Tuesday, 20 September 2016

एसिड अटैकर की डायरी


कहीं पढ़ा था शरतचंद्र ने अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना “देवदास” के बारे में लिखा था कि उन्हें अफ़सोस है उन्होंने देवदास जैसे चरित्र की रचना की।
शायद समाज को देव जैसे चरित्र का परिचय नायक के रूप में नहीं देना चाहते थे लेकिन कालांतर में देखिये यही सबसे पसंदीदा चरित्र बन गया यही नहीं प्रेम अस्वीकार किये जाने पर पारु को गुस्से में चोट पहुँचाने को भी प्रेम की अभिव्यक्ति ही समझा गया।कुछ पुरुषों में ऐसी मानसिक विकृति हमेशा से रही है चाहे वो उपन्यास का चरित्र ‘देब’ हो या  आज का एसिड अटैकर!

सुनो पार्वती, इतना सुंदर होना अच्छा नहीं। अहंकार बढ़ जाता है। गले का स्वर थोड़ा नीचे कर के बोला, देखती नहीं, चाँद का ऐसा रूप है तभी तो उस पर भी कलंक का काला दाग है; कमल इतना सफ़ेद है तभी तो काला भंवरा उस पर बैठा रहता है। आओ, तुम्हारे चेहरे पर भी थोड़ा दाग लगा दूँ।
.... वो अपनी मुट्ठी में मछली मारने की बंसी कस कर पकड़ा और ज़ोर से घुमा कर पार्वती के माथे पर आघात किया; तुरन्त ही माथे से ले कर बायीं भौं के नीचे तक चीर गया। देखते ही देखते पूरा चेहरा खून से भर गया।
पार्वती ज़मीन पर गिर पड़ी और बोली, देबदा, ये क्या किया!
.... छी! ऐसा मत करो पारू।
शेष-विदा के क्षणों में बस याद रखने जितना एक चिन्ह छोड़े जा रहा हूँ।ऐसा सोने जैसा चेहरा कभी-कभी तो आईने में देखोगी न?....

ऊपर लिखा संवाद कितने ही लोगों ने पढ़ा होगा। क्या किसी ने कभी देवदास को विलेन करार दे कर उसे कितने साल जेल कितनी बार फाँसी होनी चाहिए इस पर कोई व्यख्यान दिया है? कभी फेमिनिस्टों को लगा, ये एक नारी के प्रति नर का अत्याचार है? या कि सभी ने इसे एक प्रेमी का प्रेमिका के प्रति व्याकुल उन्माद प्रेम-चाबूक के तौर पर ही स्वीकार लिया। या कि प्रेम की महान खुजलीज्वाला का प्रतिक स्वरुप, पाने की इच्छा और न पाने की वेदना के कॉकटेल के तौर पर, अपने अधिकारबोध और दूसरे पक्ष के अस्वीकार्यता के धक्के से दिशाज्ञानशून्य अक्रोशी प्रेम रूप मान कर पाठकों के हृदय में स्वर्णाक्षर में छप गयी और ब्लॉकबस्टर हिट फ़िल्म की अमर पोस्टर बन कर दर्शकों के मानसपटल पर हमेशा के लिए छा गयी!

अगर ऐसा ही है तो मेरे समय में इतनी काई-किचिर क्यों मची है? मैंने तो बस इसी सीन को थोड़ा सा बढ़ा-चढ़ा लिया है। बंसी की जगह एसिड। थोड़ा सा दाग करने की बजाय पूरे चेहरे को जला कर वीभत्स कर दिया .... सिर्फ डिग्री का फर्क है, लेकिन उद्देश्य तो एक ही है।

फॉलो करते हुए रांची से धनबाद फिर वहां से मुम्बई पहुँच गया। उसके आने-जाने के समय पर थोड़ा नज़र रखने के बाद एक दिन बस स्टैंड पर ही उसके चेहरे पर एसिड फेंका। फेंकना ही पड़ा क्या करता! वो मेरे पड़ोस में रहती थी मैं उसके प्यार में पागल था, उसे प्रेम प्रस्ताव दिया लेकिन उसने लौटा दिया।
इतनी हिम्मत उसकी! नहीं.... नहीं!
हिम्मत से भी ज़्यादा उसकी इतनी निर्दयता, असंवेदनशीलता। मैं उसके लिये रो-रो कर आँखे अंधी कर ले रहा हूँ, रात भर जाग कर छटपटाता रहता हूँ, उसकी याद में न किताबें पढ़ पाता हूँ और न ही सिनेमा देखने में दिल लगता है.... तो क्या वो एक बार मेरी हालत पर नज़र भी नहीं डालेगी?
जब मैं कह रहा हूँ कि तुमसे प्यार करता हूँ तब कितना कमज़ोर और कितना असहाय हो कर खुद को उसके सामने झुका कर कहता हूँ! प्यार में इतना असहाय हो कर लड़का आये और जो लड़की उसे लौटा दे, उसके अंदर क्या इंसान का दिल हो सकता है? या कि लोहे का टुकड़ा रखा है? जिसमे परिकथा का वो आईना बंधा है जिसमे सिर्फ अपना ही सुंदर चेहरा दिखता है किसी और की छाया भी नहीं पड़ती। पड़ोस का एक लड़का उसके लिए तड़प-तड़प कर मरा जा रहा है ये देख कर भी जिसके दिल में दया नहीं आती, उसके चेहरे का ऐसा सौंदर्य दरअसल उसके काले कुत्सित अहंकारी मन का स्क्रीन सेवर भर ही है।

समझ में नहीं आता लड़कियों को इतना घमण्ड आखिर किस चीज़ का है? लड़के प्रपोज़ करते हैं तो वो लोग कैसे “ना” बोल देती है?
हमारे देश की जो महान प्रथा है—रिश्ता तय कर के विवाह होना.... वहां तो न बोलने का कोई प्रश्न नहीं उठता। माँ बाप जिसे पसंद कर दें उसी के गले में माला पहनाना ही पड़ता है। हाँ आजकल कुछ मोडर्न बनी फॅमिली में लड़की की इच्छा भी पूछ लेते है लेकिन असल में सिस्टम ऐसा नहीं है। परिवार जिसे अच्छा समझेगा तुम्हे उससे ही प्रेम करना होगा। ये तो खूब मान लेती हो, और प्रेम-प्रस्ताव मान लेने में बुखार आने लगता है?

 रिश्तेवाली, शादी में तुम एक प्रेमविहीन सम्बन्ध में आराम से प्रवेश कर जा रही थी, कि बाद में प्रेम करना सीख लोगी और यहां तो फिफ्टी परसेंट प्रेम हुआ ही पड़ा है बाकि फिफ्टी परसेंट तुम बाद में सीख लोगी सोच कर घूमना-फिरना शुरू नहीं कर सकती हो? उपन्यास और फिल्मों की तरह का प्रेम कितनों को नसीब होता है जहां एक बिजली चमकते ही दोनों के दिल एकसाथ धड़क उठे और प्यार हो जाये?

ज़्यादातर तो ऐसा ही होता है, एक जन प्रेम करेगा दूसरा उसके आग्रह को समझ धीरे-धीरे उसकी इच्छा को अपनाने लगेगा। तो फिर जब मैंने शादी की बात रखी तो तुमने ”ना” क्यों कहा? मैं नौकरी नहीं खोजता, सुंदर नहीं इसलिए?
 ऐसा ही है तब तो तुम्हारी सोच दोगली है। सेफ-खेलना चाहती हो। तुम रुपया पैसा देख रही हो, सुरक्षा देख रही, बाहरी सुंदरता देख रही हो.... तब तो तुम्हे सज़ा मिलनी ही चाहिए।

सोच कर ही इतना अच्छा लगता है, मेरे जैसा, मैं अकेला नहीं, आज इस देश में हज़ार-हज़ार पुरुष मेरे भाई-बिरादर है जो लड़कियों पर एसिड फेंक रहे। ये देश प्रेमियों का देश है। हमलोग टोंट करते हैं, पीछा करते हैं, हाथ भी पकड़ लेते हैं, सरेआम ज़बरदस्ती चुम्बन भी... विरोध करने पर पिटते हैं, एसिड फेंकते हैं बलात्कार भी करते हैं, क्योंकि हमने प्यार किया है। पागलों की भाँति प्यार बहुत प्यार! इसलिए मेरी इच्छा मुताबिक अगर मुझे वो नहीं मिलेगी तो उसे किसी और की भी नहीं होने दे सकता। मेरे प्यार को जिसने नहीं समझा, उसे कभी किसी और का प्यार नसीब न हों इसकी व्यवस्था भी मैं खुद करूँगा। ठीक है.... मुझे फांसी होगी लेकिन ये उत्तराधिकार रह ही जायेगा।

‘पारु बाद में मन ही मन बोली थी, देबदा! ये दाग ही मेरे लिए सांत्वना है, यही मेरा आधार। तुम मुझे चाहते थे तभी तो हमारे बाल्य-प्रेम का इतिहास मेरे ललाट पर लिख गए। वो मेरी लज्जा नहीं कलंक नहीं मेरे गौरव का साम्राज्य और मैं सम्राज्ञी।‘
एक्सक्टली! तुम्हे कोई इतना चाहता है, मरने की हद तक चाहता है उसका प्यार अब ज़िद बन चूका है एकमात्र उद्देश्य बन गया है, इसमें इतना चिढ़ने और परेशान होने से कैसे चलेगा बोलो?
इससे तो तुम्हे अपने अस्तित्व को ही धन्य समझना चाहिए। गर्व होना चाहिये! इंसान किसका होता है? जो प्रेम करे उसका ही न.... इसीलिए जिस लड़की को देख मेरा दिल तड़प उठा है वो निश्चित ही सिर्फ मेरी है। मुझे हक़ है,ज़रूरत पड़े तो मैं उसे श्रीहीन कर दूँ। इसके अतिरिक्त ईगो व्यक्ति का सर्वनाश कर देता है, एसिड इस अहं को गला कर रख देता है और लड़कियों को समझा देता है, ज्यों ही रूप चला जाये फिर उसका कोई मोल नहीं रह जाता। अब न उसे अच्छी नौकरी मिलेगी और न ही दूल्हा। उसे देखते ही लोग सिहर उठेंगे और बच्चे चीख कर रो पड़ेंगे। इस महादहन के बाद ही नारी अपना सही स्थान समझ पायेगी। सत्य यही है स्त्री का सम्मान पुरुष की मुग्धता में ही है, उसका स्थान पुरुष के कामुक आलिंगन में है। अगर यह अच्छी तरह समझ जाओ तो बस.....
एसिड टेस्ट पास हो गयी......

Wednesday, 7 September 2016

डायरी.... किसकी? आप तय करें..



जिन्हें देख कर आपकी आँखों में, शब्दों में सहानुभूति और मन के गहरे तल
में डर और अपने इस स्थिति में न पहुँचने की प्रार्थना चलती हो क्या उनकी
डायरी पढ़ना चाहेंगे? आपकी रूचि का उसमें कुछ भी न मिले शायद गहरी
उदासीनता और अपने छोटे-छोटे कामों के लिए भी दूसरों की मदद पर निर्भर
जीवन में झाँकने जैसा कुछ भी तो नहीं लेकिन फिर भी इस शरीर में भी एक मन
है जो बिलकुल आपके ही मन के जैसा भावनाओं का आवेग उद्द्वेलित करता रहता
है।  जीवन के कुछ दिन और सामान्य लोगों जैसा बिताने के बाद एक हादसा जब
ज़िन्दगी बदल दे तब ......

मेरा नाम मंदिरा है, पेशे से डॉक्टर थी, अभी भी हूँ लेकिन अब मेरी सेवाओं
की दिशा बदल गयी है मेरा जीवन समर्पित है मेरे ही जैसे मेरे साथियों के
लिए. अब मैं उनकी सुनती हूँ और अपनी सुनाती हूँ। अब मुझे टीवी पर भी अपने
व्हील चेयर के साथ टॉक शो पर जाने में संकोच महसूस नहीं होता। मैं अपनी
रोज़मर्रा की परेशानी, उस पर काबू पाने के बेहतर तरीके और आत्मनिर्भर बनने
के कौशल पर खुल कर बात करती हूँ। जीवन यदि जटिल है तो उसे सरल बनाने के
प्रयास में लगे रहना ही मेरा मकसद है।

अच्छी भली ज़िन्दगी चल रही थी, पढाई खत्म कर के अभी कुछ ही दिन हुए
प्रैक्टिस शुरू की थी।  बहुत से सपने थे मेरे और अजित के। अजित डॉक्टर
नहीं, हम कॉमन फ्रेंड की पार्टी में दोस्त बने और जाने कब एक दूसरे के
लिए खास बन गये कुछ पता ही नहीं चला। शादी की डेट फिक्स होनी बाकी थी
लेकिन भविष्य के गर्भ में कौन सी डेट किसके साथ फिक्स है समय आने पर ही
पता चलता है। एक एक्सीडेंट और उसके बाद सारे डेट सारी प्लानिंग बदल गयी।
कल जो कुछ भी मेरा सच था आज वो सब अतीत के साथ दफन हो गया.
होश आया तो अपने ही हॉस्पिटल के एक बेड पर पड़ी थी। कमर से नीचे का हिस्सा
बेकार हो गया था, मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था. शरीर का निचला
हिस्सा जितना सुन्न हुआ था मन उतना ही चंचल हो उठा था। जो कुछ बचा है
उसके खो जाने के डर से मैं मर रही थी, लेकिन उससे क्या होता है होना वही
था जो तय था। मुझसे बेहद प्यार करनेवाला अजित मुझे छोड़ कर चला गया।

नयी शुरुआत ऐसी थी जैसे नये जन्मे बच्चे के लिए नयी दुनिया। वार्धक्य की
चुनौती से लड़ते हुए मेरी माँ ने मुझे फिर से संभाला। मैं लाचार बेबस खुद
एक ग्लास पानी तक नहीं ले सकती थी, कब टॉयलेट जाने की ज़रूरत है ये तक
महसूस करने की क्षमता खो गयी थी। हर वक्त माँ ने छोटे बच्चे की तरह
संभाला।
माँ ने मेरी सबसे पसंदीदा चीज़ मेरी आँखों के सामने से दूर कर दी थी, मेरी
नजरें उन्हें खोजतीं लेकिन पूछ नहीं पाती थी... माँ भी समझती मैं क्या
खोज रही हूँ लेकिन वो भी अनजान बने रहने का नाटक करती। मुझे क्रेज़ था
लेटेस्ट डिजाईन के सैंडल्स का, पर अचानक ही उनकी ज़रूरत तो बिलकुल खत्म हो
गयी अब सिर्फ मैं और मेरा व्हील चेयर .......

जीवन के बदलाव को मैंने स्वीकार किया खुद को कठिन संघर्ष के लिए मजबूत कर
लिया और फिर वो दिन भी आया जब मेरा सबसे बड़ा सहारा मेरी माँ इस दुनिया से
चली गयी। माँ चली गयी लेकिन जाते -ते मुझे आत्मनिर्भर बना गयी,
‘आत्मनिर्भर’ पढ़ कर क्या सोचने लगे आप! हमारे लिए ये शब्द कितना
उपहासपूर्ण है.. है न! पर यही सच है। आज अपने घर में अकेली रहती हूँ,
अपनी गाड़ी भी खुद चलाती हूँ. आधुनिक तकनीकों ने मुझे बड़ा सहारा दिया.
मेरे सुन्न हो चुके जीवन को फिर से स्पंदन मेरे उद्देश्य से मिला।
अब मैंने अपनी सीमित हो चुकी डॉक्टरी क्षमता को ‘डिसेबल्ड ट्रेनिंग
प्रोग्राम’ से जोड़ कर असीमित कर लिया था। आज मेरे साथियों के लिए मेरा
जीवन प्रेरणा है अवसाद की शुन्यता से सुन्न हो चुके जीवन में आशा की किरण
है।
रोज ही नये साथी आते हैं।  मन की कहते हैं, मैं उनके साथ अपना दुःख भूलती
हूँ और उन्हें भुलाने में मदद करती हूँ, पर कॉन्फेशन करना चाहती हूँ
डायरी, तुम्हारे पास...... मैं कुछ नहीं भूल पायी। न वो रंगीन सपनों से
भरा जीवन और न ही अजित का मुंह फेर कर चला जाना और न ही लोगों की
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि जो सबसे अधिक चोट पहुंचाती हैं। दुनिया हमें दया
की दृष्टि से देखना चाहती है लेकिन हमसे प्यार नहीं कर सकती. सभी सोचते
हैं हमें प्यार से ज्यादा दया और दूसरी चीजों की ज़रूरत है। मैं रोज़ रोती
हूँ, खूब रोती हूँ लेकिन सुबह फिर से मुस्कुराते हुए अपने साथियों के पास
लौटती हूँ क्योंकि मैं प्रेरणा हूँ उनकी. प्यार के बिना कैसे जिया जाये
ये सीखना है उन्हें मुझसे।

कल पद्मा से मुलाकात हुई सड़क दुर्घटना में उसने अपना बच्चा खो दिया और
स्पाइनल कॉर्ड में चोट के कारण उसका जीवन भी व्हील चेयर पर आ गया।  घर के
लोग और पति सभी उसका ख्याल रखते थे लेकिन उसे महसूस होता कि पति पहले की
तरह उससे प्यार नहीं करता बस सहानुभूति के साथ निभाते जा रहा है। पद्मा
समझती है कि जब शरीर पहले जैसा नहीं रहा तो रिश्ता भी पहले जैसा नहीं
रहेगा लेकिन भावनाओं का क्या करे?  उसे तो रिश्ते के बदलते भाव से ही चोट
लग रही है। पद्मा माँ बनना चाहती है लेकिन किसी से ये बात कह नहीं सकती।
व्हील चेयर पर चल रही ज़िन्दगी पर दुनिया दया कर सकती है लेकिन उसे
सामान्य लोगों की तरफ कल्पना करते हँसते, गुनगुनाते और इच्छाएँ प्रकट
करते नहीं देख सकती।

व्हील चेयर पर चलती ज़िन्दगी के साथ ईगो, स्टाइल और मनमर्जियां माफ़िक नहीं लगती न!!
लेकिन जब वो मिला तो उसने मेरे बहुत सारे भ्रम तोड़ दिए। दुनिया उसे क्या
कमजोर और लाचार समझेगी वो सबकी इस आदत और इच्छा को धता बताते हुए ऐसे टशन
में रहता कि लोग उसकी स्टाइल को देखने के लिए मुड़-मुड़ कर देखते। दुबला और
अनीमिया से सफ़ेद पड़ा शरीर उसे और गोरा दिखाता था। चेहरे पर ऐसी मुस्कान
और बातों में इतना आत्मविश्वास- सुनकर लगता जैसे अभी व्हील चेयर छोड़ कर
उठ खड़ा होगा।

उसके पास हमेशा एक लैपटॉप रहता।  बात करता रहे या अपने बेड सोर की
ड्रेसिंग करवाए लैपटॉप हमेशा खुला ही रहता। नई चीज़ सीखने की ज़बरदस्त ललक
थी उसमें, झट सीख लेता था।  कानों  में बालियाँ, आँखों पर स्टालिश चश्मा
और मुंह में सिगरेट ये उसकी स्टाइल थी।  ‘ट्रेनिंग प्रोग्राम’ की ट्रेनर
मैं थी लेकिन सच तो ये है कि मैं उससे सीख रही थी अपने सारे दर्द और
संघर्षपूर्ण दिनों को कैसे दुनिया से छुपा कर खुल के हँसा जाता है, दोस्त
बनाये जाते हैं. कैसे वास्तव में जिया जाता है...
ट्रेनिंग के बाद भी कुछ देर बैठ कर वो रोज़ मेरे साथ बातें करता.... नहीं!
बल्कि उसकी रहस्यमयी बातें और आत्मविश्वास इतना आकर्षक था कि मैं ही उससे
बातें करने को रोक कर रखती। बहुत कुछ बताया उसने अपने बारे में, अपनी
इच्छाओं के बारे में भी।

अंशुमन बहुत अच्छा शूटर और कराटे में ब्लैक बेल्ट था। आपसी रंजिश में उसे
बुरी तरह मार कर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। वो मरा तो नहीं लेकिन मौत
से बदतर ज़िन्दगी हो गयी उसकी।
एक दिन उसने बताया जानती हो मैडम, आज मैं मॉल गया था कुछ लोगों का ग्रुप
मुझे गौर से देख रहा था, वो लोग मेरे कानों की बालियों पर बातें कर रहे
थे एक ने तो हद कर दी अपनी मोबाइल से मेरी फोटो लेने की कोशिश की। मैंने
देखा और उसके पास जा कर उसका फोन ले कर फेंक दिया।  क्या हम पिंजरे में
बंद जानवर हैं जिसे देख कर कोई हँसे, कोई बुलाये तो कोई उसकी फोटो खींचे?
क्या कहती हमदोनों का दर्द तो एक सा है.... उसके शब्दों से मेरा दर्द भी
टपक रहा था।
एक दिन उसने बताया जानती हो मैडम इन्टरनेट पर रोज़ ढूंढ़ता हूँ कहीं से कोई
लिंक मिले और पता चले कि मैं अब व्हील चेयर पर नहीं बल्कि पैरों पर खड़ा
हो सकता हूँ लेकिन देखो न जिस तरह व्हील चेयर मिलने के बाद गर्ल फ्रेंड
मिलनी बंद हो गयी उसी तरह किसी भी लिंक में ऐसा कोई मैजिक नहीं मिलता कि
मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं।

अपने पैरों पर चलने वाला आदमी अगर उसकी ये बात सुनता तो शायद कहता बाथरूम
जाने तक में मदद चाहिए और सपने गर्ल फ्रेंड के देखता है लेकिन मैं जानती
हूँ मन के पाँव कभी व्हील चेयर पर नहीं आते। वो हमेशा संगी/संगिनी की
तलाश में रहता है, कोई ऐसा जो उसे गले लगाए कहे ‘मुझे तुमसे प्यार है’।

उसकी बातें सुन कर मैं उसे गले लगा कर कहना चाहती थी ‘अंशुमन मैं हूँ
न...’ लेकिन हमदोनों के बीच दो व्हील चेयर की दूरी मुझे कभी ऐसा कहने
नहीं देगी।

अब अंशुमन ट्रेंड हो चुका है खुद ड्राइविंग करता है, अपने ज्यादातर काम
खुद करता है। अब वो यहाँ नहीं आता...
पता नहीं उसके सपने उसे कहाँ तक ले गए।

Sunday, 4 September 2016

भांति भांति के राधेश्याम



चित्र साभार गूगल से

भांति-भांति के राधे-श्याम 
ये आलेख फिल्मकार बुद्ददेब दासगुप्ता द्वारा बांग्ला में लिखी गयी है .....
पत्नी भाग जाये तो पुरुष का मान-सम्मान नहीं रह जाता, लेकिन पुरुष भी भाग जाते हैं दुसरे की पत्नियों के साथ. ईला का पति भाग कर जाता है बेला के पास बेला का पति पड़ोस की मुक्ति के साथ भाग जाता है दीघा, फिर लौट के नही आता. पिताजी के मित्र डॉ मंडल बहुत ही भले मानस थे, लेकिन पता नही कैसे एक दिन देखा उनके दादाजी के मोह्गनी की अलमारी में घुन लग गया है. ये कीड़े हजम कर गये डॉ की पैंट शर्ट बनियान उनकी पत्नी के ब्लाउज पेटीकोट सब. उनके घर के विपरीत दिशा में ही एक बढई की दूकान.थी. उसे बुला कर दिखाया गया उसने कहा सामने का पल्ला दोनों तरफ की लकड़ी और ताक सब बदलना पड़ेगा. डॉ. राज़ी हो गये आखिर दादाजी के स्मृति में रखी अलमारी का सवाल था. दुसरे दिन सवेरे ही अपनी थैली ले कर हाज़िर हो गया अधेढ़ उम्र का सूनी आँखों वाला एक लकड़ी का मिस्त्री.
करीब दो साल पहले ही डॉ. मंडल के बेटे की शादी हुई थी घर में आई एक सुंदर सी बहू और साल भर बाद ही एक प्यारा सा पोता. मैं तब क्लास टेंथ में पढता था. एक दिन सुबह उठ कर देखता हूँ पिताजी का मुंह लटका हुआ तनाव में माँ का चेहरा तो उनसे भी ज्यादा.... डॉ. मंडल की पुत्रवधू कहीं नही मिल रही और वो लकड़ी का मिस्त्री भी गायब है उसका थैला वहीँ पड़ा है जिसमे उसके सारे औजार है और बिस्तर पर पड़ा हुआ है डॉ. का छोटा सा पोता.
सारे मोहल्ले में थू थू होने लगी, चेम्बर और घर में ताला लगा कर डॉ, मंडल अपने बेटे पोता और पत्नी को को ले कर चले गये अपने पैतृक गाँव और फिर कभी लौट कर नहीं आये.
बहुत, बहुत साल बीत गये एक दिन किसी जगह से कोलकाता वापस लौट रहा था, रास्ते में एक छोटा सा बस्तीनुमा शहर पड़ा. वहां चाय पीने के लिए गाड़ी रोक दी. चाय और कुछ बिस्किट आर्डर करने जिस छोटे से दुकान जैसी जगह पर आया वहाँ एक औरत चाय बना रही थी उसे देखते ही मैं चौंक गया उसके पीछे एक बुढा बैठा हुआ बांसुरी बजा रहा था. मुझे चाय दे कर वो फिर से स्टोव पर चाय का पानी चढाने लगी वो महिला मतलब डॉ. मंडल के घर से भागी हुई उनकी पुत्रवधू. इतनी उम्र में भी , उस औरत का रूप लावण्य उसे छोड़ कर नहीं गया था इसका कारण शायद बांसुरी बजाता वो बुढा ही होगा, जो पेशे से बढई था. फिर चाय के लिए बोला, उसके बाद फिर एक कप उसके बाद और तीन कप चाय पीने के बाद मैंने अपना परिचय दिया. मैं बोला, पता है, बहुत कोशिश के बाद भी कोई ये कारण नहीं जान सका, सब कुछ छोड़छाड़ कर आप इस बूढ़े के साथ क्यों निकल गयी.
वो महिला धीरे धीरे बताने लगी, अलमारी ठीक करते समय ये काम के बीच बीच में बांसुरी निकाल कर बजाता था, बचपन से ही मुझे बांसुरी बजाने का शौक था लेकिन घर से किसी ने सिखने नहीं दिया. औरत जात बांसुरी क्या बजाएगी! शादी के बाद पति को बहुत मनाने की कोशिश करती रही की मुझे बांसुरी सीखने दो.. एक दिन थप्पड़ मार कर उसने भी सीखा दिया की बांसुरी मेरे लिए नहीं.
ये मिला तो इसने मुझे बांसुरी बजाना सिखाया. अभी तक सिखाता है. क्या होगा पक्का मकान और पेट भरने के तरह तरह के पकवानों से जबकि मेरा मन तो खाली ही रहता था. शाम को यहाँ हम दोनों मिल कर बांसुरी बजाते है, बहुत से लोग सुनने आते है, मन आनन्द से भरा रहता है.
पेरिस से लगभग चार घंटे लगते है वेसुल जाने में, अन्तराष्ट्रीय स्तर का फिल्म फेस्टिवल आयोजन होता है. जिसके संचालक मार्टिन और उसके पति जाँ-मार्क हैं. दोनों वेसुल में रहने के बावजूद एक दुसरे को बैंकोक में मिलने से पहले नहीं पहचानते थे. पटाया के समुद्र किनारे अकेली बैठी थी मार्टिन और वहीँ पास ही कहीं बैठा था अकेला जाँ- मार्क. उसके बाद पता नहीं कैसे विधाता की इच्छा से दोनों का परिचय हुआ. किससे शादी की जाए यही सोचते हुए दोनों के इतने सारे साल यूँ ही निकल गये थे. बातें करते करते दोनों को पता चला की वो दोनों ही पागलों की तरह सिनेमा से प्यार करते है. दोनों ही स्कूल में पढ़ाते हैं, सैलरी आदि जो मिलती है उससे किसी तरह चल जाता है लेकिन उससे ज्यादा नहीं. वेसुल लौट कर दोनों ने शादी कर ली, सिनेमा को साक्षी मान कर. उसके बाद हुआ एक सपने का जन्म. कोई सहारा नही सम्बल नही, अमीर यार दोस्त भी नही. है तो सिर्फ वो एक सपना.... वेसुल में फिल्म फेस्टिवल शुरू करना है. पता नहीं कैसे उन दोनों ने वेसुल में फेस्टिवल की शुरुआत कर ही दी. बहुत मान-अपमान,कहा-सुनी के बीच से भी फिल्म फेस्टिवल के सपने को उन्होंने आकार दे ही दिया.
उनके घर में ही फिल्म फेस्टिवल का ऑफिस था , एक दिन मैं इन्टरनेट पर काम कर रहा था वहीँ बैठ कर , देखा मार्टिन रोते हुए अंदर आई उसके आंसू थम नही रहे थे, पीछे पीछे जाँ भी आया. उसकी आँखों में भी पानी था लेकिन वो लगातार मार्टिन को सांत्वना दे रहा था. क्या हुआ? पता चला एक प्रसिद्ध म्यूजिशियन की रील अभी तक पेरिस से यहाँ नहीं पहुंची है. शो शुरू होने का टाइम साढ़े पांच था छह बजने को हैं. दोनों की आँखों के आंसू रुक नही रहे थे मैं चुपचाप बाहर चला गया.... उसी वक्त समझ गया था दोनों में से कोई किसी को छोड़ कर कभी नही जा सकेगा दोनों ही सिनेमाप्रेम के एक अद्भुत जंजीर से बंधे है.
करीब तीस साल पहले होनोलुलु में मेरी मुलाकात जेनेट पोलसन से हुई थी. जेनेट तब एयर होस्टेस थी लेकिन प्लेन में चढ़ते ही उसे रोना आने लगता. डर के कारण नही बल्कि जो करना चाह रही थी वो न कर पाने के दुःख में. उसने नाटक और सिनेमा से प्यार किया था. उसके घर जा कर देखा था नाटक कविता कहानी की किताबो और पोस्टर से घर भरा हुआ था. कुछ दिनों बाद सुना अपनी ये नौकरी छोड़ बैंक से लोन ले कर सिनेमा विषय पर यूनिवर्सिटी में पढाई करने गयी है जेनेट. जेनेट का पति था , बेटी थी पर कुछ था जो जेनेट का नहीं था.
विली, फिजी-आई लैंड का लड़का था. वहां से नाटक विषय पर पढने आया था होनुलुलू. होनुलुलू फिल्म फेस्टिवल से उस समय मैं भी जुड़ा हुआ था, करीब 6-7 बार जाना हुआ. जेनेट तब तक उस फिल्म फेस्टिवल की डायरेक्टर बन चुकी थी. हम दोनों ही अधेड़ उम्र के हो चुके थे, उसने मुझे बताया की वो विली से शादी कर रही है, पति से बहुत पहले ही separation हो चुका था. विली जेनेट से छब्बीस साल और जेनेट की बेटी से दो साल छोटा है. विली को तब जस्ट पढ़ाने का काम मिला था इस्ट वेस्ट यूनिवर्सिटी में और वो नाटक के लिए ग्रुप बनाने का काम भी कर रहा था.
आखरी बार जब होनुलुलू गया तब उनके घर पर ही ठहरा था. विली जब पढ़ाने चला जाता जेनेट तब अपने मन के डर की बात मुझसे कहती. विली तो अभी बहुत छोटा है एकदम जवान है कोई और लड़की आ कर उसे अगर मुझसे दूर ले जाएगी तो..... जेनेट की तो उम्र हो गयी है. एक शाम मैं और विली टहलने निकले. बहुत दूर तक हम निकल आये टहलते हुए, वहीँ एक पेड़ दिखा कर विली ने कहा था , जानते हो यही हमारी शादी हुई थी, और इसी पेड़ के नीचे हमने हमारा पहला नाटक खेला था.
अभी कुछ दिन हुए जेनेट ने इ-मेल कर के मुझे बताया की एक बिलकुल नया एक्सपेरिमेंटल काम शुरू किया है दोनों नें. जिसमे एकक अभिव्यक्ति के साथ घुलमिल गयी है सिनेमा के कुछ दृश्य, शब्द और उनके अपने जीवन की कुछ सत्य घटनाएं. जेनेट को अब और डर नहीं लगता.स्टेज उन दोनो को एक ऐसे मायाबंधन में बाँध रखा है जहाँ उम्र या दुसरे ऐसे किसी चीजों का कोई महत्व ही नहीं.
सपना प्यार खोजता है और प्यार सपने की तलाश में भटकता है. जो प्रेम, पसंदीदा काम के बीच पंख फैलाता है वो प्रेम सम्बन्ध स्मृति में रह जाता है हमेशा के लिए. यहाँ उम्र, रूप, समाज, देश कुछ भी फर्क नहीं ला सकता.
कुछ गलत कहा मैंने??