Wednesday, 13 September 2017

प्राचीन अपराध : बलात्कार




विषय कुछ नया नहीं बल्कि सदियों पुराना है. युद्ध और कब्ज़ा करने के युग का जब आरम्भ हुआ होगा शायद तब से ही बलात्कार होते चले आ रहे हैं. भारत में हमेशा से माना जाता रहा है कि बलात्कार तभी होता है जब स्त्री कि सहमति होती है या वही उत्तेजित करती है. उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है इसलिए लांछना और सज़ा भी स्त्री को ही मिलती है.
क्यों भूल गये? अहिल्या को भी तो पत्थर बन जाना पड़ा था व्यभिचार का आरोप ले कर, जबकि धोखा इंद्र ने दिया था.
राजनैतिक बलात्कार से बचने के लिए ‘सती’ होने की प्रथा चल पड़ी. उच्च कुलीन स्त्री को भी सती कर देने का प्रचलन हो गया. कारण था कहीं पति के अभाव में व्यभिचार करने लगे तो सर्वनाश हो जायेगा. कुलीन स्त्रियाँ तब घर से बाहर शायद ही कभी निकलती थीं, तो डर किसका था? ज़ाहिर है अपने ही सगे-सम्बन्धियों का! पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति को बहुत ही सहज लिए जाता रहा है, समझा जाता है कि पुरुष ग्रंथी की इसमें अहम भूमिका है इसलिए ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं. स्त्री ही इसके लिए दोषी है.
युग बदला क़ानून भी बने लेकिन बलात्कार के प्रति मानसिकता नहीं बदली परिस्थति चाहे कुछ भी हो यहाँ तक कि बाल शोषण में भी यही माना जाता है कहीं-न-कहीं उसकी इच्छा थी तभी ऐसा हुआ.
बीसवीं सदी यूरोप में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का युग था. शुरुआत से ही बलात्कार को गंभीरता से नहीं लिया गया. बाद में जब इसके कारणों का विश्लेषण किया जाने लगा तब प्रतिपादित कर दिया गया कि स्त्री उकसाती है या इसकी कामना करती है तभी बलात्कार होते हैं. यानी जो हमारे देश में पहले से प्रचारित था उसे उन्होंने थ्योरी बना दिया.
बलात्कार कितनी बड़ी त्रासदी और कितने व्यापक रूप में समाज में स्थापित है इस पर यकीं दिलाने में स्त्रीवादियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा. एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा था, बलात्कार कम या ज्यादा समझ बुझ कर की गयी वो धमकी है जो पुरुष महिलाओं को डर की स्थिति में बनाये रखने के लिए करते हैं.
मनोविश्लेषक निकोलस ग्रोथ ने 1979 में जेल में रह रहे सौ बलात्कारियों का अध्ययन कर अपने रिपोर्ट में लिखा था, बलात्कार के मुख्यतः तीन कारण होते हैं – sadism, anger or the desire of power यानी कुछ अपवाद छोड़ कर ज्यादातर बलात्कार यौनेच्छा से प्रेरित नहीं होती बल्कि ऐसा अपराध है जिसमें व्यक्ति को शारीरिक मानसिक पीड़ा दे कर दबाव में रखा जाता है, सबक सिखाने और आत्मतुष्टि का आनंद पाने के लिए होता है.
बेरहमी, स्वार्थ और लैंगिक भेद एक पुरुष को बलात्कारी में परिवर्तित कर देता है. हम यदि मान भी लें कि लैंगिक भेद मिटा दिया जायेगा तो भी स्वार्थ और नृशंस भाव से व्यक्ति आज तक उबर नहीं पाया. ऐसे में कानून बनने के बावजूद बलात्कार कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं.
आज हम ऐसे समय में पहुँच गये हैं जहाँ अख़बार ऐसी खबरों से ही भरे रहते हैं. अपराधी अब गैंग में होते है. पीड़िता को मार डालने में भी कोई डर या संकोच नहीं होता. ऐसे कृत्यों के साथ अब नया आयाम जुड़ा है तकनीक का. अब बलात्कारियों के पास बलात्कार सिर्फ ताकत दिखाने का ही जरिया नहीं बल्कि विडियो और फोटो वायरल कर पैसे कमाने का भी जरिया है. समाज में कुछ लोग ऐसे भी है जो ऐसे जघन्य यौनिक हिंसा के विडियो देखना बहुत पसंद करते है. एक बड़ा बाज़ार रियल रेप विडियो का है.
हम सोचते हैं क़ानून बनने और जागरूकता फैलाने के प्रयास के बावजूद ऐसे हादसे रुकना तो दूर कम होने का भी नाम क्यों नहीं ले रहे? तस्वीर बिलकुल साफ है – समाज में परपीड़ा से आनंद पाने वालों की संख्या कुछ कम नहीं, यही इसका असल कारण है. बलात्कार सिर्फ एक व्यक्ति पर हुए हमले का मुद्दा नहीं बल्कि उसकी पहचान छीन लेने का अपराध है. साथ ही सामाजिक सुरक्षा का भी प्रश्न है. आज हर परिवार अपने बच्चों और महिलाओं के प्रति अत्यंत असुरक्षा के भाव से आतंकित है. बलात्कार पर काबू नहीं पाया जा रहा लेकिन पीड़ित के प्रति संवेदना ज़रूर होनी चाहिए. पुलिस की भूमिका सबसे अहम है तुरंत कार्यवाही और सुनवाई के बाद सज़ा के लिए चार्जशीट जल्द ही प्रस्तुत करना होगा. सरकार द्वारा पीड़िता को पुनर्वास के लिए सहायता राशि भी प्रदान की जानी चाहिए.
क़ानून तो है बस तत्परता और संवेदना की अत्यंत आवश्यकता है. सारी घटनाओं के पीछे स्त्री को निम्न समझने की मानसिकता प्रमुख है इसे बदलने के लिए बचपन से ही नींव डालनी होगी.





Friday, 1 September 2017



तकनीक की साया  

1985-87 में एक अंग्रेजी धारावाहिक “small wonder” प्रसारित हुआ करता था। उसी का हिंदी रूपांतरण लगभग एक दशक बाद किया गया। दोनों ही सीरियल काफी लोकप्रिय हुए। मैं भी बड़े चाव से देखती थी। एक लड़की जो देखने में बिल्कुल आम दूसरी लड़कियों जैसी है लेकिन उसके काम इतने असाधारण कि वो कारनामों में तब्दील हो जाते। दरअसल वो लड़की ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ का एक नमूना थी जिसे उसके सृजक वैज्ञानिक अपने घर ले आते हैं और अपनी बेटी बता कर दुनिया से उसका परिचय कराते हैं। बहुत मज़ा आता था उसके कारनामें और अड़ोस-पड़ोस की हैरानी देख कर।
80 के दशक में हमारे देश में ये सब तकनीकी क्षेत्र में कल्पनातीत था लेकिन यहां पर सत्यजीत रे की एक कथा शृंखला का ज़िक्र करूँगी जिसमें उन्होंने ऐसे ही एक रोबो मनुष्य की रचना की जो न सिर्फ हर कार्य में माहिर था बल्कि पृथ्वी से ले कर अन्य ग्रहों के प्राणियों तक की भाषा समझने में सक्षम था। सत्यजीत रे की कल्पना यहाँ तक जाती है कि उस रोबो को बनानेवाले वैज्ञानिक प्रो शंकू को भी ज्ञात नहीं कि उस रोबो में और क्या-क्या विशेषताएँ हैं! समय सापेक्ष वो सामने आता।
आज इन कथा कहानियों और कल्पनाओं को साकार करने में तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी जापान ने सफलता प्राप्त कर ली है।  जापान ने ‘साया’ नाम से एक ऐसी ही लड़की को अब दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। साया 16-17 साल की प्यारी सी जापानी लड़की है (दरअसल साया की कोई उम्र ही नहीं)। सड़क पर निकली तो कोई पहचान ही नहीं पाया कि वो रोबोट है। सिर्फ चेहरा ही नहीं उसमें अच्छी लड़की के सारे गुण प्रोग्राम किये गए हैं, नैतिक मूल्यों की भी उसे समझ है। साया फेसबुक अपडेट कर सकती है, ट्विटर भी हैंडल करना जानती है। जल्द ही साया की छोटी मोटी खामियों को दूर कर उसे आम लोगों के बीच लाया जाएगा। जिन्होंने इसे डिजाइन किया उनका सपना जाने कितने ही लोगों को रोमांच का अनुभव कराएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। 
दुनिया मे तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उपलब्धि इंसान को श्रेष्ठता के चरम शिखर पर ले जा रही है। इंसान मशीन के ज़रिए अपनी हर समस्या का हल चुटकियों में निकाल सकता है। एक बटन दबाते ही मानो आसपास के वातावरण और परिस्थिति मानव की मुठ्ठी में।  इन सब सुविधाओं और सुख के एवज में इंसान को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है और आगे और भी ज्यादा चुकनी होगी।
इन मशीनों के ज़रिए सारे काम पूरे कराने में धीरे-धीरे क्या हम ही इन मशीनों के गुलाम नहीं हो गए? इतने चमत्कारिक उजले तकनीकी दुनिया का स्याह पक्ष भी है- हम अपनी प्रकृति से उसकी पहचान छीन रहे हैं। इंसान अपनी स्वाभाविक भावनात्मक सम्बन्धों,संवेदनाओं को भी यांत्रिक बनाता जा रहा है। जापान जैसे उन्नत देश के युवाओं को एक-दूसरे में कोई रुचि नहीं। वो सिर्फ मनोरंजन या वासनापूर्ति के लिए करीब आते हैं, आपसी संबंधों से अधिक उन्हें कंप्यूटर और एनीमेशन से रिश्ता बनाये रखना रुचिकर लगता है। जापान का ही एक छोटा सा वीडियो क्लिप देखा जिसमें अंतिम संस्कार भी रोबोट द्वारा सम्पन्न किया जा रहा था, क्योंकि अब वहाँ के लोग पारम्परिक रिवाजों को नहीं निभाना चाहते और न ही उनके पास समय है। रोबोट द्वारा कार्य सम्पन्न कराने पर खर्च भी कम आता है।
कल्पना कीजिये साया जैसी लड़की तमाम मानवीय गुणों से युक्त हमारे बीच पहुँच जाती है। वो अकेलापन दूर करती है, हर प्रकार से मदद करती है। उसकी कोई आशा/अपेक्षा भी नहीं सिर्फ समय पर चार्ज कर देना है जैसा कि हम अपने फोन के साथ करते हैं, तो निश्चित ही वो आपके सपनों की परी हो जाएगी। तब उसे छोड़ कोई मानवी की ओर आकर्षित होगा? संभावना कम ही नज़र आती है। और फिर एक ‘टर्मिनेटर’ जैसे यांत्रिक मानव  का भी उदय होगा जो सब कुछ तहस-नहस करने हमारे बीच आएगा। तब क्या होगा? क्या मनुष्य अपनी ही बनाई मशीनों के बीच अपना अस्तित्व बचा पायेगा?

अपने समतुल्य बुद्धि और रचनाशीलता की शक्ति एक यान्त्रिक मानव में डाल देने के बाद  उसका गुलाम हो जाना पड़े तो आश्चर्य नहीं।
अभी तक जितनी तकनीकों का विकास हुआ है उनसे हमें जितना लाभ मिला है, उतना ही हमारे शरीर को नुकसान भी पहुँचा है। औसत आयु बढ़ी है लेकिन बहुत ही कम उम्र से ही हम दवाओं पर निर्भर हो जाते हैं। शरीर बीमारी का घर बन चुका है।
समाज में जितना ज़ोर विकास के नाम पर मशीनीकरण पर दिया जा रहा है उसका एक शतांश भी प्रकृति, प्राकृतिक नियम और मानवीय मूल्यों को दिया जाता तो ‘साया’ सिर्फ किस्से कहानियों का ही हिस्सा होती। उचित होता कि यंत्रों को यांत्रिक कार्यों में ही लगाया जाता- यांत्रिक मानव बनाने के प्रयास न होते।