तो वो भाग कर बाड़ा भी नहीं जाता. भागा तभी तो आज उसके दिन फिर रहे हैं.
रास्ते में आटा, नमक, सुखा कच्चू खरीद लिया. लाला से बोला, अच्छे हैं न लाला जी?
उसकी किसी बात का जवाब नही दिया लाला ने. रामधारी ठेकेदार की बात सुनने में ही व्यस्त रहा. सौदा लेते हुए ही कान में बात पड़ी कि आज ‘सूरमहल’ में पांच हज़ार की आतिशबाजी होगी. भिखारी भी सोच लिया शाम को जल्दी वहां पहुँच जायेगा.
कच्चू की सूखी सब्ज़ी और कड़ी सेंकी रोटी बनाएगा, दो दिन इसी से चल जायेगा. भिखारी सोच रहा था, लँगड़ा अगर एक और लड़की ले आये तो भिखारी को भी एक औरत मिल जायेगी. पहले बकरी चराना होगा फिर शायद जमीन भी खरीद सके. शादी करने से रिश्तेदार, बन्धु, समाज सब मिलेगा। वो लोग भी मदद करेंगे. अकेले- अकेले और कितना रहा जाये? सबका साहचर्य मिलता है तो हिम्मत भी बढ़ती है.
कपड़े धो कर खाना पकाते हुए सूरज डूब गया। बकरा सब गिन कर बस में चढ़ा लिया कि तभी वो लोग आ गए.
राजासाहेब के सिपाही, दो पुलिस.
पुलिस...
भिखारी बेहद डर गया बस के गेट पर ही पीठ टिका कर खड़ा हो गया. ये क्या हुआ? पुलिस चौकी नहीं, पुलिस नहीं इसलिए तो नवागढ़ लौटा था भिखारी. पुलिस?
का भिखारी डर गईल का?
सिपाही गजानन हँसा, शराब की गन्ध आ रही थी। दो बकरा निकाल। राजा साहेब पूरा थाना को न्योता दिए हैं कहाँ मिले इतना गोश्त?
नाय, नाय!! बकरा ना है.
तब बकरी निकाल.
ऐसा न करिये साहेब, गोड़ लागी आपका. वो ही हमारा जीवन है देवता, ना लियो.
भाग साला दुसाध!
गजानन कस कर एक चांटा लगाया भिखारी के गाल पर, नाक की चमड़ी और होंठ फट कर खून निकल आया. भिखारी तब भी चिल्ला रहा था, ओहि पुलिस के डर से भाग गए हम, न लियो सिपाहीजी.
काहे न ली? राजा साहेब बुलाये तभी तो पुलिस आई. तो गोस्त का अब खरीद के खायेगी? तू राजासहेब के मूलक में रहता है न? तू देगा. अब चल भाग.
भिखारी मुसीबत में पागल हो कर बोलने लगा, बकरा-बकरी पर हमनी का हक़ है, जैसे राजा साहेब के हक़ का जमीन छीन गया तो उसी हक़ से उनको रुपया मिला। हम काहे छोड़ें हमनी का हक़?
का? का बोला रे दुसाध?
सिपाही और पुलिस दोनों मिल कर भिखारी को मारे. दक्ष निपुण पेशेवर, प्रशासन अनुमोदित मार. मारते-मारते उनका दम नहीं निकलता. मारते-मारते वो लोग बोलते हैं, बात सुना इसका भाई गजानन? बटाईदार लोग अपनी लड़ाई लड़ते हुए इनको भी हक़-वक सीखा गए. साला पुलिस बकरा नहीं खायेगी तो कौन खायेगा बता? भाई गजानन, ये तो एक और राजा साहेब है नवागढ़ का, राजा साहेब की जमीन और इसके बकरे का हक़ एक बराबर हो गया?
मार-पीट कर भिखारी को अधमरा कर वो लोग चारो बकरा बकरी ले कर निकल गए महाउल्लास में.
भिखारी पशु की तरह पड़ा रोता रहा, रोता ही रहा. दर्द से हिल भी नहीं पा रहा था. लेकिन वो रो रहा था, वंचना की वेदना में, झूठ- सब झूठ है सुखचांदजी की बातें. बकरा-बकरी पर जो उसका अधिकार, सांतवा मौलिक अधिकार है? अधिकार हनन न हो ये संविधान देखती है? सब झूठ, सब झूठ! भिखारी का मौलिक अधिकार बार-बार छिनता है. राजा साहेब को क्षतिपूर्ति मिलती है, भिखारी को क्यों नहीं मिलता? राजासाहेब को क्षतिपूर्ति के छः लाख देने से ही हो जाता है. भिखारी दुसाध का बकरा-बकरी के जीने के मौलिक अधिकार क्षुण्ण होने पर उसे सुरक्षा देने की क्षमता भारत सरकार में नहीं इसलिए भिखारी को क्षतिपूर्ति भी नहीं मिलती क्या?
भिखारी को कानी, लंगड़ा और लँगड़े की औरत मिल कर उठा लाते हैं.
तीन भिखमंगे भिखारी की देखभाल किये, घाव सूखने और उठ कर खड़े होने में दस दिन लग गया. तब भिखारी लँगड़ा से बोला, चल लँगड़ा बछड़ों को भी बेच आते हैं जो दाम मिल जाए!
बीस रूपये में चार बछड़े बेच आया. भिखारी की कमर अब कभी सीधी नहीं होगी, सर भी मुंडवाना पड़ा ताकि घाव जल्दी सूख जाए... क्षत-विक्षत हुए चेहरे पर से ये चिन्ह कभी नहीं जायेंगे, मौलिक अधिकार की रक्षा हेतु पहला और आखरी प्रतिवाद के परिणाम चिह्न स्वरुप!
अब का करेगा भिखारी?
भीख माँगेंगे.
भीख
हाँ, भीख...
उन सबको तीन-तीन रूपये कर के देता है. लाला की दुकान का उधार चुकाया छः रुपया. बकरा बाँधने की रस्सी का दाम मोतिहार के नौकर को दिया दो रुपया. तीन रुपया अपने पास रखा, पेड़ का डाल तोड़ कर लाठी बनाया अब हाट में जा कर एक कटोरी खरीदेगा, भिक्षापात्र!
सुखचांद उसे देख उसके पास आया, घटना की खबर उसे भी मिली थी.
भिखारी!
जा रहा हूँ सुखचांद जी.
कहाँ? भिखारी कहाँ?
जहाँ भीख मिलेगा.
लेकिन तुम्हारे शरीर में तो अभी भी......
ये बात!! का किया जाए महाराज? आप तो हमनी के झूठ बात बता दिए रहे, हमरे लिए तो उ मौलिक अधिकार है ही नहीं सिरिफ राजा साहेब के लिए है.
चले सुखचांद जी.
लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलता गया भिखारी दुसाध परम निर्भयता से. अब पुलिस देख कर डर नहीं लगेगा. बकरा-बकरी, बासन-बर्तन भी अगर दुसाध की संपत्ति है तब भी पुलिस से डरना पड़ता है. जंगल में भागना पड़ता है, दुसाध देखते ही सब छीन लेगी पुलिस. बेसहारा, लाचार, भिखमंगा दुसाध देखने पर पुलिस कुछ नहीं करेगी. भिखारी को अब लगता है ये बात वो पहले क्यों नहीं जानता था? अपनी मातृभूमि पर यदि एक दुसाध राजा साहेब, लालाजी, पुलिस, हनुमान मिश्र सबकी दया ले कर ज़िंदा रहना चाहता है तो एकमात्र उपाय है भिखमंगा बन कर रहना? जो दुसाध बकरी चरा कर भिखारी दुसाध की तरह इंसान बन कर जीना चाहता है वैसे ही दुसाध से तो सब नाराज़ हो जाते हैं.
अब खुद अकेला भी नहीं पाता. कहाँ नहीं है भिखमंगे? कानी, लगड़ा, डोरा .... जहां भी चले जाओ हर जगह मिलेंगे. अब भिखारी अकेला नहीं, एक बहुत बड़े समाज का हिस्सा है.
सुखचांद भिखारी को देखते और सोचते हैं, भिखारी दुसाध सात नम्बर मौलिक अधिकार से भले ही वंचित हुआ, तीन नम्बर अधिकार की रक्षा ज़रूर हुई है. किसी भी व्यवसाय या काम को चुनने का अधिकार. भिखारी भिक्षाटन आजीविका के लिए चुन लिया. वो जन्म-जन्मांतर तक भिखमंगा ही रहे, भारत सरकार ये अवश्य ही सुनिश्चित करेगी. उसे कोई यदि किसी दूसरे आजीविका के लिए प्रेरित करना चाहे तो? भारत का संविधान उसके मौलिक अधिकार का हनन बरदाश्त नहीं करेगी. भारत के किसी भी कोने में ऐसा अन्याय हुआ तो भारत का संविधान वहां पुलिस, रिजर्व बल, सैन्य बल, टास्क फ़ोर्स, जंगी विमान सब वहां उतार देगी।
भिखारी दुसाध लंगड़ाते-लंगड़ाते सड़क के मोड़ पर अदृश्य हो गया. उसे अब और कुछ भी खोने का डर नहीं।
महाश्वेता जी की सूक्ष्म दृष्टि को आम पाठकों के सामने रखती रचना...
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