Monday, 7 November 2016

असफल की डायरी


असफल की डायरी





सफलता और असफलता का मापदण्ड नितांत ही निजी विषय है। कहते हैं न ‘मन के हारे हार और मन के जीते जीत!’
भले ही दुनिया उच्च पदस्थ होना या समाज में आर्थिक आधार पर सम्माननीय होना ही सफल होने का पर्याय माने लेकिन असली सफलता तो संतुष्टि में हैं।

सिक्के के एक तरफ सफलता है तो निश्चित ही दूसरी ओर असफलता होती है। हम सफल होतें है तो खुश हो जाते हैं, श्रेय कभी खुद तो कभी किसी करीबी को देते हैं लेकिन असफल होने पर इसका दायित्व या कारणों के मूल में हम कभी जा पाते है? शायद नहीं ... शोक इतना अधिक होता है कि मूल कारण पर ध्यान कभी नहीं जाता।

असफलता के कई कारण होते हैं। कभी-कभी हम राह ही गलत चुन लेते हैं शायद निर्णय में असावधानी जिसे हम बदकिस्मती भी कहते हैं। कई लोगों की असफलता की कहानी जानने के बाद मुझे सबसे बड़ा कारण ‘भय’ ही लगा।
अनिश्चित भविष्य का भय  हमारे मन पर ऐसा असर करता है कि सब कुछ सही होते हुए भी हम कुछ कदम गलत उठा ही लेते हैं और यही कदम हमें असफलता की राह ले जाता है। डर के कई कारण होते हैं जिन्हें कई बार सही तरीके से समझ भी नहीं पाते तो कभी पता ही नहीं चल पाता कि अपनी तरफ से सारी तैयारी और योग्यता होने बावजूद असफलता क्यों हाथ आई!
मेरे जीवन में कई मौके आये जहाँ मुझे मेरी पसंद का ही कार्यक्षेत्र मिला
लेकिन छोटे-छोटे अवरोधों से लड़ने और उन्हें दूर करने की मामूली कोशिश के बाद हर बार मैंने हार मान ली, आगे बढ़ने के रास्ते खुद ही बन्द कर दिए।गुज़रते समय के साथ जब कभी किसी मुकाम पर न पहुँच पाने के कारणों की खोज करती हूँ तब हमेशा ही मेरा डर और काफी हद तक आलस्य को ही इन सब की वजह पाया।
अपने जीवन को एक निश्चित दिशा न दे पाने का जितना दुःख नहीं उससे कहीं ज़्यादा दुःख और अपराधबोध मुझे अपने एक निर्णय से है जिसे मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी असफलता मानती हूँ मेरे एक निर्णय ने एक दूसरे जीवन की दिशा ही बदल दी। उसके सुनहरे भविष्य का दरवाज़ा मैंने हमेशा के लिए बन्द कर दिया। मुझे ज़िन्दगी ने कई मौके दिए हर बार मैंने ठुकरा दिया उसे ज़िन्दगी ने सबसे सुनहरा मौका दिया था उसकी योग्यताओं के अनुरूप लेकिन मैंने छीन लिया। उसकी मैं बड़ी बहन हूँ लेकिन उस वक़्त मैं उसकी मेंटर भी थी। मेरी इच्छा और मेरी सलाह(आदेश्) के बिना मानों उसके हर बड़े निर्णय पूरे ही
नहीं होते थे  :-(

घटना जितनी पुरानी होती जा रही दिल पर दाग उतना ही गहरा होता जा रहा है।
साल 2000 था। रांची के अख़बार में छपे विज्ञापन पर नज़र पड़ी। BSc आर्मी नर्सिंग कोर्स के लिए आवेदन आमन्त्रित किये गए थे। छोटी बहन किसी भी तरह का बहाना न कर पाये इसलिए विज्ञापन की कटिंग और फॉर्म  एक साथ उसे पोस्ट  से भेज दिया। पश्चिम बंगाल के 24परगना ज़िले के एक छोटे से जगह में रहने के कारण उसे फॉर्म भरने आदि के लिए बहुत सी परेशानियों से दो चार होना पड़ा। बिहार से माइग्रेट विद्यार्थी होने की वजह से उसे एफिडेफिट आदि भी जमा करना पड़ता, पर उसने बहन की इच्छा को अपना सपना बना लिया।
कभी-कभी मज़ाक से कहती दीदी, मेरा वज़न ही तो सिरिंज जितना है कहीं मुझे छांट न दे। मैं कहती पहले दिमाग का टेस्ट पास करो फिर फिजिकल टेस्ट की सोचेंगे, अभी उसमें टाइम है तब तक अच्छी डाइट ले कर वजन बढ़ा लो। इसी तरह की बातें हमारे बीच चलती रहतीं और वो परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ ढेर सारा केला खाना और वजन बढ़ाने की हर संभव तरकीब में लगी रहती। तमाम बाधाओं को पार करते हुए रिटेन, इंटरव्यू, फिजिकल टेस्ट सब में मेरिट के साथ पास
हो गयी। जैसे-जैसे रिजल्ट निकलता वो मुझे खुशखबरी देती और मैं नाना
चिंताओं में घिरने लगती। आर्मी नर्स की ज़िन्दगी की कठिनताओं के बारे में कुछ खबरें इधर-उधर से मिलने लगीं और कुछ मेरे अपने पूर्वाग्रह बेचैन करने लगे थे। मुझे लगने लगा छोटी बहन सबसे दूर अकेली कहीं मुश्किल में पड़ गयी तो क्या करुँगी? कोई और नौकरी हो तो जब चाहे छोड़ दे लेकिन ये नौकरी तो यूँ ही छोड़ी नहीं जा सकेगी। दिन-रात मैं यही सोचती रहती और एक दिन जब उसका अपॉइंटमेंट लेटर आ गया और बहुत मुश्किल का सामना कर के किसी तरह एक टिकट वेटिंग में मुम्बई का मिला तो मैं अड़ गयी .... ज़िद पकड़ ली नहीं जाना है,’ जब टिकट भी कनफर्म्ड नहीं मिला तो समझना चाहिए वहां न जाना ही ठीक
होगा।‘ जैसे कमज़ोर तर्क दे कर उसे रोकने की कोशिश करने लगी।छोटी बहन बहुत रोयी, मुझे समझाने की बहुत कोशिश की; लेकिन मेरे अक्ल पर मानों पत्थर ही पड़ गए थे। मेरा डर मुझ पर इतना हावी हो गया था कि नकारात्मक बातों के अतिरिक्त मुझे कुछ और समझ ही नहीं आ रहा था। मेरी बातों ने बाकी सदस्यों पर भी असर किया सबने मिल कर बहन के सुंदर भविष्य का सपना बिखेर कर रख दिया।
बहन कई साल तक अपना टिकट संभाल कर रखी रही। आँखों में आंसू आते पर कभी मुझे दोष नहीं दिया। मैंने उसे अनजान मुसीबतों से बचाये रखने के लिए दूर जाने नहीं दिया लेकिन वक़्त ने किसके लिए क्या मुकर्रर किया है ये सिर्फ वक़्त आने पर ही पता चलता है।
माँ के कैंसर से लड़ने के दौरान सबसे ज़्यादा कठिन संघर्ष छोटी बहन ने ही किया।माँ को इलाज के लिए ले कर जाने से लेकर उनकी अंतिम सांस तक उसी ने सेवा की, सारी मानसिक यंत्रणा भी उसने ही सही।
उसके जुझारू व्यक्तित्व और स्वभाव के साथ सेवा भाव देखती हूँ तब मुझे अपने निर्णय पर पछतावा और बढ़ जाता है। अगर उसने आर्मी ज्वाइन की होती तो उसकी अलग पहचान होती। कैंसर पीड़ित माँ का संघर्ष थोड़ा आसान होता। मेडिकल सपोर्ट ज़्यादा मिलता।
आज भी वो अपने जीवन में खुश और संतुष्ट है, खुशहाल पारिवारिक जीवन है; लेकिन जो अवसर उसके जीवन को एक मुकाम तक पहुंचाता मेरी वजह से हासिल न हो पाया।
ये उसकी नहीं मेरी असफलता है।इस विफलता ने मुझे बहुत बड़ी सीख दी। मौका मिले तो पूर्वाग्रहों के कारण अति चिंता से उपजे भय के कारण अवसर को गंवा देना असफलता ही नहीं मूर्खता भी है।

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