Monday 20 June 2016

कहानी : कंकाल लेखक : रबिन्द्रनाथ टैगोर

 चित्र गूगल से प्राप्त

हम तीन बचपन के साथी जिस कमरे में सोते थे उसके बगल के कमरे की दिवार पर एक साबुत नरकंकाल लटकाया हुआ रहता. रात में हवा के जोर पर उसकी हड्डियाँ खड़-खड़ की आवाज़ कर के हिला करती और दिन में हमलोगों को उन हड्डियों को हिलाना होता था. हमलोग उस समय पंडित-महाशय के पास मेघनादवध और कैम्बेल स्कूल के एक विद्यार्थी के पास अस्थिविद्या पढ़ रहे थे. हमारे अभिभावकों की इच्छा थी, कि हमे सर्वविद्या में पारंगत कर के ही छोड़ेंगे. उनकी ये इच्छा कितनी सफल हुई है ये बात जो हमें करीब से जानते है उनके सामने कहना कुछ ज्यादा ही हो जायेगा और जो नहीं जानते उनके सामने इसे गुप्त रखना ही श्रेयस्कर होगा.
ऐसे ही बहुत दिन बीत गये. इस बीच उस कमरे से वो कंकाल और हमारे दिमाग से अस्थिविद्या कहाँ स्थानांतरित हो गये खोज कर के भी नहीं पता चल सका.
कुछ दिन हुए, एक दिन किसी कारणवश जगह की कमी होने के कारण मुझे एक रात उसी कंकाल वाले  कमरे में सोना पड़ा. नई जगह होने की वजह से नींद नहीं आ रही थी. करवट बदलते-बदलते गिरजाघर के सारे घंटे मेरे कान में बजते रहे. और इसी बीच तेल से जलता हुआ लालटेन भी धीरे-धीरे बुझ गया. इसके पहले सुना गया है कि इस घर में दो-एक दुर्घटना घट चुकी है, इसलिए बत्ती के बुझते ही तुरंत मौत की बात अपने आप ही मन में उभरने लगी. मन में आया की, यही तो दो घडी पहले जो एक दीपशिखा जल रही थी सदा के लिए घोर अंधकार में मिल गयी. प्रकृति के लिए जैसे इस रौशनी का बुझना है ठीक वैसे ही इंसान के छोटे-छोटे प्राण का भी, अचानक विलीन हो जाना एक ही है, कोई अंतर नहीं.
विचार के इसी क्रम में उस कंकाल की याद आई. उसके जीवनकाल के बारे में कल्पना करने लगा. सहसा महसूस हुआ जैसे एक चेतन पदार्थ अँधेरे कमरे में दिवार के सहारे-सहारे मेरे मसहरी के चारों ओर घूम रहा है. उसकी भारी-भारी सांस की आवाज़ भी सुनाई देने लगी. जैसे वो कुछ खोज रहा हो लेकिन मिल नही रहा और पूरे घर में ही उसके घुमने का एह्सास होने लगा. समझ में आया, ये सब मेरे ही निद्राहीन उच्च उर्वर मस्तिष्क की कल्पना है और मेरे ही सर में जो भन-भन करते हुए खून तेज़ी से दौड़ रहा है उसी के भागने की पदध्वनि सुनाई दे रही है. लेकिन फिर भी एक अजीब सी अनुभूति होने लगी. ज़बरदस्ती अपने इस डर को दूर करने के लिए चिल्ला कर बोल पड़ा. ‘कौन है?’ पदचाप मेरे मसहरी के पास आ कर रुक गए और एक जवाब भी सुनाई पड़ा, ‘मैं. मेरा वो कंकाल कहाँ गया उसी की खोज में हूँ.’
मैंने सोचा, अपनी इस काल्पनिक सृष्टि के सामने डर दिखाऊं ये ठीक नही होगा – मसनद जोर से पकड़े हुए पुराने परिचित की तरह सहज स्वर में उससे कहा, 'इतनी रात गए करने के लिए कितना महान काम खोज निकाला है, तो वो कंकाल अभी तुम्हारे लिए आवश्यक है?’
अँधेरे में मसहरी के एकदम करीब से आवाज़ आई, ‘क्या कह रहे हो? मेरी छाती की हड्डियाँ उसी में थी, मेरे छब्बीस साल का यौवन भी तो उसी के चारों ओर विकसित हुआ था--- एक बार देखने की इच्छा नहीं होगी?’
मैं तुरंत बोला, ‘हाँ , बात तो सही है. तो जाओ तुम खोज करो मैं अब थोड़ा सो लेता हूँ.’
उसने कहा— ‘लगता है तुम अकेले हो? तो मैं थोड़ी देर यहाँ बैठूं. थोड़ी बाते की जाये. पैंतीस साल पहले मेरी भी इंसान के पास बैठ कर इंसानों से बातें होती थी. अब इन पैंतीस सालो में मैं सिर्फ शमशान की हवा जैसी हूहू आवाज़ करते हुए फिर रही हूँ. आज पैंतीस साल बाद एक बार फिर इंसान की तरह तुमसे बातें करना चाहती हूँ.’
महसूस हुआ जैसे मेरी मसहरी के पास आ कर कोई बैठा. निरुपाय हो कर मैं थोड़ा उत्साह के साथ ही बोला, ‘ ठीक है, तो फिर कोई ऐसी कहानी बताओ जिससे मन खुश हो जाये.’
वो बोली, ‘सबसे मजेदार कोई बात सुनना चाहते हो तो मैं अपने ही जीवन की घटना बताती हूँ.’
गिरजाघर की घडी में ठंग-ठंग कर के दो बज गये.
‘जब इंसान थी और छोटी थी तब एक व्यक्ति से यम की तरह भय खाती थी. वो मेरे पति थे. मछली को कांटे से पकड़ने पर जैसा महसूस होता होगा मुझे भी ठीक वैसा ही महसूस होता था. अर्थात् कोई एक अनजान जीव मानो बंसी से बिंध कर मुझे मेरे स्निग्ध गहरे जन्मस्थल जलाशय से खींच कर छिन कर ले जा रहा है – किसी भी तरह उसके हाथों से मुक्ति नहीं. शादी के दो ही महीने बाद मेरे पति की मृत्यु हो गयी और मेरे आत्मीय-स्वजन मेरे लिए शोक और विलाप करने लगे. मेरे श्वसुर बहुत सारे गुण-लक्षण देख और मिला कर मेरी सास से बोले , ‘शास्त्रों में जिसे कहते हैं विषकन्या ये लड़की वही है.’ ये बात मुझे साफ याद है. – सुन रहे हो, कैसी लग रही है कहानी?’
मैं बोला, ‘बढ़िया. कहानी की शुरुआत तो मज़ेदार ही लग रही है.’
‘तो फिर आगे सुनो, ख़ुशी-ख़ुशी पिता के घर वापस आ गयी. धीरे-धीरे उम्र बढ़ने लगी. लोग मेरे पास ये बात छिपाने की कोशिश करते थे लेकिन मैं खूब जानती थी की मेरे जैसी सुंदरी कन्या यहाँ-वहां हर जगह नही मिलती. – तुम्हे क्या लगता है?’
‘हो सकता है, लेकिन मैंने तो तुम्हे कभी नहीं देखा.’
चित्र गूगल से प्राप्त

‘नही देखा है! क्यों? मेरा वो कंकाल. हिहीहिही!! मज़ाक कर रही हूँ. तुम्हारे पास कैसे प्रमाणित करूँ कि उस खाली कोटर में कभी बड़ी-बड़ी सी खूबसूरत काली आँखे थी, और लाल होठों पर जो मधुर  हंसी मिली रहती थी अभी के इस अनावृत दंतपंक्ति के साथ वीभत्स हंसी का उससे कोई मेल नहीं; और इस सूखे हड्डी के ढांचे पर इतना सुकोमल लालित्य और यौवन से परिपूर्ण शरीर दिन पर दिन और खिलता जा रहा था, तुमसे ये सब वर्णन और व्याख्या करने में मुझे बड़ी हंसी आ रही है और गुस्सा भी आ रहा है. मेरा वो शरीर जो अस्थिविद्या सीखने के काम भी आ सकता है ये उस समय के बड़े से बड़े डॉक्टर भी विश्वास नही कर सकते थे. मैं जानती हूँ, एक डॉक्टर उसके एक विशेष प्रिय मित्र के पास मुझे कनकचंपा नाम दिया था. इसका मतलब हुआ कि, इस पूरी  दुनिया में सारे मनुष्य अस्थिविद्या और शरीरतत्व पढने समझने के लिए थे, सिर्फ मैं ही सौन्दर्य रूपी फूल की तरह थी. कनकचंपा के अन्दर भी एक कंकाल है!’
‘मैं जब चलती थी तब खुद ही समझती भी थी कि, एक टुकड़ा हीरा हिलाने पर जैसे उसके चारों ओर प्रकाश किरणें झिलमिला उठती है ठीक वैसे ही मेरे शरीर की हरेक गति के साथ वैसा ही सौन्दर्य प्रकाश चारों तरफ बिखरने लगता था. कभी-कभी मैं खुद ही अपने दोनों हाथ देखती रहती, देखती और सोचती मेरे इन दो हाथों में पृथ्वी के सारे उद्दत पौरुष के मुंह पर लगाम लगाने की  ताकत हैं, सुभद्रा जब अर्जुन को ले कर तेज गति से अपना विजयरथ तीनों लोकों से चला कर ले जा रही थी, लगता है उनके भी इसी तरह के दो सुन्दर सुडौल बाहें और आरक्त हथेली, लावण्यशिखा की तरह उँगलियाँ रही होंगी.
‘लेकिन मेरा ये निर्लज्ज, निरावरण, आभूषणविहीन वृद्ध कंकाल तुम्हारे सामने मेरे बारे में झूठा साक्ष्य दे रहा है. मैं उस समय निरुपाय और निरुत्तर थी, इसीलिए इस दुनिया में सबसे ज्यादा गुस्सा तुम्हारे ऊपर ही है. इच्छा होती है कि, मेरी वो सोलह बरस की जीवित यौवन रक्तिम आभायुक्त रूप तुम्हारे आँखों के सामने खड़ा कर दूँ और हमेशा के लिए तुम्हारी अस्थिविद्या भुला कर उसे देश निकाला दे दूँ.’
मैं बोला, ‘तुम्हारे पास अगर शरीर होता तो तुम्हे छू कर शपथ ले कर कहता, वो विद्या लेशमात्र भी मेरे दिमाग में नहीं है. और तुम्हारी वो भुवनमोहिनी रूपरजनी का जैसा वर्णन तुमने किया उससे इस अँधेरे कमरे में झिलमिलाहट फ़ैल गयी है, मैं साफ़ देख सकता हूँ उस रूप की कान्ति. रहने दो अब और वर्णन की ज़रूरत नहीं.’
‘मेरी कोई सहेली या संगिनी नहीं थी. बड़े भाई ने प्रतिज्ञा की थी, वो विवाह नही करेंगे. अंत:पूर में मैं एकदम अकेली थी. बगीचे के पेड़ पौधों के बीच बैठ कर मैं सोचा करती, सारी दुनियाँ मुझे ही चाहती है, सारे तारे मुझे ही देखते है, हवा भी छल कर के अपनी गहरी साँसे मुझे अनुभव करा जाती है, और जिस घास पर मैं पैर फैला कर बैठी हूँ उसमें भी अगर चेतना होती तो वो भी बार-बार मुझे पा कर मूर्छित हो जाती. इस दुनिया के सारे युवा पुरुष इसी घास का रूप ले कर मेरे चरणों में लेटे हैं, मैं ऐसी ही कल्पना किया करती : मन में अकारण ही एक दर्द सा अनुभव होता.’
‘भईया के एक मित्र शशिशेखर जब मेडिकल पास कर के वापस आये तब वो ही हमारे फैमिली डॉक्टर बन गए. मैंने उन्हें पहले भी कई बार छुप कर देखा था. भईया बहुत ही अजीब व्यक्ति थे—दुनिया को वो पूरी तरह आँखे खोल कर नहीं देखते थे. उन्हें लगता था इस संसार में खाली जगह है ही नहीं इसलिए दूर एक प्रांत में जा कर आश्रय लिए थे.’
‘उनके मित्रों में ये मित्र शशिशेखर, बाहर के इतने युवकों में मैं इन्ही शशिशेखर को ही हमेशा देखा करती थी क्योंकि और किसी का आना जाना नहीं था. और जब मैं शाम को फूलों के पेड़ तले साम्राज्ञी का आसन ग्रहण करती तब दुनिया के सारे पुरुष इसी शशिशेखर का रूप धर मेरे पैरों तले आ बैठते— सुन रहे हो? क्या लग रहा है?’
मैं गहरी सांस ले कर बोला, ‘सोच रहा हूँ शशिशेखर बन कर ही अगर जन्म लेता तो अच्छा होता.’
‘आगे की पूरी कहानी सुनो.’
‘एक दिन मौसम के बदलाव के कारण मुझे बुखार हो आया. डॉक्टर मुझे देखने आये. वो ही हमारी पहली मुलाकात थी.’
‘मैं खिड़की की ओर मुंह किये हुए थी, शाम की लालिमा चेहरे पर पड़ रही थी जिससे बीमार चेहरे की मलिनता दूर हो गयी लग रहा था. डॉक्टर ने कमरे में आ कर मेरे चेहरे की ओर जब एक बार देखा, तब मैं मन ही मन खुद को डॉक्टर की जगह रख कर कल्पना में खो गयी और डॉक्टर बन कर खुद अपने चेहरे को ही निहारने लगी. उस शाम की हलकी रौशनी में कोमल तकिये पर फूल जैसी कोमल लड़की लेटी है. उसके ललाट पर बालों के घुँघर बन बिखरे पड़े है और उसकी बड़ी बड़ी आँखों की पलकें उसके गालों पर जैसे छाया की हुई हैं.
‘डॉक्टर धीरे से भईया को बोले, ‘एक बार हाथ देखना होगा.’
‘मैं कम्बल के अन्दर से अपनी सुगठित कोमल बांह बाहर कर के बढ़ा दी. एक बार अपने हाथों की ओर देख कर सोची अगर नीले रंग की चूड़िया पहनी होती तो कितना अच्छा लगता. नाड़ी देखने में डॉक्टर का इतना संकोच पहले कभी नही देखा था. किसी तरह कांपते हाथों की उँगलियों से नाड़ी देखना हुआ. फिर बुखार कितना है इसका भी जायजा लिया. मैंने भी उनके भीतर नाड़ी कितनी तेज़ चल रही है इसका कुछ आभास पाया. – विश्वास नहीं हो रहा?’
मैं बोला, ‘अविश्वास का कोई कारण तो नहीं दिख रहा, ये तो सच ही है कि इंसान की नाड़ी हर समय एक गति से नहीं चलती.’
‘समय के साथ और भी दो एक बार बीमारी और इलाज में पड़ कर देखा, शाम को मेरी काल्पनिक सभा में असंख्य पुरुष संख्या का धीरे-धीरे ह्रास हो गया और उसके स्थान पर सिर्फ एक ही चेहरा आ कर ठहर गया. मेरी दुनिया लगभग जनशून्य हो आई थी. मेरी दुनिया सिर्फ एक डॉक्टर और एक रोगिणी पर आ कर ठहर गयी.’
चित्र गूगल से प्राप्त

‘शाम को सबसे से छुपा कर मैं एक पीले रंग की साड़ी पहनती, सुंदर से जुड़ा बना कर उस पर खूब सारे बेली फूल का गजरा लगाती और एक ऐनक ले कर अपने बागीचे में चली जाती, वहाँ जी भर कर खुद को निहारती.
‘क्यों. खुद को देख कर क्या तृप्ति नही होती! वास्तव में नही होती. क्योंकि, मैं तो खुद को खुद के नज़र से नही देखती थी. मैं तब अकेली नहीं दो होती थी. मैं तब डॉक्टर बन के खुद को देखती , मुग्ध होती, और प्यार भी करती, लेकिन फिर भी मन के अन्दर दीर्घश्वास शाम को चलने वाली हवा की तरह हु हु कर उठती.
‘उस समय मैं कभी अकेली नहीं होती. जब चलती नीची नज़रों से देखती मेरे पैर की उँगलियाँ धरती पर पड़ती हैं तो कैसी लगतीं हैं. और सोचती कि इस तरह पड़ते पाँव हमारे नए डॉक्टर बाबू को कैसे लगतेहैं! खिड़की के पार सब ओर सन्नाटा लगता. कहीं कोई आवाज़ नही, बीच बीच में एक-दो चील दूर बहुत दूर आकाश में उड़ी चली जाती दिख जाती थी; और हमलोगों के बगीचे के प्राचीर से दूर खिलौनेवाले की आवाज़ सुनाई देती, सुर में चिल्ला कर कहता... ‘खिलौने ले लो, चूड़ी ले लो’ एक हाथ बड़े ही अनादर से कोमल बिस्तर पर फैला कर सोचा करती, मेरे इस तरह फैले हाथ को न जाने कौन देख गया. जाने कौन अपने दोनों हाथों से इस हाथ को हाथों में ले लिया. जाने कौन इस आरक्त हथेली पर एक चुम्बन रख कर हाथ फिर यथास्थान रख कर आहिस्ते से  चला जा रहा है. --- मान लो कहानी अगर यहीं पर ख़त्म हो जाये तो कैसा लगेगा?’
मैं बोला, बुरा नहीं होगा. कुछ चीजें अधूरी ही रह भी जाती हैं ; लेकिन जो बाकी है उसे अपने मन से ही पूरा कर लिया जा सकता है जिससे बाकी बची रात भी कट ही जाये.’
‘लेकिन ऐसा हुआ तो ये कहानी फिर गंभीर रूप ले लेगी, फिर इसमें हंसी या उपहास जैसा कहाँ बाकी रह जायेगा! इस शरीर का कंकाल अपने सारे दन्त-पंक्ति निकाल कर दिखाता ही कहाँ है!’
‘उसके बाद सुनो. थोड़ा समय गुज़रते ही डॉक्टर शशिशेखर की डॉक्टरी चलने लगी, हमारे घर के निचले तल्ले में ही डॉक्टर अपना क्लिनिक खोल लिए. तब मैं उन्हें कभी-कभी हंसी-हंसी में दवाइयों के बारे में, ज़हर के बारे में, क्या करने से इंसान सहज ही मर सकता है, इन सब के बारे में पूछा करती थी. डॉक्टरी के बारे में बाते करते रहने से बहुत सहज ही डॉक्टर का मुंह खुल जाता था. सुनते जानते ऐसा अनुभव होने लगा मानो मृत्यु जैसे कोई परिचित या घर में रहने वाला सदस्य ही लगने लगी थी. मैंने सिर्फ प्रेम और मृत्यु को ही भुवनमय देखा. ‘
‘मेरी कहानी अब खत्म होने को आई और ज्यादा बड़ी नहीं है.’
मैं धीमे स्वर में बोला, ‘रात भी अब खत्म होने को आई.’
‘थोड़े दिनों से देख रही थी कि डॉक्टर बाबू थोड़े अनमने से नज़र आते थे. और मुझे ये बहुत ही अजीब लगता. एक दिन देखा वो बहुत साज सज्जा के साथ भईया के पास आये उनसे उनकी बग्घी उधार लेने, उन्हें रात में कहीं जाना था.’
‘मुझसे और रहा नहीं गया, सीधे भईया के पास पहुँच गयी और इधर-उधर की बात करते हुए पूछ लिया, हाँ दादा, डॉक्टर बाबू आज बग्घी ले कर कहाँ गए?’
संक्षेप में दादा बता दिए, ‘मरने’.
मैं बोली, ‘नहीं सच बताओ न.’
थोड़ा ही बताये, इस शादी से डॉक्टर को बारह हज़ार रुपये मिलेंगे.
‘लेकिन ये सब मुझसे छुपाने का तात्पर्य क्या, मैं क्या उनके पाँव पकड़ कर विनती कर रही थी कि ये विवाह मत कीजिये. ये काम करने पर मेरी छाती दुःख से फट जाएगी. पुरुषों को विश्वास करने का कोई उपाय नहीं. इस धरती पर मैंने सिर्फ एक ही पुरुष देखा है और एक ही क्षण में सारे ज्ञान की उपलब्धि हो गयी.’
‘डॉक्टर शाम को जब रोगी देख कर घर में आये तो मैं बहुत हँसते हुए बोली, ‘क्या डॉक्टर बाबू, सुना है आज आपकी शादी है?’
‘मुझे इतना हँसते हुए और खुश देख कर डॉक्टर सिर्फ अवाक हुए ऐसा नहीं, बल्कि दुखी भी हो गए.’
‘उनसे पूछा, ‘बाजा-बारात कुछ नहीं क्यों?’
‘सुनकर थोड़ा भारी श्वास लेते हुए बोले- शादी क्या इतना ही आनन्द-उत्सव का विषय है?’
सुनकर मैं हँसते-हँसते बेदम हो गयी. ऐसी बात पहले तो कभी नहीं सुनी. मैं बोली, क्यों नहीं, अभी तो बाजा चाहिए, रौशनी होनी चाहिए.’
‘भईया को इतना तंग कर दिया इस विषय को ले कर कि वो भी तब-के-तब सारी व्यवस्था-आयोजन करने में व्यस्त हो गए.’
‘मैंने सिर्फ एक ही बात करनी शुरू कर दी थी कि, दुल्हन घर में आएगी तो क्या-क्या करुँगी. डॉक्टर से पूछा, ‘अच्छा डॉक्टर बाबू शादी के बाद भी क्या आप इसी तरह रोगियों की नाड़ी देखते फिरेंगे.
‘हिहिहिहि, यद्यपि  इंसान का मन विशेषकर पुरुष का मन तो कभी दिखाई नहीं देता, फिर भी मैं कसम खा कर कह सकती हूँ कि ये बात उनके मन में शूल की तरह बिध गयी थी.’
‘देर रात शादी का लग्न था. शाम को डॉक्टर बाबू छत पर बैठ कर भईया के साथ दो एक पेग शराब पी रहे थे. दोनों को ही इसका अभ्यास था. धीरे धीरे आकाश में चाँद निकल आया.’
‘मैं हँसते हँसते हुए आई और बोली, ‘डॉक्टर बाबू भूल गए क्या, यात्रा का समय हो गया है.’
‘यहाँ एक बहुत ही सामान्य सी बात कहना बहुत ज़रूरी है. इस बीच मैं दवाखाना जा कर थोड़ा पाउडर इकठ्ठा कर लायी थी और उसी पाउडर का थोड़ा सा भाग सबकी आँख बचा कर डॉक्टर के गिलास में मिला दिया था. कौन सा पाउडर खाने पर इंसान की मृत्यु हो सकती है, ये डॉक्टर से ही सीखा था.’
डॉक्टर ग्लास में बची शराब गले में ढाल कर थोड़ा भीगे स्वर में मुझसे बोले, ठीक है तब चलता हूँ.’
‘शहनाई बजने लगी, मैंने एक बनारसी साड़ी पहनी, जितने भी गहने मेरे संदूक में थे सब निकाल कर पहन लिया, मांग में सिंदूर भरा. मेरे उस बगीचे के बकुल पेड़ के नीचे बिस्तर बिछाया.’
‘रात बहुत सुन्दर थी. चाँद की रौशनी से आकाश चमक रहा है. सोती हुई दुनियाँ की सारी क्लान्ति दूर कर देने वाली दक्षिणी हवा धीरे धीरे बह रही है. जूही और बेली फूल की खुशबु से पूरा बगीचा महक उठा है.’
‘शहनाई की आवाज़ जब क्रमशः दूर होती गयी. ज्योत्सना जब अँधेरे में बदलने लगी, जब ये पेड़-पत्ते, आकाश, पृथ्वी, घरद्वार, सब कुछ जैसे माया की तरह धीरे-धीरे विलीन होने लगी, तब मैं अपनी आँखों को बंद कर मुस्कुरा उठी.’
‘इच्छा थी कि जब लोग मुझे देखने आयें तो मेरे होठों पर ये नशा मिश्रित हंसी लगी रहे. इच्छा थी कि जब मैं अपने कोहबर में प्रवेश करूँ तो कम से कम चेहरे की इस हंसी को साथ ले कर ही प्रवेश करूँ.  कहाँ मेरा वो कोहबर! कहाँ वो शादी की साज-सज्जा! अपने भीतर ठक-ठक की आवाज़ से जाग कर देखा, मुझे ले कर तीन बच्चे अस्थिविद्या सीख रहे हैं! छाती के जिस हिस्से में सुख-दुःख धुकधुक करते थे और यौवन की पंखुड़ियां धीरे-धीरे खुल रही थीं, वहां छड़ी से दिखा कर कौन सी अस्थि को क्या कहते है मास्टर सीखा रहा है. और, जो अंतिम हंसी होंठो पर लिए हुए थी, उसका तो नामोनिशान तक नहीं रहा.’
‘कहानी कैसी लगी?’
मैं बोला, ‘कहानी तो बहुत अच्छी लगी.’
और तभी कौवे के बोलने की आवाज़ सुनाई पड़ी. मैंने पूछा, अभी भी यहाँ हो क्या?’ कोई जवाब नहीं मिला.
घर के अन्दर भोर की किरणों ने प्रवेश ले लिया था.
समाप्त

3 comments:

  1. बांग्ला साहित्य के अनमोल रत्नों से परिचित कराने का काफी सराहनीय प्रयास है आपका...

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  2. बहुत ही बढ़िया

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