Friday, 1 September 2017



तकनीक की साया  

1985-87 में एक अंग्रेजी धारावाहिक “small wonder” प्रसारित हुआ करता था। उसी का हिंदी रूपांतरण लगभग एक दशक बाद किया गया। दोनों ही सीरियल काफी लोकप्रिय हुए। मैं भी बड़े चाव से देखती थी। एक लड़की जो देखने में बिल्कुल आम दूसरी लड़कियों जैसी है लेकिन उसके काम इतने असाधारण कि वो कारनामों में तब्दील हो जाते। दरअसल वो लड़की ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ का एक नमूना थी जिसे उसके सृजक वैज्ञानिक अपने घर ले आते हैं और अपनी बेटी बता कर दुनिया से उसका परिचय कराते हैं। बहुत मज़ा आता था उसके कारनामें और अड़ोस-पड़ोस की हैरानी देख कर।
80 के दशक में हमारे देश में ये सब तकनीकी क्षेत्र में कल्पनातीत था लेकिन यहां पर सत्यजीत रे की एक कथा शृंखला का ज़िक्र करूँगी जिसमें उन्होंने ऐसे ही एक रोबो मनुष्य की रचना की जो न सिर्फ हर कार्य में माहिर था बल्कि पृथ्वी से ले कर अन्य ग्रहों के प्राणियों तक की भाषा समझने में सक्षम था। सत्यजीत रे की कल्पना यहाँ तक जाती है कि उस रोबो को बनानेवाले वैज्ञानिक प्रो शंकू को भी ज्ञात नहीं कि उस रोबो में और क्या-क्या विशेषताएँ हैं! समय सापेक्ष वो सामने आता।
आज इन कथा कहानियों और कल्पनाओं को साकार करने में तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी जापान ने सफलता प्राप्त कर ली है।  जापान ने ‘साया’ नाम से एक ऐसी ही लड़की को अब दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। साया 16-17 साल की प्यारी सी जापानी लड़की है (दरअसल साया की कोई उम्र ही नहीं)। सड़क पर निकली तो कोई पहचान ही नहीं पाया कि वो रोबोट है। सिर्फ चेहरा ही नहीं उसमें अच्छी लड़की के सारे गुण प्रोग्राम किये गए हैं, नैतिक मूल्यों की भी उसे समझ है। साया फेसबुक अपडेट कर सकती है, ट्विटर भी हैंडल करना जानती है। जल्द ही साया की छोटी मोटी खामियों को दूर कर उसे आम लोगों के बीच लाया जाएगा। जिन्होंने इसे डिजाइन किया उनका सपना जाने कितने ही लोगों को रोमांच का अनुभव कराएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। 
दुनिया मे तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उपलब्धि इंसान को श्रेष्ठता के चरम शिखर पर ले जा रही है। इंसान मशीन के ज़रिए अपनी हर समस्या का हल चुटकियों में निकाल सकता है। एक बटन दबाते ही मानो आसपास के वातावरण और परिस्थिति मानव की मुठ्ठी में।  इन सब सुविधाओं और सुख के एवज में इंसान को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है और आगे और भी ज्यादा चुकनी होगी।
इन मशीनों के ज़रिए सारे काम पूरे कराने में धीरे-धीरे क्या हम ही इन मशीनों के गुलाम नहीं हो गए? इतने चमत्कारिक उजले तकनीकी दुनिया का स्याह पक्ष भी है- हम अपनी प्रकृति से उसकी पहचान छीन रहे हैं। इंसान अपनी स्वाभाविक भावनात्मक सम्बन्धों,संवेदनाओं को भी यांत्रिक बनाता जा रहा है। जापान जैसे उन्नत देश के युवाओं को एक-दूसरे में कोई रुचि नहीं। वो सिर्फ मनोरंजन या वासनापूर्ति के लिए करीब आते हैं, आपसी संबंधों से अधिक उन्हें कंप्यूटर और एनीमेशन से रिश्ता बनाये रखना रुचिकर लगता है। जापान का ही एक छोटा सा वीडियो क्लिप देखा जिसमें अंतिम संस्कार भी रोबोट द्वारा सम्पन्न किया जा रहा था, क्योंकि अब वहाँ के लोग पारम्परिक रिवाजों को नहीं निभाना चाहते और न ही उनके पास समय है। रोबोट द्वारा कार्य सम्पन्न कराने पर खर्च भी कम आता है।
कल्पना कीजिये साया जैसी लड़की तमाम मानवीय गुणों से युक्त हमारे बीच पहुँच जाती है। वो अकेलापन दूर करती है, हर प्रकार से मदद करती है। उसकी कोई आशा/अपेक्षा भी नहीं सिर्फ समय पर चार्ज कर देना है जैसा कि हम अपने फोन के साथ करते हैं, तो निश्चित ही वो आपके सपनों की परी हो जाएगी। तब उसे छोड़ कोई मानवी की ओर आकर्षित होगा? संभावना कम ही नज़र आती है। और फिर एक ‘टर्मिनेटर’ जैसे यांत्रिक मानव  का भी उदय होगा जो सब कुछ तहस-नहस करने हमारे बीच आएगा। तब क्या होगा? क्या मनुष्य अपनी ही बनाई मशीनों के बीच अपना अस्तित्व बचा पायेगा?

अपने समतुल्य बुद्धि और रचनाशीलता की शक्ति एक यान्त्रिक मानव में डाल देने के बाद  उसका गुलाम हो जाना पड़े तो आश्चर्य नहीं।
अभी तक जितनी तकनीकों का विकास हुआ है उनसे हमें जितना लाभ मिला है, उतना ही हमारे शरीर को नुकसान भी पहुँचा है। औसत आयु बढ़ी है लेकिन बहुत ही कम उम्र से ही हम दवाओं पर निर्भर हो जाते हैं। शरीर बीमारी का घर बन चुका है।
समाज में जितना ज़ोर विकास के नाम पर मशीनीकरण पर दिया जा रहा है उसका एक शतांश भी प्रकृति, प्राकृतिक नियम और मानवीय मूल्यों को दिया जाता तो ‘साया’ सिर्फ किस्से कहानियों का ही हिस्सा होती। उचित होता कि यंत्रों को यांत्रिक कार्यों में ही लगाया जाता- यांत्रिक मानव बनाने के प्रयास न होते।

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, स्व॰ हबीब तनवीर साहब और ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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