विषय कुछ नया नहीं बल्कि सदियों पुराना है. युद्ध और कब्ज़ा करने के युग का जब आरम्भ हुआ होगा शायद तब से ही बलात्कार होते चले आ रहे हैं. भारत में हमेशा से माना जाता रहा है कि बलात्कार तभी होता है जब स्त्री कि सहमति होती है या वही उत्तेजित करती है. उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है इसलिए लांछना और सज़ा भी स्त्री को ही मिलती है.
क्यों भूल गये? अहिल्या को भी तो पत्थर बन जाना पड़ा था व्यभिचार का आरोप ले कर, जबकि धोखा इंद्र ने दिया था.
राजनैतिक बलात्कार से बचने के लिए ‘सती’ होने की प्रथा चल पड़ी. उच्च कुलीन स्त्री को भी सती कर देने का प्रचलन हो गया. कारण था कहीं पति के अभाव में व्यभिचार करने लगे तो सर्वनाश हो जायेगा. कुलीन स्त्रियाँ तब घर से बाहर शायद ही कभी निकलती थीं, तो डर किसका था? ज़ाहिर है अपने ही सगे-सम्बन्धियों का! पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति को बहुत ही सहज लिए जाता रहा है, समझा जाता है कि पुरुष ग्रंथी की इसमें अहम भूमिका है इसलिए ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं. स्त्री ही इसके लिए दोषी है.
युग बदला क़ानून भी बने लेकिन बलात्कार के प्रति मानसिकता नहीं बदली परिस्थति चाहे कुछ भी हो यहाँ तक कि बाल शोषण में भी यही माना जाता है कहीं-न-कहीं उसकी इच्छा थी तभी ऐसा हुआ.
बीसवीं सदी यूरोप में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का युग था. शुरुआत से ही बलात्कार को गंभीरता से नहीं लिया गया. बाद में जब इसके कारणों का विश्लेषण किया जाने लगा तब प्रतिपादित कर दिया गया कि स्त्री उकसाती है या इसकी कामना करती है तभी बलात्कार होते हैं. यानी जो हमारे देश में पहले से प्रचारित था उसे उन्होंने थ्योरी बना दिया.
बलात्कार कितनी बड़ी त्रासदी और कितने व्यापक रूप में समाज में स्थापित है इस पर यकीं दिलाने में स्त्रीवादियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा. एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा था, बलात्कार कम या ज्यादा समझ बुझ कर की गयी वो धमकी है जो पुरुष महिलाओं को डर की स्थिति में बनाये रखने के लिए करते हैं.
मनोविश्लेषक निकोलस ग्रोथ ने 1979 में जेल में रह रहे सौ बलात्कारियों का अध्ययन कर अपने रिपोर्ट में लिखा था, बलात्कार के मुख्यतः तीन कारण होते हैं – sadism, anger or the desire of power यानी कुछ अपवाद छोड़ कर ज्यादातर बलात्कार यौनेच्छा से प्रेरित नहीं होती बल्कि ऐसा अपराध है जिसमें व्यक्ति को शारीरिक मानसिक पीड़ा दे कर दबाव में रखा जाता है, सबक सिखाने और आत्मतुष्टि का आनंद पाने के लिए होता है.
बेरहमी, स्वार्थ और लैंगिक भेद एक पुरुष को बलात्कारी में परिवर्तित कर देता है. हम यदि मान भी लें कि लैंगिक भेद मिटा दिया जायेगा तो भी स्वार्थ और नृशंस भाव से व्यक्ति आज तक उबर नहीं पाया. ऐसे में कानून बनने के बावजूद बलात्कार कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं.
आज हम ऐसे समय में पहुँच गये हैं जहाँ अख़बार ऐसी खबरों से ही भरे रहते हैं. अपराधी अब गैंग में होते है. पीड़िता को मार डालने में भी कोई डर या संकोच नहीं होता. ऐसे कृत्यों के साथ अब नया आयाम जुड़ा है तकनीक का. अब बलात्कारियों के पास बलात्कार सिर्फ ताकत दिखाने का ही जरिया नहीं बल्कि विडियो और फोटो वायरल कर पैसे कमाने का भी जरिया है. समाज में कुछ लोग ऐसे भी है जो ऐसे जघन्य यौनिक हिंसा के विडियो देखना बहुत पसंद करते है. एक बड़ा बाज़ार रियल रेप विडियो का है.
हम सोचते हैं क़ानून बनने और जागरूकता फैलाने के प्रयास के बावजूद ऐसे हादसे रुकना तो दूर कम होने का भी नाम क्यों नहीं ले रहे? तस्वीर बिलकुल साफ है – समाज में परपीड़ा से आनंद पाने वालों की संख्या कुछ कम नहीं, यही इसका असल कारण है. बलात्कार सिर्फ एक व्यक्ति पर हुए हमले का मुद्दा नहीं बल्कि उसकी पहचान छीन लेने का अपराध है. साथ ही सामाजिक सुरक्षा का भी प्रश्न है. आज हर परिवार अपने बच्चों और महिलाओं के प्रति अत्यंत असुरक्षा के भाव से आतंकित है. बलात्कार पर काबू नहीं पाया जा रहा लेकिन पीड़ित के प्रति संवेदना ज़रूर होनी चाहिए. पुलिस की भूमिका सबसे अहम है तुरंत कार्यवाही और सुनवाई के बाद सज़ा के लिए चार्जशीट जल्द ही प्रस्तुत करना होगा. सरकार द्वारा पीड़िता को पुनर्वास के लिए सहायता राशि भी प्रदान की जानी चाहिए.
शानदार आलेख!
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