Thursday, 8 March 2018

महिला सशक्तिकरण की महान अनुप्रेरक व्यक्तित्व - मैडम क्यूरी




इक्कीसवीं सदी महिलाओं के सशक्त होने और हर क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहराने की साक्षी बन रही है। यहां तक का सफर कितना कठिन था ये जब हम पीछे मुड़ कर उन महिलाओं के विषय में पढ़ते हैं तब महसूस करते हैं कि योग्यता चाहे असीमित रही हो किन्तु पुरुष प्रधान समाज में अपनी जगह बनाने के लिए कितना संघर्ष और विरोध का सामना करना पड़ता है चाहे वो महान वैज्ञानिक ही क्यों न हों!
हाँ वास्तविकता यही है, 20वीं सदी की शुरुआत में जब पश्चिमी महिलाएं अपने समानता के अधिकारों  के लिए लड़ रही थी उस समय उनका वैज्ञानिक समाज भी इन्हीं विषमताओं और पूर्वाग्रहों से अलग नहीं था। समाज के सबसे उन्नत बुद्धिजीवी वर्ग ने भी उस समय की सबसे प्रतिभाशाली महिला वैज्ञानिक के साथ भेदभाव किया, यही नहीं वो अपने शोधकार्य में सफल न हो सकें इसके लिए मानसिक प्रताड़ना भी देते रहे। लेकिन स्त्री जिजीविषा की ज्वलंत उदाहरण मैडम मेरी क्यूरी ने अपनी लगन और अथक परिश्रम से विज्ञान की दुनिया को महान अविष्कार दिया, जिससे आज समाज कैंसर जैसे असाध्य रोग को भी साधने में सफल हो रहा है। मैडम क्यूरी एकलौती ऐसी महिला वैज्ञानिक हैं जिन्हें अपने कार्यों के लिए दो-दो नोबल पुरस्कार मिले। उनका यह रिकॉर्ड आज तक कोई और नहीं तोड़ पाया।
विचित्र संयोग था एक ही जीवन में दो बार नोबल पुरस्कार के लिए नामित होना! खुद नोबल पुरस्कार कमिटी के लिए भी असमन्जस की स्थिति थी कैसे ऐसा होने दिया जाये! बहुत बहस हुई अंत में  यही विचार हुआ कि नोबल पुरस्कार किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि कार्यक्षेत्र में हुई असाधारण उपलब्धि को दिया जाता है इसलिए मैडम क्यूरी योग्य व्यक्ति हैं जिन्हें पहली बार 1903 . में भौतिक विज्ञान क्षेत्र में और दूसरी बार रसायन विज्ञान के क्षेत्र में उपलब्धि के लिए 1911 . में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1903 . में भौतिक विज्ञान में मिला नोबल पुरस्कार तीनों सहयोगियों के नाम रहा जिसमे मेरी क्यूरी के पति पियरे क्यूरी का भी नाम था। जब पुरस्कार के लिए नामित किया गया तब मेरी का नाम नहीं था, पति पियरे क्यूरी ने आपत्ति जतायी और मेरी को भी बराबर का साझीदार बताया। तब उनका नाम शामिल किया गया। पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान कमिटी के प्रेजिडेंट ने अपने भाषण में बाइबिल का एक उदाहरण दिया- "ईश्वर ने कहा है, पुरुष का अकेले रहना अच्छा नहीं। मैं उसके लिए बनाऊंगा उसकी एक सहकारिणी।" मानो इस सफलता में मेरी की भूमिका मात्र एक सहायिका की थी, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
आज विज्ञान जगत मैडम मेरी क्यूरी को उनके असाधारण योगदान के लिए सलाम करता है। ये तो हुई विज्ञान जगत में उनके आविष्कार और सफलता की बात, कट्टर पुरुष सत्तात्मक समाज में सफलता के शिखर पर पहुँचने की बात। इसके बाहर भी उन्हें अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन जीने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा और उन्होंने वैसे ही जिया जैसा उन्हें जीना था।
 मरिया स्कलोडोवस्का क्यूरी का जन्म 7 अगस्त 1867 को पोलैंड में हुआ था। शिक्षक माता-पिता की संतान मैरी हमेशा से ही मेधावी थी लेकिन आर्थिक मुश्किलों ने जीवन इतना संघर्षपूर्ण कर दिया था कि पढ़े या परिवार का पालन करे, ये भी सोचना पड़ गया। उनकी पढाई जारी रखने की दृढ़ इच्छाशक्ति ने उन्हें हारने नहीं दिया लेकिन इसके लिए उन्हें अपना शहर छोड़ पेरिस जा कर बसना पड़ा।
बहन के घर रह कर पढ़ना मुश्किल हो रहा था क्योंकि पढ़ाई-लिखाई में बाधा आ रही थी, उन्होंने एक छोटा सा कमरा किराये पर ले लिया जो कि गर्मी में बायलर तो सर्दी में फ्रीज़ जैसा हो जाता था। पकाने का भी समय नहीं तो रोज़ ही ब्रेड और एक टुकड़ा चॉकलेट खा कर ही गुज़ारा करती। अपने कष्टमय दिनों के विषय में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘ये जीवन किसी-किसी दृष्टिकोण से वेदनामय होने के बावजूद मेरे लिए आनंदमय ही रहा। मुझे मिला मुक्ति और स्वाधीनता का स्वाद, जो बहुत मूल्यवान है। पेरिस में मैं अनजान-अपरिचित सी खो गयी इस शहर में लेकिन वहां बिना किसी की सहायता के ज़िंदा रहने की अनुभूति ने हतोत्साहित नहीं किया, बल्कि एक अद्भुत शान्ति और तृप्ति से मन भरा रहा। मेहनत का फल मिला- फिजिक्स की डिग्री में पहला स्थान और गणित में भी।
मैडम क्यूरी के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ अध्यापक पियरे क्यूरी के साथ। पियरे क्यूरी उस समय अनुसन्धान में व्यस्त थे। मैडम क्यूरी ने उनसे विवाह कर लिया और वहीं बस गयीं। शादी के दो साल बाद उनके घर पहली बेटी का जन्म हुआ। पति-पत्नी दोनों ही अनुसंधान के काम में लगे रहे। प्रयोगशाला के नाम पर एक कमरा और कुछ मर्तबान थे। कमरे से धुएं के निकलने तक की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी लेकिन क्यूरी दम्पत्ति और उनके सहयोगियों ने कम संसाधन में भी अपने काम को जारी रखा। मैडम क्यूरी की खूब आलोचना होती कि वे अपनी संतान का ख्याल नहीं रखतीं, दिन रात प्रयोगशाला में ही पड़ी रहती हैं मैडम क्यूरी ने इन आलोचनाओं का असर कभी अपने काम पर नहीं होने दिया नतीजा रेडियोएक्टिविटी का आविष्कार, उसकी व्याख्या और उसके अनुसंधान के लिए फिजिक्स में नोबल पुरस्कार।
1905 के अंत तक पियरे की तबियत बिगड़ने लगी। वो अनुसन्धान के दौरान रेडियोएक्टिव किरणों से आक्रांत हो चुके थे। लेकिन उनकी मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हुई। मैडम क्यूरी अकेली हो गयीं। उनकी मृत्यु के बाद शोकाकुल मेरी पागल सी हो गयी थीं उन्होंने अपनी डायरी में भी जिक्र किया है, “बार-बार नाम ले कर पुकारने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिलता एकाकी जीवन और दीर्घश्वास के अतिरिक्त मेरा अब कुछ नहीं रहा।
नोबल पुरस्कार में मिली राशि से क्यूरी दम्पत्ति ने प्रयोगशाला को अनुसंधान लायक बनाया था। अब मेरी फिर से अपने अनुसन्धान में जुट गयी। सन् 1911 में फिर से नोबल पुरस्कार के लिए उन्हें नामित किया गया। लेकिन आपत्तियों का दौर शुरू हो गया। मात्र 8 साल के अंतराल में फिर से पुरस्कार। ठीक तभी उनके सामाजिक जीवन में एक तूफ़ान आया, स्कैण्डल का बाजार गर्म हो उठा। मैडम क्यूरी की इतनी उपलब्धियों और सतत् वैज्ञानिक अनुसन्धान कार्यों को नज़रअंदाज़ कर उन्हें उनके प्रेम सम्बन्ध के लिए धिक्कारा जाने लगा। निजी जीवन को अखबार में उछाल कर उन्हें ‘घर तोड़ने वाली डायन’ तक की संज्ञा दे दी गयी। उनके इतने वर्षों की मेहनत और विज्ञान जगत की उनकी देन को भी छोटा कर उन्हें चारित्रिक दोष का आरोपी बना नोबल पुरस्कार समारोह में सम्मिलित होने से रोकने का प्रयास किया गया तब उन्होंने बड़ी दृढ़ता से अपने जीवन के चरम अपमानजनक क्षणों का सामना किया। उन्होंने कहा, 'ये पुरस्कार दिया जा रहा है पोलेनियम और रेडियम के अविष्कार को। मैं विश्वास करती हूँ मेरे अनुसन्धान और व्यक्तिगत जीवन का एक-दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। किसी के जीवन पर लगाये गए लांछन उसके अनुसन्धान कार्यों पर छाया डाले, ये नैतिक रूप से मैं कभी नहीं मान सकती।' पुरस्कार ग्रहण करने वो स्टाकहोम भी गयीं और भाषण भी दिया।
इस लज्जाजनक प्रकरण के बाद प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने उन्हें ख़त लिख कर उन्हें अपना समर्थन और मुद्दे पर खेद व्यक्त किया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय एक्स-रे मशीन के साथ फ्रंट लाइन में जा कर सैनिकों की जो सेवा की उसे भी युद्ध का इतिहास कभी नहीं भुला सकता। मीडिया का उनके पत्रों को सार्वजनिक करने पर जो अपयश मिला था वो सब भुला कर लोगों ने युद्ध के बाद उन्हें एक सेलिब्रिटी जैसा दर्जा दिया। उनके सम्मान में समारोह आयोजित किये गए।
मैडम क्यूरी की मृत्यु 66 वर्ष की उम्र में ल्यूकेमिया के कारण हुई। अनुसंधान के दौरान लगातार रेडिएशन के क्षेत्र में काम करते हुए वो इस रोग से पीड़ित हो गईं। उन्हें भी उनके पति पियरे क्यूरी के पास ही दफनाया गया।
उनकी मृत्यु अपूरणीय क्षति थी विज्ञान जगत के लिए लेकिन उनके आविष्कार ने आज कितने ही कैंसर पीड़ितों को जीवन दान दिया है। मैडम क्यूरी एक ऐसी महान महिला वैज्ञानिक थी जिन्होंने आजीवन पुरुष सत्तात्मक समाज से लड़ते हुए उनके बीच अपने लिए सम्मानजनक स्थान बनाया। मैडम क्यूरी महिला सशक्तिकरण की एक उत्कृष्ट मिसाल हैं, जिनके योगदान के लिए पूरी मानवता सदा ऋणी और नतमस्तक रहेगी।

Wednesday, 13 September 2017

प्राचीन अपराध : बलात्कार




विषय कुछ नया नहीं बल्कि सदियों पुराना है. युद्ध और कब्ज़ा करने के युग का जब आरम्भ हुआ होगा शायद तब से ही बलात्कार होते चले आ रहे हैं. भारत में हमेशा से माना जाता रहा है कि बलात्कार तभी होता है जब स्त्री कि सहमति होती है या वही उत्तेजित करती है. उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है इसलिए लांछना और सज़ा भी स्त्री को ही मिलती है.
क्यों भूल गये? अहिल्या को भी तो पत्थर बन जाना पड़ा था व्यभिचार का आरोप ले कर, जबकि धोखा इंद्र ने दिया था.
राजनैतिक बलात्कार से बचने के लिए ‘सती’ होने की प्रथा चल पड़ी. उच्च कुलीन स्त्री को भी सती कर देने का प्रचलन हो गया. कारण था कहीं पति के अभाव में व्यभिचार करने लगे तो सर्वनाश हो जायेगा. कुलीन स्त्रियाँ तब घर से बाहर शायद ही कभी निकलती थीं, तो डर किसका था? ज़ाहिर है अपने ही सगे-सम्बन्धियों का! पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति को बहुत ही सहज लिए जाता रहा है, समझा जाता है कि पुरुष ग्रंथी की इसमें अहम भूमिका है इसलिए ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं. स्त्री ही इसके लिए दोषी है.
युग बदला क़ानून भी बने लेकिन बलात्कार के प्रति मानसिकता नहीं बदली परिस्थति चाहे कुछ भी हो यहाँ तक कि बाल शोषण में भी यही माना जाता है कहीं-न-कहीं उसकी इच्छा थी तभी ऐसा हुआ.
बीसवीं सदी यूरोप में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का युग था. शुरुआत से ही बलात्कार को गंभीरता से नहीं लिया गया. बाद में जब इसके कारणों का विश्लेषण किया जाने लगा तब प्रतिपादित कर दिया गया कि स्त्री उकसाती है या इसकी कामना करती है तभी बलात्कार होते हैं. यानी जो हमारे देश में पहले से प्रचारित था उसे उन्होंने थ्योरी बना दिया.
बलात्कार कितनी बड़ी त्रासदी और कितने व्यापक रूप में समाज में स्थापित है इस पर यकीं दिलाने में स्त्रीवादियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा. एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा था, बलात्कार कम या ज्यादा समझ बुझ कर की गयी वो धमकी है जो पुरुष महिलाओं को डर की स्थिति में बनाये रखने के लिए करते हैं.
मनोविश्लेषक निकोलस ग्रोथ ने 1979 में जेल में रह रहे सौ बलात्कारियों का अध्ययन कर अपने रिपोर्ट में लिखा था, बलात्कार के मुख्यतः तीन कारण होते हैं – sadism, anger or the desire of power यानी कुछ अपवाद छोड़ कर ज्यादातर बलात्कार यौनेच्छा से प्रेरित नहीं होती बल्कि ऐसा अपराध है जिसमें व्यक्ति को शारीरिक मानसिक पीड़ा दे कर दबाव में रखा जाता है, सबक सिखाने और आत्मतुष्टि का आनंद पाने के लिए होता है.
बेरहमी, स्वार्थ और लैंगिक भेद एक पुरुष को बलात्कारी में परिवर्तित कर देता है. हम यदि मान भी लें कि लैंगिक भेद मिटा दिया जायेगा तो भी स्वार्थ और नृशंस भाव से व्यक्ति आज तक उबर नहीं पाया. ऐसे में कानून बनने के बावजूद बलात्कार कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं.
आज हम ऐसे समय में पहुँच गये हैं जहाँ अख़बार ऐसी खबरों से ही भरे रहते हैं. अपराधी अब गैंग में होते है. पीड़िता को मार डालने में भी कोई डर या संकोच नहीं होता. ऐसे कृत्यों के साथ अब नया आयाम जुड़ा है तकनीक का. अब बलात्कारियों के पास बलात्कार सिर्फ ताकत दिखाने का ही जरिया नहीं बल्कि विडियो और फोटो वायरल कर पैसे कमाने का भी जरिया है. समाज में कुछ लोग ऐसे भी है जो ऐसे जघन्य यौनिक हिंसा के विडियो देखना बहुत पसंद करते है. एक बड़ा बाज़ार रियल रेप विडियो का है.
हम सोचते हैं क़ानून बनने और जागरूकता फैलाने के प्रयास के बावजूद ऐसे हादसे रुकना तो दूर कम होने का भी नाम क्यों नहीं ले रहे? तस्वीर बिलकुल साफ है – समाज में परपीड़ा से आनंद पाने वालों की संख्या कुछ कम नहीं, यही इसका असल कारण है. बलात्कार सिर्फ एक व्यक्ति पर हुए हमले का मुद्दा नहीं बल्कि उसकी पहचान छीन लेने का अपराध है. साथ ही सामाजिक सुरक्षा का भी प्रश्न है. आज हर परिवार अपने बच्चों और महिलाओं के प्रति अत्यंत असुरक्षा के भाव से आतंकित है. बलात्कार पर काबू नहीं पाया जा रहा लेकिन पीड़ित के प्रति संवेदना ज़रूर होनी चाहिए. पुलिस की भूमिका सबसे अहम है तुरंत कार्यवाही और सुनवाई के बाद सज़ा के लिए चार्जशीट जल्द ही प्रस्तुत करना होगा. सरकार द्वारा पीड़िता को पुनर्वास के लिए सहायता राशि भी प्रदान की जानी चाहिए.
क़ानून तो है बस तत्परता और संवेदना की अत्यंत आवश्यकता है. सारी घटनाओं के पीछे स्त्री को निम्न समझने की मानसिकता प्रमुख है इसे बदलने के लिए बचपन से ही नींव डालनी होगी.





Friday, 1 September 2017



तकनीक की साया  

1985-87 में एक अंग्रेजी धारावाहिक “small wonder” प्रसारित हुआ करता था। उसी का हिंदी रूपांतरण लगभग एक दशक बाद किया गया। दोनों ही सीरियल काफी लोकप्रिय हुए। मैं भी बड़े चाव से देखती थी। एक लड़की जो देखने में बिल्कुल आम दूसरी लड़कियों जैसी है लेकिन उसके काम इतने असाधारण कि वो कारनामों में तब्दील हो जाते। दरअसल वो लड़की ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ का एक नमूना थी जिसे उसके सृजक वैज्ञानिक अपने घर ले आते हैं और अपनी बेटी बता कर दुनिया से उसका परिचय कराते हैं। बहुत मज़ा आता था उसके कारनामें और अड़ोस-पड़ोस की हैरानी देख कर।
80 के दशक में हमारे देश में ये सब तकनीकी क्षेत्र में कल्पनातीत था लेकिन यहां पर सत्यजीत रे की एक कथा शृंखला का ज़िक्र करूँगी जिसमें उन्होंने ऐसे ही एक रोबो मनुष्य की रचना की जो न सिर्फ हर कार्य में माहिर था बल्कि पृथ्वी से ले कर अन्य ग्रहों के प्राणियों तक की भाषा समझने में सक्षम था। सत्यजीत रे की कल्पना यहाँ तक जाती है कि उस रोबो को बनानेवाले वैज्ञानिक प्रो शंकू को भी ज्ञात नहीं कि उस रोबो में और क्या-क्या विशेषताएँ हैं! समय सापेक्ष वो सामने आता।
आज इन कथा कहानियों और कल्पनाओं को साकार करने में तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी जापान ने सफलता प्राप्त कर ली है।  जापान ने ‘साया’ नाम से एक ऐसी ही लड़की को अब दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। साया 16-17 साल की प्यारी सी जापानी लड़की है (दरअसल साया की कोई उम्र ही नहीं)। सड़क पर निकली तो कोई पहचान ही नहीं पाया कि वो रोबोट है। सिर्फ चेहरा ही नहीं उसमें अच्छी लड़की के सारे गुण प्रोग्राम किये गए हैं, नैतिक मूल्यों की भी उसे समझ है। साया फेसबुक अपडेट कर सकती है, ट्विटर भी हैंडल करना जानती है। जल्द ही साया की छोटी मोटी खामियों को दूर कर उसे आम लोगों के बीच लाया जाएगा। जिन्होंने इसे डिजाइन किया उनका सपना जाने कितने ही लोगों को रोमांच का अनुभव कराएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। 
दुनिया मे तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उपलब्धि इंसान को श्रेष्ठता के चरम शिखर पर ले जा रही है। इंसान मशीन के ज़रिए अपनी हर समस्या का हल चुटकियों में निकाल सकता है। एक बटन दबाते ही मानो आसपास के वातावरण और परिस्थिति मानव की मुठ्ठी में।  इन सब सुविधाओं और सुख के एवज में इंसान को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है और आगे और भी ज्यादा चुकनी होगी।
इन मशीनों के ज़रिए सारे काम पूरे कराने में धीरे-धीरे क्या हम ही इन मशीनों के गुलाम नहीं हो गए? इतने चमत्कारिक उजले तकनीकी दुनिया का स्याह पक्ष भी है- हम अपनी प्रकृति से उसकी पहचान छीन रहे हैं। इंसान अपनी स्वाभाविक भावनात्मक सम्बन्धों,संवेदनाओं को भी यांत्रिक बनाता जा रहा है। जापान जैसे उन्नत देश के युवाओं को एक-दूसरे में कोई रुचि नहीं। वो सिर्फ मनोरंजन या वासनापूर्ति के लिए करीब आते हैं, आपसी संबंधों से अधिक उन्हें कंप्यूटर और एनीमेशन से रिश्ता बनाये रखना रुचिकर लगता है। जापान का ही एक छोटा सा वीडियो क्लिप देखा जिसमें अंतिम संस्कार भी रोबोट द्वारा सम्पन्न किया जा रहा था, क्योंकि अब वहाँ के लोग पारम्परिक रिवाजों को नहीं निभाना चाहते और न ही उनके पास समय है। रोबोट द्वारा कार्य सम्पन्न कराने पर खर्च भी कम आता है।
कल्पना कीजिये साया जैसी लड़की तमाम मानवीय गुणों से युक्त हमारे बीच पहुँच जाती है। वो अकेलापन दूर करती है, हर प्रकार से मदद करती है। उसकी कोई आशा/अपेक्षा भी नहीं सिर्फ समय पर चार्ज कर देना है जैसा कि हम अपने फोन के साथ करते हैं, तो निश्चित ही वो आपके सपनों की परी हो जाएगी। तब उसे छोड़ कोई मानवी की ओर आकर्षित होगा? संभावना कम ही नज़र आती है। और फिर एक ‘टर्मिनेटर’ जैसे यांत्रिक मानव  का भी उदय होगा जो सब कुछ तहस-नहस करने हमारे बीच आएगा। तब क्या होगा? क्या मनुष्य अपनी ही बनाई मशीनों के बीच अपना अस्तित्व बचा पायेगा?

अपने समतुल्य बुद्धि और रचनाशीलता की शक्ति एक यान्त्रिक मानव में डाल देने के बाद  उसका गुलाम हो जाना पड़े तो आश्चर्य नहीं।
अभी तक जितनी तकनीकों का विकास हुआ है उनसे हमें जितना लाभ मिला है, उतना ही हमारे शरीर को नुकसान भी पहुँचा है। औसत आयु बढ़ी है लेकिन बहुत ही कम उम्र से ही हम दवाओं पर निर्भर हो जाते हैं। शरीर बीमारी का घर बन चुका है।
समाज में जितना ज़ोर विकास के नाम पर मशीनीकरण पर दिया जा रहा है उसका एक शतांश भी प्रकृति, प्राकृतिक नियम और मानवीय मूल्यों को दिया जाता तो ‘साया’ सिर्फ किस्से कहानियों का ही हिस्सा होती। उचित होता कि यंत्रों को यांत्रिक कार्यों में ही लगाया जाता- यांत्रिक मानव बनाने के प्रयास न होते।

Monday, 3 July 2017

अपील


हर ब्लॉगर एक विषय पर लिखते हुए ही आगे बढ़ता है। वही इसकी खूबसूरती और ब्लॉग में विविधता जगाता है।
वापसी किये सभी ब्लॉग मित्रों का स्वागत है। अपनी विषय क्षेत्र पर पकड़ और जानकारी का खजाना खोले रखिये। पढ़नेवाले ज़रूर पढ़ेंगे।
यात्रा, रोचक तकनीकी जानकारी, कहानी कविता, कानून,राजनीति,व्यंग,इतिहास न जाने कितने ही ऐसे विषय हैं जिस पर मित्र लिखते हैं और मेरे जैसे लोग बहुत रुचि सहित पढ़ते हैं। आगे और रसद मिलेगा इस इंतज़ार में भी बार बार ब्लॉग पर जाते हैं।
आप सब से अनुरोध है , लिखिए ब्लॉग पढ़ना सुकून देता है मानों हम एक अच्छी किताब पढ़ रहे है जो विषयपरक और भटकन से बचाती है।
जिन्हें मैं नियमित पढ़ती हूँ उनका लिखना अभी भी जारी है आप भी लिखिए । ब्लॉगिंग स्वस्थ परंपरा है इसे मरने मत दीजिये।
धन्यवाद

Monday, 3 April 2017

पुलिस की डायरी


हर दिन नये चोर, नये डकैत, नये अपराध के तरीके से दो चार होना हमारा रोज़ का काम है. कभी कभी अपराध के कारण इतने ह्रदय विदारक होते हैं कि समझ नहीं आता असली अपराधी कौन है. जो सामने दिख रहा हो वो या जो मूल में छिपा है वो.

रात फोन की घंटी बजी, खबरी से लीड मिली मिराजुद्दीन की लापता लड़की का सुराग मिला है, उसे हैदराबाद के एक बहुत बड़े बंगले में रखा गया है. खबर मिलते ही हम हैदराबाद के लिए टीम और वर्क स्ट्राटेजी बना कर निकल पड़े. हम चार लोग थे, हैदराबाद पहुँच कर वहाँ की पुलिस की सहायता से उस बंगले तक पहुँच गये जहाँ आयशा के होने की खबर मिली थी. आलिशान बंगला था. बिना किसी जद्दोजेहद के हम आसानी से बंगले में घुस गये लग रहा था, इस काण्ड में संलित्प लोग भाग गये थे पुलिस से पहले चोर को ही खबर हो जाती है. अंदर प्रवेश करते ही देखा यहाँ की सज्जा बहुत ही सुरुचिपूर्ण थी. हर कमरे को किसी बादशाही कमरे का रूप दिया गया था. कालीन से लेकर झूमर तक सब एक से बढ़ कर एक. वहीँ एक कमरे में हमें आयशा मिल गयी.

बहुत महंगे कपड़े, सर से पाँव तक सौदर्य परिचर्चा साफ़ झलक रही थी. करीने से बंधे हुआ बाल नेलपॉलिश लगे नाख़ून.... चौदह साल की बच्ची आयशा बहुत खुबसुरत युवती लग रही थी. जब हमने उसे आयशा कह कर पुकारा तो उसने कहा, उसका नाम आयशा नहीं और वो अपनी मर्ज़ी से यहाँ रह रही है किसी ने उसे अगवा नहीं किया. जब हमने उसकी फोटो जो उसे पिता से मिली थी उसे दिखाया और समझाने पर उसने स्वीकार किया कि वो आयशा ही है तब हमने और देर न कर फ़ौरन उसे साथ ले अपने शहर रवाना हो गये. उसे उसके पिता के हाथ सुरक्षित सौंप दिया गया.

दो दिन बाद उसका पिता मिराजुद्दीन पुलिस स्टेशन की बेंच पर मुंह लटकाए बैठा मिला. मैंने पूछा क्या बात है मिराज सब ठीक तो हैं न, आयशा ठीक है न? उसने लगभग रोते हुए कहा... वो तो ठीक है लेकिन जाने उसे क्या हुआ है जब से आई है एक ही ज़िद पकड़े बैठी है उसे यहाँ नही रहना, उसे वापस हैदराबाद जाना है. उन्ही लोगों के साथ रहना है जो उसे ले कर गये थे.

जान कर बहुत आश्चर्य हुआ, उससे कहा कल बेटी को ले कर आना देखता हूँ, मैं उससे बात कर के उसे समझाने की कोशिश करूँगा.

दुसरे दिन आयशा अपने पिता के साथ मेरे पास आई. नज़रे झुका कर चुपचाप बैठी रही, मेरे किसी सवाल का जवाब देने को राज़ी नहीं. बस एक ही रट, उसे हैदराबाद वापस जाना है. मैंने कहाँ, ठीक है लेकिन पता तो चले कि तुम वहां क्यों वापस जाना चाहती हो जहाँ जा कर लड़कियां किसी भी तरह अपने घर वापस लौट आना चाहती है.

उसने कहा, आपसे अकेले में बात करुँगी, अब्बा को बाहर जाने कहिये. मैंने मिराजुद्दीन को बाहर बैठने कहा.

आयशा ने बताना शुरू किया जो लोग मुझे हैदराबाद ले गये थे उन लोगों ने मुझे बहुत अच्छी तरह रखा था. अच्छा खाने को दिया, अच्छा पहनने को दिया. सोने के लिए एक पूरा पलंग मेरे लिए था. यहाँ तो हम छह बहने और अम्मी ऐसे सोती हैं कि सारी रात करवट भी नहीं बदल सकते, एक साइड हो कर ही सोना पड़ता है ज़मीन पर. इतना छोटा सा एक कमरा और नौ लोग उसी में रहते, खाते, सोते हैं. एक ही खाट है जिस पर अब्बा और छोटा भाई सोते हैं. खाना दो वक्त किसी तरह जुट जाता है. मुझे हमेशा भूख लगती रहती है लेकिन अम्मी डांट देती है, घर में कुछ हो तब तो दे. लेकिन जितने दिन मैं हैदराबाद में थी भरपेट खाना खाती थी, पलंग पर सोती थी, जिधर चाहे करवट बदलो पंखा लाइट सब कुछ था. कितना आराम और सुख था वहाँ. यहाँ तो सिर्फ भूख और गाली है बस... मुझे फिर से वहीँ जाना है साहब.

भूख लाचारी का कैसे फायदा उठाते हैं ये मानव तस्कर. अच्छी ज़िन्दगी का सपना दिखा कर उठा लाये फिर कुछ दिन अच्छा खाना कपड़ा और सुख के दर्शन भी करा दिए जब लड़की पूरी तरह उनके जाल में फंस गयी तब एक दिन किसी अमीर शेख या ऐसे ही किसी आदमी को कुछ रुपये के एवज में बेच दी जाती है, उसके बाद जो ज़ुल्मों का सिलसिला शुरू होता है उसके बारे में तो उन्हें अंदाज़ा ही नहीं.

उसकी सारी बातें सुनने के बाद एक बार फिर काउन्सेलिंग के लिए भेज दिया. वहां से लौटने के बाद वो काफी सामान्य नजर आ रही थी. दुबारा फिर कभी मिराजुद्दीन को पुलिस स्टेशन पर नहीं देखा. बाद में सुना कि आयशा की शादी उसी बस्ती के फल विक्रेता से कर दी गयी है.

मानव तस्करी के बहुत से हिंसक और दिल दहला देने वाले किस्से अक्सर सुनने को मिलते हैं लेकिन लड़की भूख और गरीबी से तंग आ कर अपनी मर्ज़ी से जाने को जब तैयार हो तो समझ आता है पेट की आग के आगे संभवतः शरीर के घाव भी मायने नहीं रखते.


Monday, 27 March 2017

बिन ब्याही माँ की डायरी



नए दौर की नई कहानी, नई तकनीक पर अब नए प्रयोग होने लगे हैं। कभी शादीशुदा जोड़े ही छुप-छुपा कर सेरोगेसी के ज़रिये संतान हासिल कर रहे थे अब हमारे बॉलीवुड के अभिनेताओं ने एकदम ताज़ा उदाहरण पेश करना शुरू कर दिया है। बिना शादी ब्याह के झमेले में पड़े सेरोगेसी तकनीक से पिता बन जाओ। देश की ऐसी छुट-पुट खबरें पढ़ती हूँ तो 7 साल पहले के अपने देश भारत में बिताये दिन याद आते हैं। मेरी डायरी के पन्नों में वो सारे दिन आज भी ताज़ा हैं, लेकिन मैं सब पीछे छोड़ कर दूसरे देश निकल आई, आना ही पड़ा क्या करती! मेरे माता पिता भी मेरे निर्णय के विरुद्ध थे, आगे हम दो ज़िन्दगियों का सवाल था- यूँ ही बर्बाद नहीं कर सकती थी। चूँकि फैसला मेरा था, उसका परिणाम का भी मुझे ही करना होगा।
क्या सोचने लगे? कैसा फैसला कौन सी दो ज़िन्दगी?
सारे सवालों के जवाब मेरी डायरी में है आज कुछ पन्ने आपके लिए खोल देती हूँ।
करण जौहर की फ़िल्म कुछ-कुछ होता है की अंजलि याद है न, एकदम टॉम बॉय। खेलकूद कपड़ों की स्टाइलिंग सब कुछ लड़कों जैसा। दोस्त भी लड़के ही, हों भी क्यों नहीं अंजलि लड़कियों जैसी शर्मीली, कपड़े और ब्यूटी पर ध्यान देनेवाली लड़कियों जैसी थी ही नहीं। मैं भी बिलकुल अंजलि जैसी ही थी। एकदम बिंदास, बेफिक्र और अपनी मर्ज़ी से चलने वाली। मैं बाइक भी बहुत अच्छी चलाती थी लेकिन पापा की थी तो उन्हें बिना बताये छुपा कर चलाती थी। आपको वीनू पालीवाल याद है? वही प्रसिद्ध महिला बाइकर जिसे HOG रानी नाम दिया गया था, पिछले साल सड़क दुर्घटना में ही उसकी मौत हो गयी थी। मैं उनकी ज़बरदस्त फैन थी। सोचती हूँ वीनू को भी तो अपने बाइक प्रेम और लम्बी दूरी तक सड़क नापने की उत्कंठा ने क्या कुछ कम परेशान किया होगा? लड़की हो कर लड़कों की तरह अकेली ही बाइक पर दुनिया नापने निकल पड़ी समाज को तो बहुत खुजली मची होगी। लेकिन फिर भी वीनू पालीवाल ने अपने सपने को पूरा किया और अपने प्यारे हार्ले डेविडसन पर ही मौत को गले लगा लिया।
एक बार मैंने भी रेगिस्तान में बाइक रैली में हिस्सा लिया। वहाँ पहुंची तो देखा एक मेरे अलावा दूसरी कोई भारतीय लड़की रैली का हिस्सा नहीं थी लेकिन विदेशी लड़कियां कई सारी थीं।अनोखा अनुभव था जीवन भर याद रहेगा। वैसे मेरा तो पूरा जीवन ही एडवेंचर बन गया है।
कॉलेज खत्म कर के मैंने एक एडवरटाइजिंग एजेंसी ज्वाइन कर ली। यहां का माहौल कम-से-कम मेरे कपड़ों और पिक्सि हेअरकट आदि पर प्रश्न चिन्ह लगाने जैसा नहीं था। मुझे मेरी तरह जीने के लिए दूसरों के इज़ाज़त की ज़रूरत नहीं थी।

आज सालों बाद मुझे मेरे कॉलेज की सहेली स्मिता मिली। शादी कर के खुश है पति अभी अमेरिका में रह रहा है अगले साल लौटने पर दोनों ने परिवार बढ़ाने का सोचा है। उससे मिल कर ख़ुशी और एक नई बेचैनी के साथ मैं घर लौटी।
नींद नहीं आ रही, बार बार करवटें बदल रही हूँ और अंदर एक आवाज़ मुझे बेचैन किये जा रही है। मैं माँ बनना चाहती हूँ। हाँ, ये मेरे अंतरात्मा की आवाज़ थी।
जानती हूँ आप मेरी इच्छा पढ़ कर मन-ही-मन मुझे कोसते हुए कह रहे हैं, अगर इतनी ही इच्छा थी माँ बनने की तो किसी से शादी कर लेती या किसी गरीब अनाथ को ही घर ले आती। पूण्य भी होता और किसी बच्चे को परिवार मिल जाता।
आपको क्या लगता है, मेरे माँ-पापा ने मेरी शादी करवाने की कोशिश नहीं की? उन्होंने तो बहुत कोशिश की लेकिन किसी ने मुझे पसंद ही नहीं किया। मेरे बहुत से दोस्त है लेकिन कोई मुझे अपनी पत्नी रूप में नहीं देखना चाहता। मैं बाइक चलाती हूँ कभी भी देश की किसी भी प्रान्त में रैली के लिए निकल जाती हूँ , मर्दाने तरीके के कपड़े पहनना ही पसंद करती हूँ। शादी की पात्रता अनुसार मैं कहीं से भी खरी नहीं उतरती। पात्रता हासिल करने के लिए मुझे खुद को बदलना पड़ेगा या सही पात्र हूँ इसके लिए दिखावा करना होगा, जैसे कि अंजलि ने अपना प्यार किसी दूसरे के साथ देख अपनी जीवन शैली में बदलाव कर लिया था। मैं इसके लिए राज़ी नहीं।
वीनू पालीवाल मेरी प्रेरणा, उनका भी तलाक हो गया था सिर्फ इसलिए की उनके पति को उनका बाइक चलाना और दूर-दूर निकल जाना पसंद नहीं था। कितना कठिन है खुद को मार कर दूसरे की ज़िद और झूठे अहंकार के लिए जीते जाना।
अगर मैं बच्चा गोद लेती तो इसमें मेरा कृतित्व कहाँ रहता? नौ महीने अपने अंदर पलनेवाले शिशु का वो अनुभव कैसे मिलता! इसीलिए मैंने तय किया कि कृत्रिम गर्भधारण कर मैं माँ बनूँगी।

मेरी एक इच्छा ने मेरे आस-पास भूचाल ला दिया। माँ-बाप रोना पीटना शुरू कर दिए, दिन रात मुझे कोसते कि दुनिया में इतनी लड़कियां पैदा होती हैं, एक अच्छा और स्वाभाविक खुशहाल जीवन जीते हुए माँ बाप को कृतार्थ करती हैं; एक उनके ही भाग्य क्यों फूटे निकले जो उनकी बेटी ऐसे नियम विपरीत चलने की ज़िद पकड़े बैठी है। स्मिता ने समझाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। उसने समाज का डर दिखाया….. गर्भधारण के बाद कैसे मैं सबके सामने रोज़ आना-जाना करुँगी? कैसे ऑफिस में सबकी नज़रों और सवालों का सामना करुँगी? सभी चरित्र पर ऊँगली उठाएंगे कैसे उनका मुंह बन्द होगा? ऐसे निर्णय सेलिब्रिटी लें लोग प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते उनके जीने के कई रास्ते हैं लेकिन मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की ऐसा कदम उठाये तो स्थिति दर्दनाक हो जायेगी। कितने ही उदाहरण खोज-खोज कर निकालने लगी सिर्फ मुझे समाज के बनाये नियम विरुद्ध कदम उठाने से रोकने के लिए।
मैंने उससे कहा, तुम क्या सोचती हो? मैंने तय नियम के अनुसार माँ बनने की कोशिश नहीं की, लेकिन हर बार रिजेक्ट कर दी गयी क्योंकि मुझे अपना आत्मसम्मान विसर्जित करना मंज़ूर नहीं था। अब मैं माँ बनने के लिए वैज्ञानिक तकनीक का सहारा ले रही हूँ तो इसमें क्या गलत है? मैं किसी को ठग नहीं रही। किसी के साथ झूठे सम्बन्ध भी नहीं बना रही। माँ बनने में अपराध कहाँ है और मैं तो माँ बन सकती हूँ और उसका पालन पोषण भी कर सकती हूँ फिर इसमें किसी को क्या परेशानी होगी? स्मिता के पास मेरे तर्क का कोई जवाब नहीं था या शायद माँ बनने की मेरी लालसा इतनी बलवती हो गयी थी कि अब कोई विरोध सुनना ही नहीं चाहती थी।
आखिर वो दिन भी आ गया जब मेरे माँ बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। प्रयोग सफल रहा। अब मेरे जीवन की एक बड़ी इच्छा पूरी होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। महीने गुज़रने लगे। शरीर में परिवर्तन होने लगा था मेरा पेट अब नज़र आने लगा था। लोगों की तिरछी नज़रें व्यंग्य बाण और सवालों से परेशान हो कर माँ-पापा ने घर से निकलना ही छोड़ दिया। मैं इसके लिए तैयार थी इसलिए चुभती नज़रों और व्यंग्यों से बेपरवाह अपने रास्ते चलती रही।
अपने गर्भ के छठे महीने में मैंने ऑफिस में सबको बुला कर एक छोटी सी टी पार्टी दी और खुलासा किया की न तो मेरे साथ प्रेम प्रसंग में कोई धोखा हुआ है और न ही किसी ने बलात्कार किया है और न ही छुप कर मैंने शादी कर ली है। मैंने माँ बनने की इच्छा को पूरा करने के लिए साइंटिफिक तरीके से स्पर्म इंसेमिनेशन करवाया है जिसमे किसी भी प्रकार से पुरुष शरीर के संपर्क में आने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
उस दिन के बाद सहकर्मियों की फुसफुसाहट बन्द हो गयी, भले ही  मेरे अनुपस्थिति में बातें होती हों पर मुझे सुना कर नहीं।
दिन बीतते गए और फिर तृप्ति का जन्म हुआ। सचमुच गर्भधारण के बाद बच्चे के बढ़ने से ले कर प्रसव पीड़ा सब कुछ वैसा ही था जैसे सामान्य तरीके से माँ बनने पर होती है। फर्क सिर्फ यही था कि तृप्ति सिर्फ मेरी थी। मैं ही उसकी अकेली अभिभावक।

देखते-देखते तृप्ति प्ले स्कूल जाने लायक हो गयी। एडमिशन में खास परेशानी नहीं हुई बस पिता के नाम की जगह खाली देख कई स्कूलों ने वापस लौटा दिया। थोड़ी कोशिश के बाद एक प्ले स्कूल में एडमिशन मिल ही गया। तृप्ति की बहुत सी पसंद मेरे जैसी ही है उसे गुड़िया से ज़्यादा गाड़ी और स्पोर्ट्स में दिलचस्पी है। छोटी सी तृप्ति अब अपनी माँ और अपनी आया नीरू मासी के अलावा भी दोस्त बनाने लगी है; रोज़ नई चीजें सीखती और नए सवाल ले कर घर आती। अभी तो शुरुआत थी, तृप्ति को अभी अपनी माँ का अपने लिए चुने हुए जीवन की बहुत सी जवाबदेही पूरी करनी बाकी थी।
जब तृप्ति को बड़े स्कूल में एडमिशन करवाना था तो ये भी किसी युद्ध से कम नहीं रहा। हर जगह तृप्ति अपने टेस्ट में पास हो जाती लेकिन मैं तृप्ति की माँ इंटरव्यू के दौरान फेल कर दी जाती क्योंकि तृप्ति के पिता का परिचय नहीं था। अंत में सोर्स लगा कर ही तृप्ति का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन हो सका।
स्कूल से आ कर तृप्ति पूछती , माँ मेरे सब दोस्तों के पापा हैं मेरे क्यों नहीं है?
ये पहला सवाल था जिसकी उम्मीद भी थी मुझे और मैं इसके लिए तैयार भी थी। मैं तृप्ति से किसी भी तरह का झूठ नहीं कहना चाहती थी लेकिन बातों को ठीक से समझ सके इसके लिए सही उम्र का इंतज़ार ज़रूरी था।
आज मैंने उसके प्रश्न का जवाब दिया,  नहीं बेटा तुम्हारे कोई पापा नहीं है सिर्फ माँ है।
मेरे दोस्त कहते हैं मेरे पापा मेरे साथ नहीं तब ज़रूर स्टार हो गए हैं।
नहीं तृप्ति तुम्हारे पापा स्टार नहीं हुए तुम अपने दोस्तों से कहना तुम अपनी माँ की इच्छा से इस दुनिया में आई हो।
ठीक है माँ मैं सबको यही बताऊँगी कि तुमने भगवान से प्रार्थना की थी तभी उन्होंने मुझे तुम्हारी बेटी बना कर भेजा।
आज का सवाल-जवाब यहीं पर खत्म हो गया।
तृप्ति खुद को दूसरे बच्चों से अलग न समझे इसलिए मैंने पता नहीं कब खुद में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया था। अब मैं कभी-कभी सलवार कुर्ती और साड़ी पहनती थी, बाल भी कन्धे तक लम्बे कर लिए थे। अलग-अलग डिश बनाना तो तृप्ति को खुश करने के लिए मेरा सबसे पसंदीदा काम हो गया था।

आज ऑफिस से लौट कर देखा तृप्ति उदास है उसने बताया कुछ बच्चे एकसाथ मिल कर उसे उसके पिता न होने के कारण चिढ़ा रहे थे। वो कहते हैं तृप्ति और तृप्ति की माँ झूठी है, पापा स्टार भी नहीं बने साथ भी नहीं रहते तो फिर कहाँ हैं? कोई जवाब न दे पाने के कारण तृप्ति स्कूल में रोयी भी थी।
मेरा कलेजा फट रहा था छोटे बच्चे भी ग्रुप बना कर कितने निर्दयी व्यवहार करना सीख जाते हैं! मैंने तृप्ति को फिर समझाने की कोशिश की। उसे बताया तुम ट्यूब बेबी हो।
वो क्या होता है माँ?
उसके मासूम से सवाल के जवाब में स्पर्म बेबी समझाना और उसके लिए समझना दोनों ही कठिन था इस उम्र में।
मैंने कहा, थोड़ी बड़ी हो जाओ फिर मैं तुम्हे समझा दूंगी; अभी चलो तुम्हारे पसंद का कस्टर्ड बनाया है खा लो।

निष्ठुर दुनिया किसी को अपनी मर्ज़ी का जीवन शांति से जीने नहीं दे सकती उसमें दखलंदाज़ी किये बिना जीवन को प्रभवित किये बिना उसे चैन नहीं।
एक दिन तृप्ति स्कूल से लौट कर बोली माँ मिडिया प्रेस क्या होता है?
उसके सवाल ने मुझे मानो अँधेरे कुंए में धकेल दिया जहाँ तरह-तरह की आवाजें गूंज रही हैं, लेकिन कोई मेरी आवाज़ नहीं सुन रहा। मैं समझ गयी कि अब तृप्ति को एक स्वाभाविक ज़िन्दगी देने के लिए मुझे फौरन ये शहर और जितनी जल्दी हो सके इस देश को भी छोड़ कर निकलना होगा।

मीडिया के सवाल-जवाब और समाज की छींटाकशी मेरी बेटी का जीवन नर्क बना देगी। मध्यम वर्ग को तय किये रास्तों पर ही चलना होगा उसके बाहर अपनी मर्ज़ी से कदम रखने की कीमत मैं तो चुकाने के लिए तैयार थी लेकिन मेरी बेटी को भी चुकाना पड़े इसके लिए मैं तैयार नहीं।
विधवा अकेली औरत, भीख मांग कर दूसरों के सहारे जीवन गुजारती औरत इस समाज को मंज़ूर है। पति से प्रताड़ित होती औरत के आंसू समाज को मंज़ूर हैं, संतान सुख न दे सके ऐसा पति भी समाज को मंज़ूर है लेकिन कोई आत्मनिर्भर औरत अपनी मर्ज़ी से अपनी एक संतान पैदा करे इसे स्वीकार करना सीखने में अभी भी इस समाज को बहुत देर है।
मैंने जल्दी ही वो शहर छोड़ दिया और साल भर के अंदर ही नई नौकरी के साथ कनाडा शिफ्ट हो गयी। यहां तृप्ति को रोज़ ऐसे सवालों का सामना नहीं करना पड़ता तृप्ति और तृप्ति की माँ मैं, हमदोनों दुनिया के सबसे सुंदर रिश्ते माँ और संतान के रिश्ते के बेहद सुखद पलों को जी रहे हैं।
मैं अपने देश अपनी संतान के साथ लौटना चाहती हूँ। वो दिन भी ज़रूर आएगा जब तुषार कपूर, करन जौहर की तरह तृप्ति की माँ को भी समाज ख़ुशी-ख़ुशी अपनाएगा। सवालों के कठघरे में खड़ा नहीं करेगा।




Sunday, 19 March 2017

अनाधिकार प्रवेश :रबिन्द्रनाथ टैगोर

मूल कहानी : अनाधिकार प्रवेश
लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर
बाँग्ला भाषा से अनुदित



किसी एक सुबह सड़क के पास खड़े हो कर एक लड़का एक दूसरे लड़के के साथ एक अतिसाहसिक कार्य से सम्बंधित शर्त रख रहा था। ठाकुरबाड़ी के पुष्पवाटिका से फूल तोड़ सकेगा या नहीं, यही उनके तर्क का विषय था। एक लड़का बोला, ‘सकेगा’ और दूसरा लड़का बोला ‘कभी नहीं सकेगा’।
ये काम सुनने में तो बहुत आसान है लेकिन करना उतना सहज नहीं, ऐसा क्यों है ये समझाने के लिए थोड़ा और विस्तार से बताना आवशयक है।
स्वर्गवासी माधवचन्द्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी राधानाथ जी के मन्दिर की उत्तराधिकारिणी हैं। अध्यापक महाशय को तर्कवाचस्पति उपाधि मिली ज़रूर थी लेकिन वो कभी अपनी पत्नी के सामने ये सिद्ध नहीं कर पाये थे। कुछ पंडितों का कहना था कि उनकी उपाधि सार्थक हुई थी क्योंकि सारे तर्क और वाक्य सबकुछ उनकी पत्नी के हिस्से ही आये थे और वो पतिरूप मे इसका फलभोग कर रहे थे।
सत्य तो यह था कि जयकाली ज़्यादा बात नहीं करती थी लेकिन बहुधा सिर्फ दो बातों में, कभी-कभी तो नीरव रह कर भी बड़ी-बड़ी बात करनेवालों की बोलती बन्द कर देती थी।
जयकाली दीर्घाकार, बलिष्ठ देहयष्टि, तीक्ष्णनासिकायुक्त प्रखरबुद्धि महिला थी। उनके पति के जीवित रहते ही उन्हें प्राप्त देवोत्तर संपत्ति उनके हाथ से निकली जा रही थी। किन्तु विधवा जयकाली ने अपनी समस्त बक़ाया संपत्ति वसूल कर उसकी सीमा-सरहद भी तय कर दी, जो उसका प्राप्य है कोई भी उसमें से एक रत्ती भी उसे वंचित नहीं कर सकता था।
इस महिला में बहुमात्रा में पौरुष होने के कारण उसका कोई संगी-साथी नहीं था। दूसरी स्त्रियां उससे भय खाती थीं। परनिंदा, छोटी बात या फिर बात-बात पर रोना-धोना उसके लिए असहनीय था। इतना ही नहीं पुरुष भी उससे भय ही खाते थे; क्योंकि ग्रामवासी चण्डीमण्डप में बैठ कर आलस्य से भरे गपबाजी में जो दिन बिताते थे उसे वो नीरव घृणापूर्ण कटाक्ष द्वारा धिक्कारती थी जो उनके स्थूल जड़त्व को भी भेद कर उनके ह्रदय में छेद कर देती थी।
प्रबल रूप में घृणा करना और उसी रूप में उसे प्रकट करने की असाधारण क्षमता थी उस प्रौढ़ा विधवा में। उनके विचारदृष्टि में यदि कोई अपराधी ठहरता तो उसे बातों से बिना बातों के भी भाव-भंगिमा से ही दग्ध कर देती थी।
गाँव के सारे कार्यक्रमों, आपदा-विपदा में उपस्थिति रहती। हर जगह वो अपने लिए एक गौरवपूर्ण सर्वोच्च स्थान बिना चेष्टा के ही प्राप्त कर लेती थी। जहां भी उनकी उपस्थिति रहेगी सबके बीच उन्हें ही प्रधान-पद मिलेगा इस विषय में न उनको और न ही दूसरों को कोई संदेह रहता।

रोगी सेवा में सिद्धहस्त थी लेकिन रोगी उनसे यमराज की भांति डरता। रोगमुक्त होने के लिए नियमपालन में लेशमात्र भी उल्लंघन जयकाली देवी की क्रोधाग्नि रोगी के बुखार से भी अधिक तप्त कर देती थी। दीर्घाकार ये महिला गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियमदंड की तरह सदैव उपस्थित रहती; कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकता था और न ही उनसे प्रेम करता था। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति से उनका योगसूत्र था लेकिन फिर भी उनके जैसी एकाकी महिला और कोई नहीं थी।

जयकाली देवी निसंतान थी। मातृ-पितृहीन अपने भाई की दो संतानों को लालन-पालन के लिए अपने घर ले आई। घर में कोई पुरुष अभिभावक न होने के कारण उन दोनों पर कड़ा अनुशासन नहीं था और स्नेहान्ध बुआ के प्रेम से दोनों बिगड़ते जा रहे हैं ऐसी बात कोई नहीं कह सकता था। उन दोनों में से बड़े की उम्र अठारह वर्ष थी। कभी-कभी उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे और परिणयसूत्र में बंधने के प्रति उस किशोर का मन भी कदाचित उदासीन नहीं था लेकिन उसकी बुआ ने इस सुखवासना को एक दिन के लिए भी प्रश्रय नहीं दिया। अन्य महिलाओं की भांति किशोर नवदम्पत्ति के नवप्रेमोदगम दृश्य उनकी कल्पना में बहुत उपभोग्य, मनोरम जैसा कुछ नहीं था। और उनका भतीजा विवाह कर दूसरे पुरुषों की तरह दिनभर घर में पड़े रह कर पत्नी के प्रेम आह्लाद में खा-पी कर मोटा होता रहे- ये सम्भावना उनके सम्मुख असंभव प्रतीत होती थी। वो बहुत कड़े शब्दों में कहतीं- पुलिन पहले उपार्जन करना शुरू करे, उसके बाद ही बहू घर आएगी। बुआ के इतने कठोर वाक्य सुन आगंतुकों का हृदय फट जाता।
ठाकुरबाड़ी (मन्दिर) जयकाली देवी के लिए सर्वप्रमुख और यत्नशील धन था। भगवान के शयन, स्नान-आहार में तिलमात्र की त्रुटि भी असहनीय थी। पुजारी ब्राह्मण भी अपने दो देवताओं की अपेक्षा इस मानवी से सबसे ज़्यादा भय खाते थे। पहले, एक समय था जब स्वंय देवता के नाम से निकला हिस्सा भी उन्हें पूरा नहीं मिलता था। कारण; पुजारी ब्राह्मण की एक और पूजक-मूर्ति गोपनीय मन्दिर में थी; उसका नाम निस्तारिणी था।छुपा कर घी-दूध, छेना, मैदा, नैवेद्य स्वर्ग और नर्क में बराबर बाँट दिया करता था।लेकिन आजकल जयकाली के सामने देवता को उनके हिस्से का सोलह आना पूरा ही भोग चढ़ा दिया जाता है, उपदेवता को जीविका के लिए अब अन्यत्र उपाय देखना पड़ रहा है।
जयकाली की सेवा और यत्न से मन्दिर प्रांगण साफ-सुथरा झकझक करता है– कहीं एक तिनका भी पड़ा नहीं रहता। प्रांगण के पार्श्व में माधवी लता उग आयी है। उसके यदि एक भी सूखा पत्ता गिरे तो जयकाली तुरन्त उसे उठा कर बाहर फेंक देती है। मन्दिर की परिपाटी, शुद्धता और पवित्रता में लेशमात्र भी व्यवधान होने पर जयकाली देवी उसे सहन नहीं कर पाती थी। पहले गाँव के लड़के छुपा-छुपी खेलते हुए इसी प्रांगण में आश्रय लेते थे लेकिन अब ये सुयोग सम्भव नहीं। पर्व-उत्सव के अतिरिक्त मन्दिर प्रांगण में ऊधम मचाने की अनुमति किसी को नहीं। कभी-कभी बकरी शावक भी घुस आते थे पौधे लता-पत्ता खा कर अपनी भूख मिटाने के लिए, लेकिन अब यहां पाँव धरने पर दंड प्रहार खा कर मीमियाते हुए भागना पड़ता है।
अनाचारी व्यक्ति चाहे वो परम आत्मीय सम्बन्धी ही क्यों न हो उसका मन्दिर प्रांगण में प्रवेश नहीं हो सकता था। जयकाली की एक भगिनी का पति, जो खान-पान में धर्मच्युत, मांस लोलुप था आत्मीयतापूर्वक भेंट करने आया, किंतु जयकाली के त्वरित प्रवेश-विरोध प्रदर्शन पर सगी बहन से सम्बन्ध विच्छेद हो गया। इस मन्दिर से सम्बंधित अनावश्यक अतिरिक्त सतर्कता सामान्य व्यक्तियों के बीच पागलपन ही माना जाता था।
जयकाली बाकि हर जगह कठोर, दृढ और स्वतन्त्र थी, मात्र इस मन्दिर में वो सम्पूर्ण आत्मसमर्पित थी। इस मूर्ति के सामने जयकाली जननी, पत्नी, दासी—इनके सामने वो सतर्क, सुकोमल, सुंदर और नम्र थी। एकमात्र इस मन्दिर प्रस्तर और अंदर विराजे देवता के सामने ही जयकाली का निगूढ़ नारीस्वभाव चरितार्थ होता था, यही उसका स्वामी, पुत्र और समस्त संसार बन गया था।
इतना जानने के बाद पाठक अब समझ सकते हैं कि मन्दिरप्रांगण से फूल तोड़ कर दिखाने की प्रतिज्ञा करनेवाले लड़के के साहस की सचमुच कोई सीमा नहीं थी। वो जयकाली का छोटा भतीजा नलिन था। वो अपनी बुआ को बहुत अच्छी तरह जानता है फिर भी उसकी दुर्दांत प्रकृति, बुआ के अनुशासन के वश में नहीं आयी। जहाँ भी विपदा हो उसका आकर्षण भी वहीं होता, और जहाँ अनुशासन वहीं उसका मन उसे लंघित करने को चंचल हो उठता। जनश्रुति है, नलिन की बुआ भी अपने बाल्यकाल में उसी के स्वाभाव की अभिरूप थी।
जयकाली उस समय मातृ स्नेहमिश्रित भक्ति भाव सहित देवता की ओर दृष्टि टिकाये दालान में बैठ कर माला जाप कर रही थी।
लड़का दबे पाँव चुपचाप पीछे से आ कर माधवी लता के निचे खड़ा हो गया। देखा, निचली शाखाओं के फूल देवता को चढाने के लिए तोड़ लिए गए हैं, तब बहुत ही धीरे धीरे सावधानी से मंच पर चढ़ गया। ऊँची डाल पर छोटी-छोटी कलियाँ लगी हुई थीं, उन्हें ही तोड़ने के लिए उसने अपने शरीर और बाहों को ऊपर उठाना शुरू ही किया था की जीर्ण मंच मचमच की आवाज़ के साथ टूट कर टुकड़े हो गया। मंच से झूलती लताएँ और नलिन दोनो ही एक साथ भूमिसात हो गए।
जयकाली दौड़ कर आयी और अपने भतीजे के काण्ड की दर्शक बनी। ज़ोर से उसकी बाँह पकड़ उसे ज़मीन से उठाया। नलिन को काफी चोट आयी थी लेकिन उन चोटों को पर्याप्त सजा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो अज्ञात ही मिल जाता है ऐसा जयकाली देवी का विचार था, इसलिए उस चोटिल लड़के पर बुआ की कठोर मुष्टि का प्रहार भी पड़ने लगा। लड़के की आँख से एक बून्द आंसू नहीं टपका तब उसे खींचते हुए एक कमरे में ला कर बन्द कर दिया गया इतना ही नहीं आज शाम का नाश्ता भी न देने का आदेश हो गया।
खाना बन्द होने का आदेश सुन दासी लीलामति छलछलाती आँखों के साथ बच्चे को क्षमा कर देने का अनुरोध करने लगी किन्तु जयकाली का मन नहीं पसीजा। उस घर में ऐसा कोई दुःसाहसी नहीं था जो ब्राह्मणी के आदेश की अवमानना कर उस भूखे बच्चे को कुछ भी छुपा कर खिला सके।
जयकाली नया मंच बनाने का आदेश दे पुनः माला जाप करने दालान में आ कर बैठ गयी। कुछ देर बाद लीलामति पुनः उपस्थित हुई, बोली लड़का भूख से रो रहा है उसे कुछ खाने के लिए दे दूँ?
अविचलित एक शब्द में उत्तर मिला, नहीं! लीलामति चुपचाप लौट गयी। पास ही एक कमरे में बन्द नलिन के रोने का करुण स्वर धीरे-धीरे क्रोध गर्जना में परिवर्तित होने लगा—अंत में बहुत देर बाद उसका कातर रुद्ध कंठस्वर माला जपती हुई बुआ के कान तक पहुंचा।
नलिन का रुदन जब परिश्रांत और मौनप्राय हो आया ठीक तभी एक दूसरे प्राणी की डरी हुई कातर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी और उसके साथ ही एकसाथ दौड़ते हुए चीत्कार करते कुछ लोगों की कलरव ध्वनि मन्दिर के सम्मुख उपस्थित हुई।
सहसा मन्दिर प्रांगण में पदध्वनि हुई। जयकाली पीछे मुड़ कर देखी, भूमि तक माधवी लता हिल रही है।
मृदु स्वर में जयकाली आवाज़ दी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। समझी, किसी प्रकार बन्दीगृह से पलायन कर फिर से उन्हें तंग करने यहां पहुँच गया है।
अपनी मुस्कान होंठों को दबा कर छुपाते हुए प्रांगण में उत्तर आयी।
लताकुंज के पास जा कर पुनः आवाज़ लगायी, ‘नलिन!’
कोई उत्तर नहीं मिला। एक शाखा हटा कर जयकाली ने देखा, एक शूकर प्राणभय से आक्रांत हो घने लताकुंज में आश्रय ले कर छुपा है।
जो लताकुंज इष्टदेवता के वृन्दावन का प्रतिरूप, जिसकी खिली हुई कलियों की सुगन्ध गोपियों के श्वास सुरभि की याद दिलाती है और कालिंदी तट के सुखविहार, सौंदर्यस्वप्न को जागृत करती है--- जयकाली के प्राणों से भी अधिक यत्न से पवित्र बनाये रखे इस नंदनभूमि पर अकस्मात ऐसी वीभत्स घटना घट गयी!
पुजारी लाठी हाथ में ले दौड़ा आया।
जयकाली तुरंत ही अग्रसर हो उसे रोक दी और द्रुतगति से मंदिर का मुख्यद्वार अंदर से बन्द कर दी।
सुरापान से उन्मत डोम दल मन्दिर द्वार पर आकर चिल्लाने लगे उन्हें उनका बलि-पशु वापस चाहिए!
जयकाली बन्द द्वार के पीछे से ही चिल्ला कर बोली, ‘जाओ, यहाँ से भाग जाओ! मेरा मंदिर अपवित्र मत करो!
डोम दल वापस लौट गया। जयकाली ब्राह्मणी अपने राधानाथ जी के मन्दिर में एक अशुचि प्राणी को आश्रय देगी, ये प्रत्यक्ष देख कर भी किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
इस सामान्य सी एक घटना ने अखिल जगत के महादेवता को भले ही परम प्रसन्न किया होगा किन्तु समाज नामधारी अतिक्षुद्र देवता बहुत क्षुब्ध हो गए।