Thursday 23 June 2016

कहानी : माँ की चिट्ठी


(शुभांकर मुखोपाध्याय जी का ह्रदय से आभार इस कहानी की रचना हेतु)


इस बार भी धियम बिलकुल अंतिम समय में पहुंचे! मेरी माँ की शेषयात्रा की तैयारी पूरी हो चुकी थी, बस किसी भी क्षण निकल पड़ना था. उनका नश्वर शरीर फूल मालाओं से सजाया गया और धूप अगरबत्ती भी जल रही है. शोकाकुल घर की एक अनोखी गंध पूरे वातावरण में फैली है. माँ की निष्प्राण देह आँगन के हरसिंगार के पेड़ के नीचे सोयी है. माँ जब ब्याह कर इस घर में आई तभी इसके पौधे को अपने हाथों से यहाँ रोपा था, धियम आ कर खड़े हुए उसी हरसिंगार पेड़ के नीचे.

याद है मुझे, ठीक पांच साल पहले जब पिताजी चल बसे तब उनकी मृतदेह भी ठीक इसी तरह यहाँ रखी गयी थी. शेषयात्रा शुरू होगी-होगी ... हो ही रही थी कि एकदम अंतिम  समय में धियम आ पहुंचे. आ कर, कुछ देर शांत हो कर खड़े ही रहे थे ठीक इसी हरसिंगार पेड़ के नीचे. शोकाकुल असहाय माँ पिताजी के पास ही बैठी थी, धियम धीरे-धीरे चलते हुए पिताजी के पास बैठे और उनके माथे पर हाथ रखा, उनका हाथ काँप गया था. हाथ रख कर धीरे धीरे बुदबुदाते हुए उन्होंने कहा, ‘ये तुमने क्या किया सुविनय! हमारे शतरंज के खेल को हमेशा के लिए बंद कर गए!’ बोल कर उठ गये और इस बार माँ के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘यही तो जीवन है निर्मला, इसे मानना ही पड़ता है.’ शाम की उस रौशनी में मैंने साफ़ देखा माँ की देह सिहर उठी थी, उन्होंने दोनों आंखे बंद कर बहने को आतुर पानी को आँखों में ही रोक लिया था. धियम मेरे पास आ कर खड़े हुए मेरी पीठ पर हाथ फेर कर कहा, ‘हिम्मत रखो सुजीत, अब माँ की सारी ज़िम्मेदारी तुम्हे ही लेनी है!’ बस इतना ही, इसके बाद खड़े नहीं रहे वो, छितरा कर खड़ी भीड़ के बीच से सर नीचे किये चुपचाप निकल कर चले गये. एकबार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा!

ठीक ऐसी ही घटना फिर से हुई. कुछ देर हरसिंगार पेड़ के नीचे खड़े रहे धियम फिर धीमी चल से आगे आये और माँ की मृत देह के पास बैठ कर उनके माथे पर हाथ रखते हुए आज भी उसी तरह उनकी उँगलियाँ कांप उठीं. बुदबुदाते हुए उन्होंने कहा, ‘अब जाओ निर्मला, सुविनय इंतजार कर रहा है!’ मुझे वहीँ बैठा पा कर उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रखा और बोले, ‘टूटना मत सुजीत, जीवन ऐसा ही है.’ ये बात कहते हुए उनका गला कैसे भर्रा गया था, मैं जानता हूँ. बहुत तकलीफ से उन्होंने अपने आंसू रोक रखे थे.आँखों में पानी नही, बस अंदर ही अंदर! बोल कर वो उठे और चल दिए. पीछे मुड़ कर एक बार भी नहीं देखा. मानो सब खत्म हो गया अब जीवन में कुछ भी नहीं बचा लेन-देन के लिए!

धियम ऐसे ही हैं, चलते-चलते हो सकता है थोड़ा विश्राम लेने के लिए रुके, लेकिन कभी ठहरना नहीं चाहे. संसार के मायाचौखट पर खड़े हो कर कभी तो उदार मन से प्रेम के लिए खोल दिए दरवाज़ा तो कभी दरवाज़ा बंद भी कर देते है. ऐसे हैं मेरे धियम.
‘धियम’ असल में है मेरे धीरेन मामा. कभी बचपन में उच्चारण दोष के कारण धियम बोलना शुरू किया था वो आज भी नही छुटा. सिलेट के सुनामगंज में माँ के बगल वाले मकान में ही धीरेन मामा का परिवार रहता था. धनाढ्य परिवारों में उनके परिवार का नाम था, धन-धान की वजह से उनलोगों को आसपास के सात गाँव के लोग पहचानते थे. देश विभाजन होने के समय दोनों परिवार दूर हो गये. माँ का परिवार पहले ही भारत आ गया और धियम का परिवार बहुत बाद में. उसके भी बहुत दिनों बाद अल्मोड़ा में मुलाकात हुई माँ और धियम की. माँ की तब पिताजी के साथ शादी हो चुकी थी और वे दोनों घुमने गए थे अल्मोड़ा, साथ में मैं था तब तीन साल का.

ये सब कहानी मैंने माँ और पिताजी के पास ही सुनी थी,बचपन से ही धियम को शिल्पकला में रूचि थी बाद में उन्होंने इसे ही अपना पेशा भी बना लिया. शान्तिनिकेतन में शिक्षकों के काफी प्रिय छात्र थे. उसके बाद शिल्पकला के क्षेत्र में उनके काम को देख उनका नाम देश विदेश में बहुत सम्मान से लिया जाने लगा था. शान्तिनिकेतन बहुत ज्यादा दिन रहना नहीं हो पाया,इसी बीच कुछ ही दोनों के अन्तराल पर उनके माँ और पिताजी दोनों का ही देहांत हो गया. धियम लौट आये सियालदाह में बने अपने घर में. दूर दूर तक अब धियम का और कोई सम्बन्धी नहीं था. बिलकुल अकेले हो गये थे. अपने घर के नीचे तल्ले में उन्होंने एक समृद्ध लाइब्रेरी बनायीं और ट्रस्ट बना कर उसका दायित्व मोहल्ले के लड़कों को सौंप दिया. इसके बाद एक प्रदर्शनी में मुलाकत हुई उदयशंकर से, उन्होंने ही धियम को सलाह दी अल्मोड़ा में बसने की और तब धियम ने एक छोटा सा घर ख़रीदा रहने के लिए और एक स्टूडियो का निर्माण भी वहीँ कर लिया. लेकिन वो भी और कितने दिन! कुछ ही दिनों बाद वहां हमलोगों से मुलाकात हो गयी और धियम ने कोलकाता लौटनेका मन बना लिया! माँ पितानी ने बहुत समझाया था, ’इतना सुंदर परिवेश और इतना समृद्ध स्टूडियो छोड़ कर कोई जाता है क्या?’ धियम ने कहा था, ‘अब यहाँ सब कैसा पुराना सा लग रहा है, थोड़े अन्तराल की ज़रूरत है.’

कोलकाता लौटने के बाद से ही धियम का एक और नया नियम बन गया था. अगर कोलकाता में हो तो रविवार की सुबह हमारे घर आ जाते थे. मेरी नींद टूटती थी रसोई से उठने वाले नाना सुगंध से. पुड़ी-सब्जी, मटन बहुत कुछ बनता था. जम कर खाना पीना होने के बाद पिताजी और धियम बैठते थे शतरंज खेलने और माँ ग्रामोफोन पर टैगोर के गाने लगा दिया करती थी. कभी कभी इस रूटीन में बाधा भी पड़ती थी जब किसी को कुछ भी बताये बिना घियम गायब हो जाते थे. कुछ दिनों बाद वापस लौट कर बोलते, ‘अल्मोड़ा गया था.’ पिताजी के चले जाने के बाद इस रूटीन में भी बदलाव आ गया, धियम अब कभी कभार ही आते है या के एक-आध बार टेलीफोन बस.

धियम का चले जाना देखते देखते पुरानी यादों में खो ही गया था, पार्थ के बुलाने पर जैसे मैं कहीं दूर से वापस लौटा. पार्थ मेरे बचपन का दोस्त है, और माँ का तो बहुत प्रिय था. ‘था’ क्योंकि अब माँ ही तो नहीं रही. पार्थ आ कर बोला, ‘अब निकलना होगा सुजीत.’ पृथा भी आगे आ कर बोली, ‘तुम उनके साथ आगे बढ़ो, मैं पीछे टैक्सी में आती हूँ.’ पृथा को माँ बहुत प्यार करती थी, खास कर उसके गाने की तो दीवानी ही थी. पृथा और मेरी शादी देखने की बहुत इच्छा थी माँ की, लेकिन हो न सका. पिताजी बोला करते थे, ‘जीवन के सारे हिसाब किताब बराबर नहीं मिलते.’ चलो माँ तुम्हे अब पिताजी के पास पहुंचा दूँ. धियम बोले सुना नहीं, पिताजी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं. दाहकर्म के बाद पृथा मुझे और पार्थ को अपने साथ ही ले गयी. उसके माता पिता के बहुत जोर देने पर थोड़ा कुछ मुंह में डालना ही पड़ा लेकिन इच्छा बिलकुल भी नहीं हो रही थी. दोनों इतने स्नेही और अच्छे है की उनके प्यार को अस्वीकार किया ही नहीं जा सकता. बहुत थकान महसूस हो रही थी अब, थोडा आराम करने के बाद पार्थ से मैं बोला, ‘हमारे घर में तो श्राद्ध-वाध नहीं होता इसलिए पिताजी के समय जिस तरह किया था उसी प्रकार माँ के लिए भी एक स्मरण-सभा का आयोजन कर दो. इस शनिवार, मैं कल परसों में सबको फ़ोन कर के खबर कर देता हूँ.’ काफी रात गए पार्थ और मैं घर वापस आये. पार्थ बहुत ज़िद करता रहा रात मेरे घर पर ही रहने के लिए लेकिन मैं अकेला रहना चाहता था उसे मना कर दिया. समझा दिया आज से तो मुझे अकेले ही रहना है तो आदत कर लेनी चाहिए. पार्थ, ‘ठीक है’ बोल कर विदा ले लिया. जाते जाते बोल गया, ‘कोशिश करना थोड़ा सोने की, नहीं तो तबियत ख़राब हो जाएगी.’ लेकिन नींद क्या आएगी आज? सोचा माँ के कमरे में ही जा कर बैठता हूँ. अंदर घुसते ही महसूस हुआ जैसे एक अनजाना खालीपन मुझे और भी अकेला कर दे रहा है. कैसे पूरा घर खाली खाली सा लग रहा. विशाल पलंग पर एक अजीब सी शून्यता थी. ये मेरे माँ पिताजी का पलंग है, पिताजी के जाने के बाद माँ एक कोने में थोड़े से जगह पर सोती थी और बाकी जगह मानो पिताजी के लिए खाली रखती थी. अब कोई किसी के लिए जगह नहीं रखेगा. अब पुरे पलंग को ही मैं संभाल  कर रखूँगा अपने माँ पिताजी की स्मृति में. पलंग के बगलवाली इस दराज़ से माँ को विशेष लगाव था. रोज़ इस पर ताज़ा फूलों से सजा कर गुलदान रखा करती थी. आज भी उस फूलदान में ताज़ा रजनीगंधा रखा हुआ था, ज़रूर ये पृथा का ही काम होगा. दराज़ की ओर देखते ही मुझे याद आ गयी एक बहुत पुरानी बात. उस दिन पिताजी के दाहसंस्कार के बाद घर लौट कर देखा माँ यहाँ अकेली बैठी हुई है एकदम शांत. मैं उनके पास जा कर बैठा. उन्होंने एक लिफाफा दिखा कर कहा, ‘एक चिट्ठी लिख रखी है तुम्हारे लिए, मेरी मृत्यु के बाद ही इस खोल कर पढ़ना. इसी दराज़ में रख रही हूँ.’

क्या लिखा होगा माँ ने उस चिट्ठी में मेरे लिए. वो क्या कोई इच्छा-पत्र है, या मृत्युकालिन जबानबंदी या शायद किसी तरह की स्वीकारोक्ति! कौतुहल तो बहुत था मन में लेकिन माँ ने पहले पढने से मना किया था इसलिए कभी पढने की कोशिश नहीं की. माँ का आज्ञाकारी बेटा था न! माँ, ज़रूर कोई गहरा सच उस चिट्ठी में छिपा कर रखी होगी. उन्होंने ने सोचा होगा किसी बड़े सच का सामना व्यक्ति तभी सहज कर लेता है जब वो अकेला हो जाता है. आज ही वो दिन है, मैं एकदम अकेला हो गया हूँ. इतने दिनों में तो चिठ्ठी के बारे में भूल ही गया था आज ही याद आया. दराज़ में हाथ डाल कर उसे ढूंढने की कोशिश करने लगा. अँधेरे में जैसे रौशनी ढूंढते हैं वैसे ही मैं माँ की चिट्ठी खोज रहा था. कांपते हांथों से चिट्ठी बाहर निकाली. सुन्दर अक्षरों में लिखा था, ‘सुजीत के लिए’.

लिफाफा खोल कर चिट्ठी पढ़ी, एक बार दो बार .... कई बार:
बेटा सुजीत,
तुम मेरे समझदार बेटे हो, मेरे इस चिठ्ठी का मर्म तुम ज़रूर समझ पाओगे. किशोरवय में तुम्हारे धियम के साथ प्रेम सम्बन्ध था मेरा, देश बंटवारे के उस कांटेदार बाड़े ने हमारे प्रेम को भी बहुत पहले ही बाँट दिया लेकिन पहला प्रेम भूल कैसे जाती बताओ. तुम्हारे पिताजी को मैंने सब बताया था. और ये बात तुम्हारे धियम को भी मालूम थी. बहुत ही खुले दिल के मालिक थे तुम्हारे पिता और तुम्हारे धियम भी. प्यार बाँट लेने में क्या सुख है ये मुझे उन्होंने ही सिखाया था. हम तीनो आजीवन हमारे प्रेम के आगे नतमस्तक ही रहे. तुम भी रहना, मेरा अच्छा बेटा. देखना बहुत खुश रहोगे. हम तीनों ने परामर्श कर के ही तय किया था, तुम्हे ये चिठ्ठी लिखना है. हमने सोचा था कि प्रेम कितना महान होता है ये तुम्हे बताने की ज़रूरत है. इसी उद्देश्य से ये चिट्ठी लिखी है.
तुम्हारी माँ
पुन: हमारे पुराने अलबम से तुम्हारी पसंद से मेरी एक तस्वीर धियम को दे आना. उसने तो कभी मुझसे कुछ नहीं चाहा इसलिए मैं चाहती हूँ की कम से कम मेरी एक तस्वीर उनके पास स्मृति स्वरुप रहे.

माँ की चिट्ठी समाप्त हो गयी. बाहर कोलकाता की परिकथा भी खत्म हो गयी, सिंहद्वार पर अब सुबह दस्तक दे रही है. हमारा पुराना अलबम खोल कर मैं पलंग पर बैठ गया. ढूंढने लगा माँ की सबसे सुंदर तस्वीर. सुबह की रौशनी में मैंने खोज ही ली मेरी माँ की वो ममता भरी तस्वीर. जिसे पिता जी ने ही खिंची थी जब कोवलम घुमने गए थे. हाँ यही तस्वीर मैं धियम को देना चाहता हूँ. यही तस्वीर! समयवेग में बदल जाता है सब. घर, इन्सान, तस्वीर भी. किसी अनदेखे सपने के में खोने लगा हूँ मैं धीरे धीरे नींद से भरने लगा हूँ. अब मुझे एक लम्बी नींद चाहिए.

माँ की स्मरण-सभा हमारे घर के छत पर ही करेंगे ऐसी व्यवस्था पार्थ ने की है. जितने लोगो को बुलाया था सभी आये है सिर्फ धियम नहीं आये. पता नहीं क्या कर रहे धियम अपने उस निर्जन अकेले घर में? माँ की लिखी कोई बहुत पुरानी पिली पड़ गयी चिट्ठी पढ रहें होंगे क्या? पता नही! पृथा गाना गा रही है, वो ये गाना ‘जब नहीं पड़ेंगे मेरे पदचिन्ह इस भूमि पर’ बहुत सुंदर गाती है. बिना किसी संगत के ही गा रही है, हारमोनियम पास ही पड़ा है पर किसी ने नही छुआ. ये हारमोनियम मेरी माँ बजाती थी, रोज़ भोर में रियाज़ किया करती थी. छुट्टी के दिन पिताजी बैठते थे इसराज ले कर और माँ तब रविन्द्र संगीत शुरू करती सामने ‘गीताबितान’ खुला होता और फिर एक के बाद एक सुन्दर गाना. पार्थ स्मरण-सभा कंडक्ट कर रहा है, बहुत कुछ कह रहा है लोग ध्यान से सुन रहें है लेकिन मेरे कानों तक कुछ भी नहीं पहुँच रहा. मैं बिलकुल अनमना सा हो गया हूँ. पार्थ के आवाज़ देने पर होश में आया, ‘सुजीत, अब तुम्हे भी कुछ कहना चाहिए.’ क्या बोलूं? बोलूं क्या मैं! धीमी चाल से आगे बढ़ गया मैं, कुछ तो बोलना था. अचानक क्या मन में आया, पॉकेट से माँ की चिट्ठी निकाल ली. बैकग्राउंड बता कर उस मैं वो चिट्ठी पढ़ कर सबको सुनाया. सभा में एक गुंजन सी उठने लगी! और उसी के साथ पार्थ ने सभा समाप्त कर दी.

मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि वो गुंजन वाहवाही है या आलोचना. सभा के बाद एक सामान्य से भोज का आयोजन था, लगा जैसे उसी बहाने सब मुझे अनदेखा कर उस तरफ जा रहे हैं. कुछ एक जनों को देखा मुझसे से थोड़ी दुरी बना अकारण ही हाथ हिला कर इधर उधर आ जा रहे है, सभी व्यव्स्त्ता का भान कर रहे हैं. मानो शर्म से कोई मेरी आँखों से ऑंखें मिला कर बात नहीं कर पा रहा. ये मेरी माँ की स्मरण-सभा है या ‘बड़ों की शर्म-सभा’. मेरे मित्रों का व्यवहार तो और भी संशय में डाल रहा है, उनमे से बहुतों ने मुंह से कुछ नही कहा बस पास आ कर मेरी पीठ थपथपा कर दूसरी ओर हट गये. उन लोगों ने मुझे शाबाशी दी या कि सांत्वना! कुछ ठीक से समझ नहीं आया.
नाते-रिश्तेदारों का व्यवहार तो और भी अजीब था,सभी ऐसा कर रहे थे मानों भागे तो जान बचे! हाँ लेकिन उन्होंने अघोषित रूप से अपना प्रतिनिधि चुन लिया था मेरी बड़ी बुआ को ! जो मुझसे इस विषय में बात करे. वो अपने बगल में दबा कर अपने बेटी-दामाद को भी साथ ले आई और सबकी अनकही बातों को अंत में मुझसे कह दिया. लगभग झिड़कने के स्वर में ही उन्होंने मुझसे कहा, ‘ये कैसा सनकीपन है, दामाद के सामने मेरा मुंह काला कर दिया! लोगों से भरे घर में परिवार का कुकृत्य नही सुनाने से क्या नहीं चल रहा था तुम्हारा! इतनी बातें सुना कर वो फिर अपने चुप खड़े बेटी दामाद को साथ ले वापस खाने के आयोजन की निगरानी करने चली गयी. मानों मेरी माँ के स्मरण-सभा का सारा दायित्व उन्ही पर हो, मैं अवाक कितनी ही देर तक खड़ा ही रहा वहां. कुकृत्य! इन्सान अगर इन्सान से प्यार करे तो वो कुकृत्य हुआ तो एक दुसरे से घृणा करे तो वो क्या है? एक दुसरे से इर्ष्या करे तो वो?

किससे क्या कहें? मैं खुद को संभाल कर मेहमानों की खातिर में लग गया. नियम रक्षा तो करनी ही थी. मुझे उस समय तक भी पता नही था कि असली बम फूटना अभी बाकी ही था. बहुत जल्दी ही सब काम निपट गया. निमंत्रित लोग सभी चले गये थे, बहुत ज्यादा लोग थे भी नहीं इसलिए समय भी नहीं लगा. उसके बाद घर एकदम खाली. हमारे ड्राइंग रूम के एक कोने में पृथा मुंह फुला कर बैठी थी, उसके माता-पिता भी थे. मैं जा कर उसके कंधे पर हाथ रखा. मुझे चौंका देने वाले अंदाज़ में उसने मेरे हाथ कंधे से झटक दिया. गले की आवाज़ में एक अजीब सा रूखापन ला कर उसने मुझसे कहा, ‘ऐसा करना क्या ज़रूरी था सुजीत, मैं अब हमारे दोस्तों के बीच क्या मुंह दिखाउंगी! तुम क्या भूल गये कि इस घर आ कर अब मुझे भी रहना है!’ मेरे कुछ कहने से पहले ही पृथा के पिता बोल उठे, ‘ये क्या कह रही हो पृथा? मत भूलों कि सुजीत की माँ तुम्हे अपनी बेटी जैसा प्यार करती थी और हमारे परिवार के बीच बहुत मधुर बन्धुत्व का रिश्ता है. पृथा की माँ उसे परे हटा कर बोली, ‘बेटा तुम इसे बाद में समझा कर बताना. अभी रहने दो. लेकिन सबके सामने कह रही हूँ, तुम्हारी माँ मेरी भी आँखें खोल गयी हैं... बिलकुल सही बात है, प्रेम तो गर्व करने की ही बात है, छुपाने जैसा तो इसमें कुछ नहीं!’
पृथा और भी कुछ कहना चाह रही थी, अचानक वहाँ पार्थ आ गया और अपने स्वाभाव के विरुद्ध उसने गंभीर आवाज़ में थोड़ा डांटते हुए ही पृथा से कहा, ‘शांत हो जाओ पृथा, इन बातों की चर्चा  तुमदोनो बाद में कर लेना. आज रहने दो’. पार्थ का ये मिजाज़ पृथा के लिए नया था शायद आकस्मिक बदलाव देख वो शांत हो गयी.
‘फिर किसी दिन फुर्सत में घर आना,सुजीत! बोल कर पृथा के पिता जाने को निकल पड़े’. पीछे उनकी पत्नी भी खड़ी हो गयी जाते हुए बोली, ‘सुजीत अपना ख्याल रखना’. पृथा जाते हुए सर नीचे किये हुए ही सिर्फ इतना ही बोली, ‘ जा रही हूँ’, कल आराम करो. परसों एक बार हमारे घर आना’. उनके जाने के बाद पार्थ मेरे दोनों हाथ पकड़ कर बोला,मेरी नज़र में तुम्हारा मान और बढ़ गया सुजीत! आज तुमने जो किया उसके लिए बहुत मजबूत कलेजे की ज़रूरत होती है. खैर.. आज रात तुम अकेले रहो, कल शाम को फिर आऊंगा.’ इस बार मैं उसके हाथों को पकड़ लिया, ‘मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ पार्थ, कम से कम सुबह तक रुक जाओ.’ पार्थ का चेहरा चमक उठा. मानों कह रहा हो, ‘तुम्हारी बात कब मैंने नहीं मानी, जो आज ऐसा होगा.’

दो रात पार्थ मेरे साथ ही रुका, सुख-दुःख की बातें करते हुए हमने दो दिन बिता दिये. आज दुबह सुबह पार्थ निकल गया उसे ऑफिस ज्वाइन करना था. मैंने दोपहर बिस्तर छोड़ा. नहा धो कर फ्लास्क में चाय रख माँ के पलंग पर बैठा, अकेला पुरे घर में अब और कोई नहीं. आज शाम पृथा के घर जाने की बात थी लेकिन जाना नहीं हो पायेगा. आज ही मैं न्यू जलपाईगुड़ी के लिए निकल जाऊंगा. फिर वहां से झासिखोला. बंगाल-सिक्किम सीमांत के उस पहाड़ी गाँव में एक सुरेला नदी है, उसी के हरियाली से भरे किनारे पर एक कॉटेज बुक किया हूँ. फिलहाल तो सिर्फ चार दिनों के लिए. ये सारी व्यव्स्था पार्थ ने कर दी है. उसने मुझसे वादा किया है कि मैं कहाँ हूँ इस बारे में किसी से कुछ भी नहीं कहेगा. कोलकाता छोड़ने से पहले अभी दो और काम करने बाकि है. एक तो पृथा के नाम एक चिट्ठी लिखना और दूसरी धियम को माँ की फोटो दे कर आना होगा.

पृथा को चिट्ठी लिखने बैठा.

पृथा,
जाना नहीं हुआ, इंतजार मत करना प्लीज. तुम्हारे साथ मेरी दोस्ती है और हमेशा रहेगी. लेकिन दोतारा के जिस एक सूर से बंधे थे हमदोनो अचानक ही वो टूट गया.
मौसी और मौसा जी से कहना जब कभी बहुत अकेलापन लगेगा तब चला आऊंगा तुमलोगों के घर. मौसा जी के साथ जम कर शतरंज खेलूँगा और साथ होगा मौसी जी का दार्जिलिंग टी.
जानती हो, अभी तुम्हे ये चिट्ठी लिखते समय मुझे अपने एक पारिवारिक पल की याद आ रही है. रविवार के दिन जब पिता जी एसराज ले कर बैठते थे और माँ टैगोर का वो गाना अक्सर गाती थीं... ‘वो लोग सुख के लिए चाहते प्रेम , प्रेम मिलता नहीं.’ ये गीत जहाँ हुआ सत्य, वहाँ पथ हमारा हुआ शेष!
सुजीत

अब निकलना होगा. मेरा हमेशा का साथी कंधे के बैग में कुछ ज़रूरी सामन भरा, पृथा को लिखी चिट्ठी पॉकेट में रखी और माँ की फोटो भी. न जाने क्या मन में हुआ माँ की चिट्ठी भी साथ में रख ली, इसे अपने से दूर करने की इच्छा ही नही हो रही. मोबाइल भी साथ में आ गया था फिर याद से उसे माँ के पलंग पर छोड़ दिया. जानता हूँ बहुत बहुत सारे फोन आयेंगे मोबाइल तुम्हे अकेले ही बजते जाना होगा, कोई सुनने को नहीं होगा.

डाकघर पहुँच कर दोनों आँखे बंद कर पृथा को याद किया, चिट्ठी पोस्ट बॉक्स में डालते वक्त कलेजा काँप उठा था. एक बहुत लम्बा सफ़र आज यहीं खत्म हो गया. विच्छेद! वो चाहे जिस कारण भी हो, बहुत निष्ठुर होता है! मेरी माँ टैगोर की लिखी एक पंक्ति अक्सर कहती थी, ‘जो खत्म हो रहा होने दो रे खत्म उसे, टूटे माला के नष्ट हुए फूलों को न जाओ उठाने.’ पीछे पलट कर फिर नहीं देखा. अब जाऊंगा धियम के घर. गया, लेकिन वहाँ भी चकित ही होना लिखा था. देखा, दरवाज़े पर ताला लटका है और उसकी कड़ी में मेरे नाम की एक चिट्ठी रखी है. एक नीला बंद लिफाफा जिस पर मुक्ताक्षरों में मेरा नाम लिखा था ‘सुजीत के लिए.’ चिट्ठी खोल कर पढना शुरू किया....
 सुजीत,
जानता था तुम आओगे, माँ की तस्वीर भी ज़रूर साथ लाये हो! तुम्हारी माँ की तस्वीर तो उस किशोरवय से ही मेरे मन की गहराई में उजाला किये हुए है. इसीलिए अब नये से कोई तस्वीर नही भी लिया तो क्या हुआ. तुम तो लिखते हो, तुम ज़रूर समझोगे. प्रेम ऐसा एक अपार्थिव अनुभूति है, जिसकी तुलना में कोई भी पार्थिव वस्तु मूल्यहीन लगती है!
अब मुझे जाना होगा, जाऊंगा भी और कहाँ वही घूम फिर कर अल्मोड़ा. तुम्हारी माँ अब नहीं रही, मेरा एक प्रेम चला गया. अब मुझे अपने एक दुसरे प्रेम के सामने हाथ फैलाना होगा. अपना स्टूडियो फिर से शुरू करूँगा. समय और सुविधा होते ही अल्मोड़ा चले आना. तुम्हे देखने को हमेशा मन चाहता रहेगा. सच कहूँ तो तुम्हारा चेहरा जैसे तुम्हारी माँ के सांचे में ही ढला हुआ है, तुम्हे देखने के लिए मेरी आत्मा हमेशा व्याकुल ही रहेगी.
अपना ख्याल रखना, आज इतना ही.
तुम्हारा
धियम.

जानता हूँ, लड़कों को रोना नहीं चाहिए, लेकिन मन कहाँ मान रहा. धियम की चिट्ठी पढ़ कर पता नहीं क्यों लग रहा जैसे सब कुछ शून्य हुआ जा रहा है. माँ, पिताजी,धियम सब जाने क्यों दूर हुए जा रहे हैं. दोनों आँखे से आंसू झर झर बह निकले. ये तुमने ठीक नहीं किया धियम, परिवार का सदस्य कहने को तो मेरे पास और कोई भी नहीं रह गया. मैं जाऊंगा ज़रूर जाऊंगा अल्मोड़ा. मेरी माँ की जो तस्वीर तुम्हारे मन की गहराई को उजाला किये हुए है, उस मातृप्रतिमा को देखने मेरा मन भी हमेशा व्याकुल रहेगा.

शाम घिर आई है, उजाला कम हो गया है. तो कम होने दो! ‘अंतर में आज देखूंगा मैं जब आलोक होगा नहीं रे!’ पॉकेट से निकाल कर एक बार फिर मैंने माँ की चिट्ठी पढ़ी और तभी हजारों छोटी बड़ी रौशनी से जगमगा उठा मेरा शहर. माँ की चिट्ठी तो ऐसी ही होती है, सारा अँधेरा उजाले में बदल जाता है उसके स्पर्श मात्र से!






 



8 comments:

  1. वाकई एक-से-एक रत्न ढूंढ़ के ला रही हैं आप!

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  2. दुनियां कथासागर ही है न!!
    शुक्रिया...

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  3. दुनियां कथासागर ही है न!!
    शुक्रिया...

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  4. अत्यंत सुंदर !!

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