इक्कीसवीं सदी महिलाओं के सशक्त होने और हर क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहराने की साक्षी
बन रही है। यहां तक का सफर कितना कठिन था ये जब हम पीछे मुड़ कर उन महिलाओं के विषय
में पढ़ते हैं तब महसूस करते हैं कि योग्यता चाहे असीमित रही हो किन्तु पुरुष प्रधान
समाज में अपनी जगह बनाने के लिए कितना संघर्ष और विरोध का सामना करना पड़ता है चाहे
वो महान वैज्ञानिक ही क्यों न हों!
हाँ वास्तविकता यही है, 20वीं सदी की शुरुआत में जब पश्चिमी महिलाएं अपने समानता के अधिकारों के लिए लड़ रही थी उस समय उनका वैज्ञानिक समाज भी
इन्हीं विषमताओं
और पूर्वाग्रहों से अलग नहीं था। समाज के सबसे उन्नत बुद्धिजीवी वर्ग ने भी उस समय की सबसे प्रतिभाशाली महिला वैज्ञानिक
के साथ भेदभाव किया, यही नहीं वो अपने शोधकार्य में सफल न हो सकें इसके लिए मानसिक प्रताड़ना भी देते रहे। लेकिन स्त्री जिजीविषा
की ज्वलंत उदाहरण मैडम मेरी क्यूरी ने अपनी लगन और अथक परिश्रम से विज्ञान की दुनिया को महान अविष्कार दिया, जिससे आज समाज कैंसर जैसे असाध्य रोग को भी साधने में
सफल हो रहा है। मैडम क्यूरी एकलौती ऐसी महिला वैज्ञानिक हैं जिन्हें अपने कार्यों के
लिए दो-दो नोबल पुरस्कार मिले। उनका यह रिकॉर्ड आज तक कोई और
नहीं तोड़ पाया।
विचित्र संयोग था एक ही जीवन में दो बार नोबल पुरस्कार के लिए नामित होना! खुद
नोबल पुरस्कार कमिटी के लिए भी असमन्जस की स्थिति थी कैसे ऐसा होने दिया जाये! बहुत बहस हुई अंत में यही विचार हुआ कि नोबल पुरस्कार किसी व्यक्ति को
नहीं बल्कि कार्यक्षेत्र में हुई असाधारण उपलब्धि को दिया जाता है इसलिए मैडम क्यूरी योग्य व्यक्ति हैं जिन्हें
पहली बार 1903 ई. में भौतिक विज्ञान क्षेत्र में और दूसरी बार रसायन विज्ञान के क्षेत्र में
उपलब्धि के लिए 1911 ई. में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1903
ई. में भौतिक विज्ञान में मिला नोबल पुरस्कार तीनों सहयोगियों के नाम रहा जिसमे मेरी
क्यूरी के पति पियरे क्यूरी का भी नाम था। जब पुरस्कार के लिए नामित किया गया तब मेरी का नाम नहीं था, पति पियरे क्यूरी ने आपत्ति जतायी और मेरी को भी बराबर का साझीदार बताया। तब उनका नाम शामिल किया गया। पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान कमिटी के प्रेजिडेंट ने
अपने भाषण में बाइबिल का एक उदाहरण दिया- "ईश्वर ने कहा है, पुरुष का अकेले रहना अच्छा नहीं। मैं उसके लिए बनाऊंगा उसकी एक सहकारिणी।" मानो इस सफलता में मेरी की भूमिका मात्र एक सहायिका की थी, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
आज विज्ञान जगत मैडम मेरी क्यूरी को उनके असाधारण योगदान के लिए सलाम करता है।
ये तो हुई विज्ञान जगत में उनके आविष्कार और सफलता की बात, कट्टर पुरुष सत्तात्मक समाज में सफलता के शिखर पर पहुँचने की बात। इसके बाहर भी उन्हें अपनी
मर्ज़ी से अपना जीवन जीने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा और उन्होंने वैसे ही जिया जैसा
उन्हें जीना था।
मरिया स्कलोडोवस्का क्यूरी का जन्म 7 अगस्त 1867 को पोलैंड में हुआ था। शिक्षक माता-पिता की संतान मैरी हमेशा से ही मेधावी थी लेकिन आर्थिक
मुश्किलों ने जीवन इतना संघर्षपूर्ण कर दिया था कि पढ़े या परिवार का पालन करे, ये भी सोचना पड़ गया। उनकी पढाई जारी रखने की दृढ़ इच्छाशक्ति
ने उन्हें हारने नहीं दिया लेकिन इसके लिए उन्हें अपना शहर छोड़ पेरिस जा कर बसना पड़ा।
बहन के घर रह कर पढ़ना मुश्किल हो रहा था क्योंकि पढ़ाई-लिखाई में बाधा आ रही थी, उन्होंने एक छोटा सा कमरा किराये पर ले लिया जो कि गर्मी में बायलर तो सर्दी में फ्रीज़ जैसा हो जाता था।
पकाने का भी समय नहीं तो रोज़ ही ब्रेड और एक टुकड़ा चॉकलेट खा कर ही गुज़ारा करती। अपने
कष्टमय दिनों के विषय में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘ये जीवन किसी-किसी दृष्टिकोण से वेदनामय होने के बावजूद मेरे लिए आनंदमय ही रहा। मुझे मिला मुक्ति और स्वाधीनता
का स्वाद, जो बहुत मूल्यवान है। पेरिस में मैं अनजान-अपरिचित सी खो गयी इस शहर में लेकिन वहां बिना किसी की सहायता के ज़िंदा रहने की अनुभूति
ने हतोत्साहित नहीं किया, बल्कि एक अद्भुत शान्ति और तृप्ति से मन भरा रहा।’ मेहनत का फल मिला- फिजिक्स की डिग्री में पहला स्थान और गणित में भी।
मैडम क्यूरी के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ अध्यापक पियरे क्यूरी के साथ। पियरे
क्यूरी उस समय अनुसन्धान में व्यस्त थे। मैडम क्यूरी ने उनसे विवाह कर लिया और वहीं
बस गयीं। शादी के दो साल बाद उनके घर पहली बेटी का जन्म हुआ। पति-पत्नी दोनों ही अनुसंधान के काम में लगे रहे। प्रयोगशाला
के नाम पर एक कमरा और कुछ मर्तबान थे। कमरे से धुएं के निकलने तक की भी ठीक व्यवस्था
नहीं थी लेकिन क्यूरी दम्पत्ति और उनके सहयोगियों ने कम संसाधन में भी अपने काम को जारी रखा। मैडम क्यूरी की खूब आलोचना होती कि वे
अपनी संतान का ख्याल नहीं रखतीं, दिन रात प्रयोगशाला में ही पड़ी रहती हैं। मैडम क्यूरी ने इन आलोचनाओं का असर कभी अपने काम पर नहीं होने दिया। नतीजा रेडियोएक्टिविटी का आविष्कार, उसकी व्याख्या और उसके अनुसंधान के लिए फिजिक्स में नोबल पुरस्कार।
1905 के अंत तक पियरे की तबियत बिगड़ने लगी। वो अनुसन्धान के दौरान रेडियोएक्टिव किरणों से आक्रांत हो
चुके थे। लेकिन उनकी मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हुई। मैडम क्यूरी अकेली हो गयीं। उनकी
मृत्यु के बाद शोकाकुल मेरी पागल सी हो गयी थीं। उन्होंने अपनी डायरी में भी जिक्र किया है, “बार-बार नाम ले कर पुकारने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिलता। एकाकी जीवन और दीर्घश्वास के अतिरिक्त मेरा अब कुछ नहीं रहा।”
नोबल पुरस्कार में मिली राशि से क्यूरी दम्पत्ति ने प्रयोगशाला को अनुसंधान लायक
बनाया था। अब मेरी फिर से अपने अनुसन्धान में जुट गयी। सन् 1911 में फिर से नोबल पुरस्कार
के लिए उन्हें नामित किया गया। लेकिन आपत्तियों का दौर शुरू हो गया। मात्र 8 साल के
अंतराल में फिर से पुरस्कार। ठीक तभी उनके सामाजिक जीवन में एक तूफ़ान आया, स्कैण्डल का बाजार गर्म हो उठा। मैडम क्यूरी की इतनी उपलब्धियों और सतत् वैज्ञानिक अनुसन्धान कार्यों को नज़रअंदाज़ कर
उन्हें उनके प्रेम सम्बन्ध के लिए धिक्कारा जाने लगा। निजी जीवन को अखबार में उछाल
कर उन्हें ‘घर तोड़ने वाली डायन’ तक की संज्ञा दे दी गयी। उनके इतने वर्षों की मेहनत और विज्ञान जगत की उनकी देन
को भी छोटा कर उन्हें चारित्रिक दोष का आरोपी बना नोबल पुरस्कार समारोह में सम्मिलित
होने से रोकने का प्रयास किया गया तब उन्होंने बड़ी दृढ़ता से अपने जीवन के चरम अपमानजनक
क्षणों का सामना किया। उन्होंने कहा, 'ये पुरस्कार दिया जा रहा है पोलेनियम और रेडियम के अविष्कार को। मैं विश्वास करती हूँ मेरे अनुसन्धान और
व्यक्तिगत जीवन का एक-दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। किसी के जीवन पर लगाये गए लांछन उसके अनुसन्धान
कार्यों पर छाया डाले, ये नैतिक रूप से मैं कभी नहीं मान सकती।' पुरस्कार ग्रहण करने
वो स्टाकहोम भी गयीं और भाषण भी दिया।
इस लज्जाजनक प्रकरण के बाद प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने उन्हें ख़त लिख
कर उन्हें अपना समर्थन और मुद्दे पर खेद व्यक्त किया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय एक्स-रे मशीन के साथ फ्रंट लाइन में जा कर सैनिकों की जो सेवा की उसे भी युद्ध का इतिहास
कभी नहीं भुला सकता। मीडिया का उनके पत्रों को सार्वजनिक करने पर जो अपयश मिला था
वो सब भुला कर लोगों ने युद्ध के बाद उन्हें एक सेलिब्रिटी जैसा दर्जा दिया। उनके सम्मान
में समारोह आयोजित किये गए।
मैडम क्यूरी की मृत्यु 66 वर्ष की उम्र में ल्यूकेमिया के कारण हुई। अनुसंधान के
दौरान लगातार रेडिएशन के क्षेत्र में काम करते हुए वो इस रोग से पीड़ित हो गईं। उन्हें
भी उनके पति पियरे क्यूरी के पास ही दफनाया गया।
उनकी मृत्यु अपूरणीय क्षति थी विज्ञान जगत के लिए लेकिन उनके आविष्कार ने आज कितने ही कैंसर पीड़ितों को जीवन दान दिया
है। मैडम क्यूरी एक ऐसी महान महिला वैज्ञानिक थी जिन्होंने आजीवन पुरुष सत्तात्मक समाज से लड़ते हुए उनके बीच अपने लिए सम्मानजनक स्थान बनाया। मैडम क्यूरी महिला सशक्तिकरण की एक उत्कृष्ट मिसाल हैं, जिनके योगदान के लिए पूरी मानवता सदा ऋणी और नतमस्तक रहेगी।